Book Title: Jinabhashita 2007 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ को विराजमान करिये, ऋषभदेवजी, अजितनाथजी, | निकाला। उसका अर्थ यह है कि यह पृथ्वी माँ है। यह भूमि सम्भवनाथजी, अभिनंदननाथजी, सुमतिनाथजी आदि २४ | जो हमारा पालन-पोषण करती है, हम इसके साथ अत्याचार भगवानों को विराजमान कर लीजिये और एक-एक पोरे को | करते हैं, हमें यह अच्छे-अच्छे फल, फूल देती है; उसके देखते जाइये। ऋषभदेवजी, अजितनाथजी, सम्भवनाथजी; | ऊपर मैं अभी सो रहा था और सबसे पहले पैर रखने वाला ऐसे २४ पोरों को देखते हुए २४ भगवानों का स्मरण करते था; तो जो हमारा उपकारी हो उसके ऊपर पैर रखना कृतघ्नता हुए और फिर उसके बाद अंगूठे पर आइये। दोनों अंगठों को | है। यह पृथ्वी हमारी उपकारी है और मैं उठकर के अभी पैर आप देखिये, अर्द्धचन्द्राकार बन जायेगा, यह सिद्धशिला का | रखूगा, इसलिए शायद किसी ने कहा कि इस पृथ्वी से रूप बन जायेगा और यह अंगुलियाँ सिद्ध भगवान् की प्रतीक | पहले क्षमा मांग लो और कहो, मैं बिना पैर रखे नहीं रह हो जायेंगी। इस सिद्धशिला पर ऐसे भगवान् विराजमान है, | पाऊंगा। तो वह पहले पलंग पर बैठे बैठे ही पृथ्वी को छूता २४ भगवान् हो गये, उन सिद्धपरिमेष्ठी और अरहंत-परिमेष्ठी, | है और फिर बाद में पैर बढ़ाता है। उसका कारण यह हो २४ तीर्थंकर, और यदि विस्तृत करना है तो सामान्य से | सकता है; लेकिन धार्मिक दृष्टि से उसका कोई महत्त्व नहीं पंचपरमेष्ठी का स्मरण करके फिर २४ भगवानों के लिए | है। पृथ्वी एक चर है, उसमें पूज्यता का कोई सवाल नहीं। और अनन्त सिद्धपरिमेष्ठियों के लिए गवासन से नमस्कार | कभी-कभी लेकिन उपकारी भाव के कारण से यह कार्य कीजिये। यह उठते ही सबसे पहले करना। सुप्रभात स्तोत्र में | करना पड़ता है। अपने (जैनियों के) यहाँ यह करते हैं कि प्रातः काल २४ तीर्थंकरों के स्मरण को मंगलकारी माना है- | | नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर के वह व्यक्ति जायेगा और प्रालेय-नील-हरिता-रुण पीत-भासं, लघुशंका, शौच आदि शुद्धि से निवृत्त होगा। हाथ पैर धोकर यन्मूर्ति-मव्यय सुखा-वसथं मुनीन्द्राः। आयेगा। शौच जाइये, लघुशंका जाइये, तो हाथ पैर धोइये, ध्यायन्ति सप्ततिशतं जिनवल्लभानां, स्नान करने की आवश्यकता नहीं है। उसके बाद एक लकड़ी त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम्॥१०॥ का पाटा लीजिये अथवा एक डाब की चटाई लीजिये और सुप्रभातं सुनक्षत्रं, माङ्गल्यं परि-कीर्तितम्। बिस्तर छोड़ दीजिये। छोड़ने के बाद फिर ध्यान से बैठिये चतुर्विंशति-तीर्थानां, सुप्रभातं दिने दिने॥११॥ थोड़ी देर, ध्यान में बैठने के बाद चिन्तन करिये कि मैं कौन अर्थात् जिनके शरीर की कांति बर्फ के समान सफेद, | हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाना हैं? पहला चिन्तन करो कि नील, हरित, लाल और पीली है, जो अविनाशी सुख के | मैं कौन हैं? क्या मैं जड हँ? नहीं। क्या मैं परिवार हैं? नहीं। स्थान हैं; ऐसे तीर्थंकरों का मुनि ध्यान करते हैं। ऐसे तीर्थंकरों | क्या मैं, धन-दौलत हूँ ? नहीं। क्या मैं यह मित्र मण्डली के ध्यान में मेरा प्रातः काल सर्वदा सम्पन्न हो। चौबीस वगैरह, जिनके साथ में अभी उठकर के संबंध तीर्थंकरों का स्मरण प्रातः काल प्रत्येक के लिए उत्तम, शुभ | सब हूँ ? नहीं। क्या मैं दुकान हूँ ? नहीं। क्या मैं मकान हूँ ? नक्षत्र वाला, मंगलकारी बताया गया है। नहीं। क्या मैं वस्तु हूँ? नहीं। क्या मैं वस्त्र हूँ? नहीं। क्या मैं एक गृहस्थ, जो संसार के जंजाल में फंसा है वह | शरीर हूँ ? नहीं। इस तरह चिन्तन करना कि मैं जो देख रहा कीचड़ में भी पड़ा रहे तो भी जंग न लगे, वह कीचड़ में भी | हूँ वह मैं नहीं हूँ, जो देख रहा है वह मैं हूँ। जो सुन रहा हूँ पड़ा रहे तो भी कमल खिल जाए, कीचड़ में भी पड़ा रहे तो | वह मैं नहीं हूँ, जो सुन रहा है वह मैं हूँ। जो चख रहा हूँ वह भी वह धर्म ध्यान कर सके, ऐसा कैसे हो सकेगा? यह मैं | मैं नहीं हूँ, जो चख रहा है वह मैं हूँ। जो सूंघ रहा हूँ वह मैं २४ घण्टे की क्रिया बताता हूँ। सबसे पहले आपने नमस्कार | नहीं हूँ, जो सूंघ रहा है वह मैं हूँ। जो स्पर्श किया जा रहा है किया और उसी समय आप दो मिनट के लिए मौन भाव से | वह मैं नहीं हूँ, जो स्पर्श करने वाला है वह मैं हूँ। अभी नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ें। नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ने के बाद | कितना ही ध्यान रखना, फिर आगे जब तुम्हारी साधना फिर आप पृथ्वी पर पैर रखें। पलंग से उतर जायें, बिस्तर से | बढ़ेगी तो तुम कहोगे कि ना मैं सूंघनेवाला हूँ, ना मैं देखने उतर जायें, बिस्तर छोड़ दें। वैष्णव दर्शन में इसकी एक | वाला हूँ, ना मैं करने वाला हूँ मैं तो अरेषु हूँ। यह बात विचार विधि और है कि सोने के बाद व्यक्ति को पैर रखने से पहले | में आयेगी। पहले तो अभी यही कर लो कि मैं सूंघनेवाला जमीन को छूने की बात कही गयी है। हालांकि यह सम्यक् | हूँ। लेकिन जो सूंघ रहा हूँ वह मैं नहीं हूँ, जो फूल सूंघा जा नहीं है, जमीन एक जड़ है, जमीन का वंदन एक मिथ्यात्व | रहा हूँ यह मैं नहीं हूँ; लेकिन जो सूंघ रहा है वह मैं हूँ। यह है; लेकिन एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है जिसका मैंने यह अर्थ | प्रारम्भिक ज्ञान है। सूंघनेवाला भी आत्मा नहीं है, यह बाद में - मार्च 2007 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36