Book Title: Jinabhashita 2007 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 9
________________ जीवननिर्वाह नहीं, जीवननिर्माण 'जीवननिर्वाह की नहीं जीवननिर्माण की बात सर्वोपरि । जो प्रभु के द्वारा जाने जाते हुए भी कथन के अयोग्य यानी होनी चाहिए। आत्म-कल्याण की बात सच्चे देव - गुरु-शास्त्र अकथ्यभूत हैं। भगवान् की दिव्यध्वनि भी सारभूत है, बहुभाग की पहचान करने पर ही हो सकती है, इसके बिना नहीं । तो अकथ्य है, किंतु कुछ लोगों का छद्मस्थ दशा में छाती इस पहिचान के बाद प्रयोजनभूत तत्त्व को जानना या मानना ठोकना गलत है कि पदार्थ ऐसा ही है। गोम्मटसार जीवकाण्ड चाहिए। यह कार्य आत्मकल्याण हेतु पर्याप्त होगा ।' उक्त तथा राजवार्तिक आदि ग्रंथों में उल्लेख आता हैधर्मोपदेश दिगम्बर जैनाचार्य संत शिरोमणि श्री विद्यासागर जी महाराज ने श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र तारंगा में 'श्रुत पंचमी' दिवस पर आयोजित विशेष धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए प्रदान किये। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने धर्मोपदेश का प्रारम्भ मंगलाचरण से करते हुए कहा सार-सार दे शारदे! बनूँ विशारद धीर । सहार देकर तार दे, उतार दे उस तीर ॥ (सूर्योदयशतक / ५) सरस्वती, शारदा या जिनवाणी तीनों एक ही हैं, उनको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। वह संसार में जो सार - सार है वह हमें प्रदान करे। सार-सार को हम ले लें और जो असार शेष रह जाता है उसकी हमें चिंता नहीं है। सरस्वती, जिनवाणी से सार की अक्षर यानी क्षरणरहित की माँग करनी चाहिए, अक्षरों की नहीं 'अक्षर' यानी 'न क्षरं एति इति अक्षरः' अर्थात् जो नाश को प्राप्त नहीं होता। सुननेवाले अक्षर तो एक ही बार काम आते हैं, उन्हें दुबारा श्रवण नहीं कर सकते। टेपरिकार्डर की बात अलग है। शब्दों को सुन सकते हैं, परंतु उन्हें पढ़ नहीं सकते। जो पढ़ते हैं, उन्हें सुन नहीं सकते, किंतु जो सुनते हैं, उसे पढ़-सुन भी सकते हैं तथा अन्य को सुना भी सकते हैं भगवान् की देशना से देशनालब्धि की प्राप्ति होती है, वह गुरुदेशना से भी प्राप्त होती है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है । वर्तमान में जो भी सारभूत है, वह गुरुदेशना से प्राप्त है दुनिया में क्या है, क्या-क्या हुआ या होगा, यह सब कुछ दर्पण की भाँति केवलज्ञान में आता है । परन्तु जो-जो उनके ज्ञान में आया है, वह कहा नहीं गया। दुनिया में अनन्तानन्त पदार्थ हैं, उनमें बहुभाग अकथ्य है । अकथ्य यानी जिसका कथन नहीं किया जा सके। अकथ्य एवं अवक्तव्य में कदाचित् अंतर है । कथन में आने योग्य होने पर भी एक साथ दो धर्मों नहीं कह पाना अवक्तव्य है, किंतु कुछ पदार्थ ऐसे भी हैं । Jain Education International आचार्य श्री विद्यासागर जी raण भावा अनंतभागो दु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अनंतभागो दु सुदणिबद्धो ॥ ( गोम्मट. जीव. / ३३४) अनंतानंत पदार्थ, वस्तु के गुणधर्म जानने में आते हैं पर वे सब कहे नहीं जा सकते, इसलिये अकथ्य माने जाते हैं। जाननेवाला सारा का सारा कथन में नहीं आता, उसका बहुभाग तो अकथ्य है । यथा सौ में से निन्यानवे तो अकथ्य हैं, किंतु वह जानते अवश्य हैं, जिसे मात्र केवलज्ञान से ही जान सकते हैं। जो है, उसके बारे में पूर्णत: कहा नहीं जा सकता, मात्र एक प्रतिशत ही कहा जाता है । कथ्यभूत को भी अनंत केवली भी अनंतकाल तक पूर्ण वर्णन नहीं कर सकते। जो एक भाग कथ्यभूत है उसका भी अनंतभाग कथन में आता है और गणधर परमेष्ठी ने उसका अनंतवाँ भाग अपने कर्णों से सुनकर धारण किया। वाणी सुनी जाती है, पढ़ी नहीं जाती । दिव्यध्वनि को सुनकर अनंतवाँ भाग रूप द्वादशांग की रचना गणधर परमेष्ठी करते हैं। जो सुना वह सारा का सारा लिखा नहीं जा सकता। गणधर परमेष्ठी भी दिव्यध्वनि को पूर्ण टेप नहीं कर सके । आज तो द्वादशांग भी पूर्ण उपलब्ध नहीं है। श्रुतधर एवं सारस्वत आचार्य भी आज नहीं हैं। द्वादशांग या द्वादश में से कुछ कम करते-करते अन्य अंग या उनके अंशों के भी ज्ञाता आचार्य नहीं रहे। जैसे सामान्य और स्पेशलिस्ट डॉक्टर में अंतर होता है, वैसे ही अंग और पूर्वगत विषयों के ज्ञाताओं में अंतर है। द्वादशांग के पाठी भी आज तो हैं नहीं, उनसे हमारा काम भी नहीं चलेगा। हमारा तो अल्पज्ञान से ही काम होगा। आज पूर्ण एक अंग का भी ज्ञान नहीं है। द्वादशांग का थोड़ा सा ज्ञान शेष रह पाया है। इतना अवश्य है कि अध्यात्म का कुछ ज्ञान आज विद्यमान है, जो सारभूत है, सार-सार है। अनंत बहुभाग तो नहीं, अपितु एक भाग में भी जो कुछ उपलब्ध है, उसमें हर व्यक्ति यही दावा ठोकता है कि मैं जो कह रहा हूँ, वह सही है। ऐसा कहना या मानना ही गलत है। मार्च 2007 जिनभाषित 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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