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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा
1. जिज्ञासा - अनाहारक जीव कौन-कौन होते हैं? | समाधान - कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 338 की टीका में
समाधान - इस प्रश्न के समाधान के लिये सबसे इस प्रकार कहा हैपहले हमको अनाहारक किसे कहते हैं, यह जानना आवश्यक "स्वपुत्रपुत्र्यादीन्वर्जयित्वा अन्येषां गोत्रिणां मित्रस्वहै। सर्वार्थसिद्धि टीका (2/30) में अनाहारक की परिभाषा | जनपरजनानां विवाहकरणं अन्यविवाहकरणं।" इस प्रकार कही है- 'त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां अर्थ - अपने पुत्र-पुत्री आदि को छोड़कर अन्य गोत्रयोग्य-पुद्गलग्रहणमाहारः। तदभावादनाहारकः।' अर्थ- तीन | वालों के, मित्र, स्वजन, परजनादिकों के पुत्र-पुत्री आदि का शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलवर्गणाओं का ग्रहण | विवाह करना, अन्य (पर) विवाह-करण नामक अतिचार है। आहार है और उसके अभाव से अर्थात् ऐसी वर्गणाओं को सागारधर्मामृत (4/58) की टीका में इसका स्पष्टीकरण ग्रहण न करने वाला अनाहारक है। अनाहारक के संबंध में श्री | इस प्रकार किया गया है- (टीका पं. कैलाशचंद्र जी) षट्खंडागम (1/177) में इस प्रकार कहा है- अणाहारा चदुसु "परविवाह करण अर्थात् अपनी संतान से अतिरिक्त दूसरों ट्ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घादगदाणं | की संतान का कन्याफल की इच्छा से अथवा पारस्परिक स्नेह अजोगिकेवली सिद्धा चेदि। .
के होने से विवाह कराना। जब स्वदारसंतोषी अपनी स्त्री के अर्थ - विग्रहगति को प्राप्त, मिथ्यात्व, सासादन तथा | सिवाय अन्य में मनवचनकाय से मैथुन न करूँगा, न कराऊँगा, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवाले जीव एवं समुद्घातगत केवली | ऐसा व्रत लेता है, तब मैथुन का कारण जो अन्यविवाहकरण इन चार गुणस्थानवाले जीव, अयोगकेवली एवं सिद्ध जीव | है उसका प्रतिषेध हो ही जाता है। किन्तु वह ऐसा समझता है अनाहारक होते हैं।
कि मैं तो मात्र विवाह करा रहा हूँ, मैथुन तो नहीं कराता हूँ, इस ____ भावार्थ - पहले, दूसरे तथा चौथे गुणस्थान वाले जीव | प्रकार व्रत की सापेक्षता होने से अतिचार है।" (तीसरे गुणस्थान में मरण नहीं होता) यदि ऋजुगति से गमन शंका - परविवाहकरण की तरह अपनी संतान का कर एक समय में ही जन्म ले लेते हैं, तो अनाहारक अवस्था | विवाह करने में भी तो उक्त दोष लगता है? को प्राप्त नहीं होते। यदि एक मोड़ेवाली गति से जाकर जन्म समाधान - यहा तो ठीक है, किन्तु गृहस्थ यदि अपनी लेते हैं, तो उनको विग्रहगति में दो समय लगेंगे। उनमें से प्रथम | कन्या का विवाह न करें, तो कन्या स्वच्छंदचारिणी हो जाये ... समय में अनाहारक तथा द्वितीय समय में जन्म ले लेने से | किन्तु यदि कुटुंब की चिन्ता करनेवाला कोई भाई वगैरह हो, आहारक होते हैं। इसी तरह यदि दो या तीन मोडेवाली गति | तो अपनी संतान का भी विवाह न करने का नियम लेना ही से जायें, तो प्रथम दो या तीन समय तक अनाहारक तथा | श्रेष्ठ है। अंतिम समय में आहारक होते हैं । केवली-समुद्घात अवस्था उपर्युक्त प्रकरणों से स्पष्ट है कि विवाह कराना, एक में, प्रथम समय दंड समुद्घात में औदारिक काययोग तथा | प्रकार से विवाह करनेवाले दम्पत्तियों के लिये मैथुन के साधन द्वितीय समय कपाट समुद्घात में औदारिकमिश्र काययोग | जुटाना है, इसलिये निषिद्ध है (आ. सुपार्श्वमति जी कृत होने से आहारक होते हैं, परन्तु तीसरे और चौथे समय में | टीका)। अतः ब्रह्मचर्याणुव्रती को अपने अतिरिक्त अन्यों के कार्मण काययोग होने से अनाहारक होते हैं । फिर लौटते समय | विवाहसंबंध तय कराना, उनकी शादी में शामिल होना, पाँचवें समय में कार्मण काययोग होने से अनाहारक होते हैं। उनको आशीर्वाद देना या प्रेरित करना, उचित नहीं है। शेष समयों में आहारक होते हैं। अयोगकेवली एवं सिद्ध | 3. प्रश्न - क्या आर्यिका का अकेली विहार करना भगवान् सदा अनाहारक ही रहते हैं।
आगम सम्मत है? 2. जिज्ञासा - ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक अतिचार समाधान- इस प्रकरण में आगम के निम्न प्रसंग 'परविवाहकरण' है। इसे स्पष्ट करें।
विचारणीय हैं
दिसम्बर 2006 जिनभाषित 31
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