Book Title: Jinabhashita 2007 03 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ स्थूलभद्र की परम्परा से विकसित हुआ।" (जैनधर्म की ऐतिहासिक विकासयात्रा / पृ.29)। इस श्वेताम्बरीय मान्यता से क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी जी की यह कल्पना निरस्त हो जाती है कि कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्र पूर्व में श्वेताम्बरसंघ के संस्थापक थे। ख- श्वेताम्बरसंघ के संस्थापक आचार्य स्थूलभद्र अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समकालीन होने से ईसापूर्व चौथी शताब्दी (वीर नि० सं० 162 = ईसापूर्व 365) में हुए थे, जब कि आचार्य देवसेन ने शान्त्याचार्य का वधकर जिनचन्द्र द्वारा श्वेताम्बरसंघ स्थापित किये जाने की घटना वि० सं० 136 (ई० सन् 79) में घटी बतलायी है। इस कालवैषम्य से भी क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी की कल्पना अयुक्तियुक्त सिद्ध होती है। ग- दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं का साहित्य इस बात का उल्लेख करता है कि अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण (वीर नि० सं० 62 = ईसा पूर्व 465) के पश्चात् दोनों संघों की आचार्यपरम्परा भिन्न-भिन्न हो गयी थी। यह इस तथ्य का ज्वलन्त प्रमाण है कि श्वेताम्बरसंघ का उदय ईसापूर्व 465 में हो गया था। श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय (ईसापूर्व चौथी शताब्दी) में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के फलस्वरूप निर्ग्रन्थसंघ का जो दूसरा विभाजन हुआ था, उससे श्वेताम्बरसंघ नहीं, अपितु अर्धफालकसंघ अस्तित्व में आया था, जो आगे चलकर ईसा की द्वितीय शताब्दी में श्वेताम्बरसंघ में विलीन हो गया। इस आगमप्रमाण से भी क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी की कल्पना अत्यन्त अप्रामाणिक सिद्ध होती है। घ- यह मान्यता भी अप्रामाणिक है कि अर्धफालकसंघ वि० सं० 136 (ई० सन् 79) में श्वेताम्बरसम्प्रदाय के रूप में परिवर्तित हो गया था, क्योंकि मथुरा के कंकालीटीले की खुदाई में जो जिनप्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, वे प्रथम शताब्दी ई० की हैं, जो अर्धफालक सम्प्रदाय के साधुओं द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थीं। इससे सिद्ध होता है कि अर्धफालकसम्प्रदाय ईसा की प्रथम शती तक श्वेताम्बरसंघ में विलीन नहीं हुआ था। इस प्रमाण से भी क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी की यह मान्यता निरस्त हो जाती है कि जिनचन्द्र ने वि० सं० 136 (ई० सन् 79) में श्वेताम्बरसंघ की स्थापना की थी। ङ- क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने भावसंग्रह (प्राकृत) के अनुसार जिनचन्द्र को वि० सं० 136 (ई० सन् 79) में श्वेतम्बरसंघ का संस्थापक माना है, और कुछ वर्षों बाद उनके दिगम्बरसंघ में लौटने और ई0 सन् 96 में उनके द्वारा कुन्दकुन्द को दीक्षा दिये जाने की कल्पना की है। किन्तु 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' ( Vol.XX) की नन्दिसंघीय पट्टावली में बतलाया गया है कि कुन्दकुन्द का जन्म ईसा से 52 वर्ष पूर्व हुआ था और ईसा से 8 वर्ष पूर्व 44 वर्ष की आयु में उन्होंने मुनिदीक्षा ग्रहण की थी। इस प्रमाण के अनुसार कुन्दकुन्द की मुनिदीक्षा क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी के कल्पित समय से 104 वर्ष पहले ही हो गयी थी, अतः क्षुल्लक जी का मत प्रमाणविरुद्ध है। च- आचार्य जिनचन्द्र कुन्दकुन्द के गुरु थे और 'दि इण्डिन ऐण्टिक्वेरी' (Vol.XX) में प्रकाशित पट्टावली में उनका पट्टारोहणकाल कुन्दकुन्द के पट्टारोहणकाल (वि० सं० 49 = ईसापूर्व 8) से 9 वर्ष पूर्व (वि० सं० 40= ईसापूर्व 17 में) बतलाया गया है। इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने वि० सं० 136 अर्थात् ई० सन् 79 में जिस जिनचन्द्र को शान्त्याचार्य का वध कर श्वेताम्बरसंघ का संस्थापक तथा ई० सन् 96 में कुन्दकुन्द का दीक्षागुरु माना है, वह उनका दीक्षागुरु हो ही नहीं सकता। सच तो यह है कि उसका अस्तित्व ही नहीं था, क्योंकि 'भद्रबाहुचरित' के कर्ता रत्ननन्दी ने शान्त्याचार्य के स्थान में स्थूलाचार्य के वध की बात कही है, और किसी जिनचन्द्र को वधकर्ता न बतलाकर सभी विरोधी मुनियों को वधकर्ता बतलाया है। इसके अतिरिक्त वि० सं० 136 में श्वेताम्बरमत की उत्पत्ति हुई ही नहीं थी, वह जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् अर्थात् ईसापूर्व 465 में ही हो गयी थी तथा अर्धफालकसम्प्रदाय का भी श्वेताम्बरीकरण वि० सं० 136 अर्थात् 79 ई० में न होकर उसके सौ-पचास वर्ष बाद हुआ था। -मार्च 2007 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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