Book Title: Jinabhashita 2006 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 31
________________ आओ एक अभियान चलाएँ शैलेष जैन शास्त्री 19 नवम्बर 2006 को सर्वऋतु विलास कॉलोनी । में भी त्याज्य माना गया है तथा नरक का द्वार बताया गया है। उदयपुर में पूज्य मुनि-पुंगव 108 श्री सुधासागर जी महाराज | आज जैनों को जागने की जरूरत है, अन्यथा संस्कृति के धर्मोपदेश में जैनत्व की रक्षार्थ समाज में संक्रमण की | की पतित अवस्था की कल्पना भी भयावह लगती है। 11 तरह फैल रही रात्रिभोजन की प्रथा को समाज से बहिष्कृत | वीं शताब्दी में जैनों की संख्या 15 करोड़ थी, जो घटती हुई करने का प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय प्रवचन सुनकर जहाँ | आज मात्र 1 करोड में सिमट कर रह गई है। किसी धर्म का एक ओर हर्ष हुआ, वहीं दूसरी ओर विषाद भी। विषाद इस | पतन इसी प्रकार होता है- समाज में मतभेद एंव मूलसस्कृति बात का कि आज हमारे वीतरागी संतों को कुलाचार पर | अथवा उसके कुलाचार के नाश होने से। जब संस्कृति मृत उपदेश देने को मजबूर होना पड़ रहा है। फिर भी हर्ष इस हो जाती है तब समाज भी जीवित नहीं रह सकता तथा बात का है कि पंथवाद एवं मतभेदों से ऊपर एक क्रांति का समाज के अभाव में धर्म के अस्तित्व की कल्पना आकाशअलख जगाया गया है। 'सर्वऋतु विलास कॉलोनी की | कुसुमुवत् व्यर्थ है। धर्मशाला में रात्रि भोजन नहीं होगा' इस प्रकार का एक | मुझे तो लगता है कि इस क्रांति के लिए यदि भारतप्रस्ताव तत्क्षण ही कमेटी ने पास किया। वर्ष के समस्त साधु एक बार संकल्पित हो जायें, तो शायद ___ पूज्य मुनिश्री ने खेद प्रकट किया कि आज जैन | रात्रिभोजन के सामूहिक आयोजनों के माध्यम से हो रही व्यक्ति की शादी की पत्रिका में ऐसा भी देखने में आने लगा | | अहिंसा की बेइज्जती समाप्त हो सकती है, कारण अधिकतर है कि 'सूर्यास्त से पहले भी भोजन की व्यवस्था है।' दिनोंदिन | जैन मुनिभक्त हैं। कानजीपंथ के अनुयायियों में सामूहिक हमारे समाज में पंथवाद की बू तेजी से फैलती जा रही है। रात्रि-भोजन सुनने में नहीं आता है, जो हर जैन को अनुकरणीय इसमें ओर राजनैतिक दलों में कोई भी अंतर समझ में नहीं होना चाहिए। आता। चंद लोग एवं चंद पंडित-विद्वान् अपने आप में एक जैनदर्शन में रात्रिभोजन भी मांसाहार माना गया है, समूह बनाकर दूसरों को दूसरा समूह मानकर मौका मिलते | एक ओर हम मांस निर्यात का, चमड़े की वस्तुओं का ही विरोध करने में जी-जान लगा देते हैं। कारण कुछ भी हो, | विरोध करते हैं दूसरी ओर रात्रि भोजन ---? नाम होता है तेरापंथ या बीस पंथ का। महाराजश्री ने जोर | प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं कम से कम सामूहिक रूप देकर कहा कि आज पूजा की थालियों पर हमारे समाज में | से रात्रि-भोजन का त्याग करना होगा, धर्मशालाओं में शक्ति दंगे हो रहे हैं, केस चल रहे हैं पर भोजन की थाली पर कोई के साथ रोक लगानी होगी। एवं बच्चों को जैन संस्कृति से विचार नहीं कर रहा, कोई भी पंथ जैनत्व के सुरक्षार्थ कदम संस्कृत करना होगा। विभिन्न वर्गों की निरंतर वृद्धिंगत संख्या उठाने को तैयार नहीं। रात्रिभोजन जैसा महापाप न तो तेरापंथ | तथा जैनों की ह्रासोन्मुख संख्या प्रमाणित करती है कि समाज को स्वीकार है, न बीसपंथ को, न शुद्ध तेरापंथ को। तब | से कुलाचार मिटता जा रहा है, फलस्वरूप जैन अन्य वर्गों में फिर हम इस दिशा में कदम क्यों नहीं उठा रहे हैं? आज | परिवर्तित होते जा रहे हैं। 'अहिंसा परमो धर्मः' सूत्र का संदेश देनेवाली जैन धर्मशालाएँ अब भी समय है कि हम निकलंक के खून को याद जमीकंद एंव रात्रिभोजन जैसी महान् हिंसा एवं अश्लील | करें और कम से कम बीच बाजार, बीच चौराहों और जैन नृत्यों के कार्यक्रमों हेतु दे दी जाती हैं। उन पत्रिकाओं का | धर्मशालाओं में समाज द्वारा किए जा रहे इस सांस्कृतिक दर्शन महादुर्लभ हो गया है जिनमें लिखा हो- 'सूर्यास्त से | विनाश को रोकें तथा अहिंसाधर्म के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट पहले ही भोजन की व्यवस्था हैं।' करें। अंग्रेजों के शासनकाल में जैन कर्मचारियों को सूर्यास्त 'सामूहिक रात्रिभोजन' शब्द का प्रयोग करने का से पहले भोजन के लिए अवकाश दे दिया जाता था, पर | अभिप्राय यह है कि सामाजिक क्रांति में सामूहिक व्यसन आज हम स्वयं कह देते हैं कि भाई साहब हमारा तो चलता का ही विरोध किया जा सकता है। व्यक्तिगतरूप से तो है ---- | रात्रिभोजन न मात्र जैनधर्म में, अपितु जैनेतर धर्मों | आत्म प्रेरणा ही कारण हो सकती हैं। इसी संदर्भ में मुझे ये दिसम्बर 2006 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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