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तर्क या युक्ति के बलबूते पर कहना अलग बात है, परन्तु जो | बात कही हैविषय कहा ही नहीं गया हो, उसे भी निर्णीत कर देना गलत
है ।
आचार्य समन्तभद्रस्वामी सारस्वत आचार्य की कोटि में आते हैं। वे कला, उक्ति, न्याय आदि विद्याओं में पारंगत थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा को अभिव्यक्ति दी थी। वह उनका अभिमान नहीं था, अपितु विद्या के प्रति गौरव था । उसके बिना सामने वाले (राजा आदिक) को दिशाबोध ही प्राप्त नहीं होता। उन्होंने जहाँ न्याय ग्रंथों में भगवान की परीक्षा की है वहीं रत्नकरण्डक श्रावकाचार में कहा है कि सर्वप्रथम भगवान् को मानो । भगवान् को मानने के लिये वो सर्वज्ञ है, या नहीं, यह पहले अनिवार्य नहीं है । सर्वज्ञ ने यह जाना या नहीं, यह भी अनिवार्य नहीं, गुण-द्रव्य-पर्याय उनकी पहचान नहीं बनाई अपितु सर्वज्ञ को वीतरागी होना चाहिये, यह लक्षण कहा है। भगवान् कैसे हों ? यह पहचान कराकर रत्नकरण्डक श्रावकाचार में ही उन्होंने शास्त्र की पहचान कराई है। कुपथ का निरूपण नहीं बल्कि कुपथ का विनाश करने वाले एवं सबका हित करने वाला ही शास्त्र कहलाता है । इस ग्रंथ में उन्होंने भगवान् की, गुरु की एवं शास्त्र की पहचान नहीं अपितु उनके वास्तविक स्वरूप के श्रद्धान करने को सम्यग्दर्शन कहा है। मात्र आत्मानुभूति करने, होने को सम्यग्दर्शन नहीं कहा।
स्थापना निक्षेप से स्थित भगवान् के बिम्ब, मूर्ति में हितोपदेशीपना, एवं सर्वज्ञत्व भले ही देखने में नहीं आते। उनके बिम्ब को दिन में तीन बार भी देखें पर जैसे शब्द देखने में नहीं अपितु सुनने में ही आते हैं । उसी प्रकार उनका सर्वज्ञत्वपन देखने में नहीं अपितु शास्त्र श्रवण से ही समझ आता है। 'पूज्यवाद स्वामी' ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ पर अपनी टीका 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रंथ में कहा है कि दिगम्बर वेश धारक आचार्य मुख से कहे बिना ही शिष्यों के बीच में बैठे हुये भी दिगम्बरत्व के माध्यम से अथवा यथाजात मुद्रा से मानो वीतरागता का साक्षात् पाठ कह रहे थे। भगवान् बैठे हों, या खड़े हों, मुख से बोले बिना ही उनकी मुद्रा सब कुछ कह रही होती है । उसे आँखों से सुन, देख सकते हैं, किन्तु कानों से नहीं । उस भाषा को सुनने में कान नहीं बल्कि आँखें ही समर्थ हैं। जैसे वक्ता की मुखमुद्रा को देखे बिना सुनते हुये कभी-कभी सही भाव नहीं समझ पाते, जबकि बिना सुने ही मुख मुद्रा से अथवा उनकी बाह्य प्रवृत्ति / हाथ आदि के संकेत को देख करके सब कुछ समझा जा सकता | आचार्य कुन्दकुन्द ने 'अष्टपाहुड' में
8 मार्च 2007 जिनभाषित
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हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे । णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मतं ॥
(मोक्षपाहुड-९०) हिंसा से रहित धर्म में, १८ दोषों से रहित देव, भगवान् में तथा निर्ग्रन्थ के द्वारा कथित प्रवचन यानी जिनवाणी पर श्रद्धान रखने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। इसमें कहा गया है कि जो १८ दोषों से रहित हैं, वे ही भगवान् हैं। सर्वज्ञत्व हमारी चक्षु, आँख का विषय नहीं है । ४६ गुणों से युक्त होकर भी अर्हन्त, तीर्थंकर भगवान् समवसरण में विराजमान होते हुये भी बाह्य लक्षणों से नहीं अपितु निर्विकार बालकवत् या यथाजात लिङ्गयुक्त, १८ दोषों से रहित होने से वीतरागता के माध्यम से हम उन्हें पहचान लेते हैं एवं अपनी श्रद्धा का विषय बना लेते हैं। क्षुधा, तृषा, रोग, वृद्धावस्था आदि १८ दोष नहीं होने से उनके शरीर में व ललाट में झुर्रियाँ तथा मुख में मूंछ, दाढ़ी आदि नहीं आती। इसलिये वे भीतर के समान बाहर भी सुन्दर लगते हैं । वे देखने में वृद्ध से नहीं बल्कि किशोर लगते हैं। उनका ज्ञान एवं चारित्र वृद्ध एवं प्रौढ़ होता है । परन्तु शरीर बालकवत् होता है । चिंता विस्मय, आरम्भ परिग्रह, भय, अस्त्र शस्त्र आदि से रहित ही भगवान् होते हैं। उनके दर्शन करने से अनादिकालीन मिथ्यात्व भी क्षणभर में समाप्त हो जाता है। अनंतकालीन धाराप्रवाह रूप से आ रहे कर्म के क्षय का कारण उनकी वीतरागता की एक झलक मात्र है, न कि सर्वज्ञत्व । दर्शन करते ही सर्वप्रथम वीतरागता ही उनमें दृष्टिगत होती है, सर्वज्ञता की खोज बाद में होती, की जाती है। वीतरागता जानने, देखने की चीज है जबकि सर्वज्ञता मानने रूप । यह पढ़ने, देखने रूप है वह परखने की। ध्यान रहे भगवान् को नहीं उनकी प्रतिमा को परखा जा सकता है।
क्षुत्पिपासाजरातंकजनमांतकभयस्मयाः । न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः सः प्रकीर्त्यते ॥ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार /६) आँखों से वीतरागता देख सकते हैं, सर्वज्ञता नहीं । यह तो मान्यता पर ही आधारित है। दोष-आवरण के अभाव के पहले मोह का अभाव भी आवश्यक है। जिनेन्द्र-स्तुति में भी आप पढ़ते हैं:
सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रसलीन । सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज-रहस विहीन ॥ अरि यानी मोहनीय कर्म, रज आर्थात् ज्ञानावरण एवं
बहुत महत्त्वपूर्ण | दर्शनावरण कर्म तथा रहस यानी अंतराय कर्म, इन सभी से
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