Book Title: Jinabhashita 2006 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 5
________________ } मुनि को दुनिया का दास बनने की सलाह ये विचार दिगम्बरजैन - कर्मसिद्धान्त की गहरी समझ से रहित मस्तिष्क की उपज हैं। जैन मुनि का नग्नत्व कोई शरीर की शोभा बढ़ानेवाला या शरीर को सुख पहुँचानेवाला या रोटी कमानेवाला अथवा लोगों को अपना नग्न शरीर दिखाने का शौक पूरा करने वाला उपाय नहीं है, जिसे जब चाहे तब अपना लिया जाय और जब चाहे तब छोड़ दिया जाय। यह तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट मोक्ष का उपाय है। यह कर्मसिद्धान्त से जुड़ा हुआ है। यह एक अत्यन्त प्राचीन, प्राग्वैदिक भारतीय फिलासॉफी, भारतीय विश्वास का विषय है। यह एक बड़ी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। वह फिलासॉफी, वह विश्वास, वह मनोविज्ञान इस प्रकार है : आत्मा शरीर से भिन्न है। शरीर से राग होता है, तो शरीर को सुख पहुँचानेवाले पदार्थों से राग होता है। उन पदार्थों के पाने के लिए मनुष्य हिंसादि पाप करता है, उनसे कर्मों के में बँधता है, कर्मबन्धन के कारण बार-बार जन्म लेता है और बार-बार मरता है। इस जन्म-मरण के दुखद चक्र से सदा के लिए मुक्त होना और अक्षय, अतीन्द्रिय आत्मसुख की अवस्था को प्राप्त करना मोक्ष है। मोक्ष के लिए | कर्मबन्धन से मुक्त होना आवश्यक है, उसके लिए हिंसादि पापों का परित्याग जरूरी है, उसके लिए शारीरिक सुख के | साधनभूत वस्त्रादि पदार्थों के ग्रहण का अर्थात् परिग्रह का त्याग जरूरी है, जो उन पदार्थों के प्रति वीतरागभाव से फलित होता है । इस प्रकार नग्नत्व कर्मबन्धनकारी हिंसादिपापों के जनक वस्त्रादिपरिग्रह के त्याग का प्रमाण या लक्षण है । यह तब तक आवश्यक है, जब तक कर्मबन्धन से मुक्ति का लक्ष्य सिद्ध नहीं हो जाता । बन्धन इस स्थिति में यदि उपर्युक्त विचारकों की सलाह के अनुसार मुनि एक वस्त्र पहनना शुरू कर दें, तो कर्मबन्धन से मुक्ति की साधना बीच में ही भंग हो जायेगी और परिग्रह में वृद्धि की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी, क्योंकि एक वस्त्र स्वीकार कर लेने पर दूसरे दिन के लिए धुल हुए दूसरे वस्त्र की जरूरत होगी। फिर उनको धोने सुखाने के लिए साबुन-पानी, छन्ना, वर्तन, रस्सी, कील आदि की, तथा वस्त्र के फट जाने पर उसे सीलने के लिए सुई-धागे-कैंची की आवश्यकता उत्पन्न होगी। फिर एक वस्त्र स्वीकार कर लेने पर शीतादि- परीषहों से बचने के लिए चादर, कम्बल, दरी आदि रखना भी सिद्धान्त के विरुद्ध सिद्ध नहीं होगा। उन्हें संयम का उपकरण मान लिया जायेगा। तब इन सब को रखने के लिए बड़े-बड़े बैंगों या बोरी की जरूरत पड़ेगी। किन्तु पिच्छी - कमण्डलु के साथ बैगों या बोरी को कन्धे पर लटका कर विहार करना जवान मुनियों के लिए भी संभव नहीं होगा, बूढ़े मुनियों की तो बात ही दूर । इस स्थिति में नौकर रखना होगा और उसकी तनख्वाह की व्यवस्था करनी होगी। अथवा किसी एक स्थान में स्थायीरूप से निवास करने के लिए विवश होना पड़ेगा। इसके लिए मकान की जरूरत होगी । फिर एक स्थान में नियतवास करने लगने से, वहाँ के लोग रोज-रोज आहार देने में आना-कानी करेंगे। आहार न मिलने से आर्त्तभाव उत्पन्न होगा, जिससे नरकगति बँधेगी। आहार की पराधीनता से छुटकारा पाने के लिए स्वनिवास में ही भोजन की व्यवस्था करनी होगी। इसके लिए सेठों से दान माँगा जायेगा। सेठ दान देंगे, तो मुनियों को उनकी चाटुकारिता करनी पड़ेगी । इस तरह मुनि सेठों के आज्ञाकारी सेवक बन जायेंगे और सेठ उनके स्वामी । परम नीतिज्ञ भर्तृहरि ने कहा भी है आशाया ये दासास्ते दासा सर्वलोकस्य । आशा येषां दासी तेषां दासायते लोकः ॥ अर्थात् जो इच्छाओं के दास होते हैं, वे सारी दुनिया के दास बन जाते हैं, लेकिन जो इच्छा को अपनी दासी बना लेते हैं, सारी दुनिया उनकी दासी बन जाती है । किन्तु नग्नत्व की अवस्था समस्त इच्छाओं के विसर्जन की अवस्था है, इसलिए उसमें मुनि शहंशाह की अवस्था को प्राप्त हो जाता है। किसी कवि के निम्नलिखित वचन इस महान् मनोविज्ञान की अभिव्यक्ति करते हैं चाह गई चिन्ता मिटी मनवा बेपरवाह । जिनको कछु न चाहिए वे ही शाहंशाह ॥ तात्पर्य यह कि छोटा से छोटा भी वस्त्र धारण करने पर मोक्षमार्ग की बलि चढ़ जायेगी और मुनि आर्त्त- रौद्रभावों दिसम्बर 2006 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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