Book Title: Jinabhashita 2006 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 35
________________ आचार्यश्री विद्यासागर जी के चरण जबलपुर (म.प्र.) की धरती पर जबलपुर 11 नवम्बर 2006 । महान् संत आचार्यश्री विद्यासागर जी सुबह जैसे ही बिलहरी से प्रस्थित हुए, वैसे ही उनके भ्रमणपथ का अनुमान लगाकर पिसनहारी मढ़िया तक का रास्ता आतुर जनसमुदाय से भर गया। स्थान-स्थान पर नमन करता जनसमूह उपस्थित था और जैसे ही वे आगे बढ़ते, जनसमूह विपुल जनसागर बनता गया। आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के कोमल चरण आज सुबह 6बजे ग्राम बिलहरी से जबलपुर की ओर बढ़े। मुनिश्री के दर्शन करने सड़क के दोनों और श्रद्धालुओं का तांता लगा रहा। 45 मुनियों के साथ आचार्यश्री जैसे ही पेंटीनाका पहुँचे श्वेताम्बर जैन समाज द्वारा उनका भव्य स्वागत किया गया। गोरखपुर पहुँचने पर सिख समाज के सदस्यों ने उनका भावभीना अभिनदंन किया। नागरिकों ने जगह-जगह स्वागत द्वारा बनाए और उनकी अगवानी की। आचार्यश्री के ससंघ त्रिपुरी चौक पहँचने पर आदर्शमति माता जी तथा उनके संघ द्वारा आगवानी की गई। आचार्यश्री के पिसनहारी की मढ़िया पहुँचते ही उनका भव्य स्वागत किया गया। जयकारों से संपूर्ण वातावरण में महातीर्थ पिसनहारी की मढ़िया में श्रद्धालु नागरिकों का विशाल समुदाय उपस्थित था। हर कोई आचार्यश्री के दर्शनों के लिए विह्वल था।मढ़िया जी में विश्राम के पश्चात् सुबह 10 बजे आचार्यश्री ने श्री ब्राह्मी आश्रम की बहनों तथा प्रतिभास्थली की बहनों से आहार लिया। आत्मपरीक्षण से सर्वांगीण विकास 12 नवम्बर 2006को पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर (म.प्र.) में आचार्यश्री का प्रवचन प्रतीक्षा शब्द हमें बहुत कुछ सोचने का समय देता है और उस प्रतीक्षा के समय में हमारा ध्यान न जाने किस-किस ओर जाता है, हम जब अतीत की ओर देखते हैं तो बीच में प्रतीक्षा आ जाती है। आपको यदि अपना सर्वांगीण विकास करना है तो बगैर प्रतीक्षा किये एक के बाद एक कदम संयम के साथ आगे बढ़े। जल्दी-जल्दी प्रगति करनेवाला व्यक्ति सो नहीं सकता। आँधी व तूफान में भी वह जागृत रहता है, वह दूर की किरणों के माध्यम से भी अपने जीवन को सुंदर बना सकता है। हमें किसी की प्रतीक्षा की नहीं निरीक्षण की आवश्यकता है। आप अपनी आत्मा का, अपने कार्य का निरीक्षण करें, अपने कर्तव्य का पालन करें।इच्छाशब्द अपने आप में सोचने के लिये बाध्य कर देता है कि हर व्यक्ति सुख की आकांक्षा करता है, लेकिन उसे सुख नहीं मिलता। इच्छा तो वह करता है, इच्छा की पूर्ति नहीं होती, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं है कि वह आकांक्षा करना छोड़ दे, लेकिन वह उससुख की प्रतीक्षा करता है, जो उसे कर्मठ पुरुषार्थी भी बनाती है। उन्होंने कहा कि मन में बहुत से भाव, संवेदनाएँ होती हैं, मन को वर्तमान की तरफ नहीं वर्धमान की तरफ ले जाने की आवश्यकता है। इसके लिये कुछ आयाम अलग से करने पड़ते हैं। आत्मा क्यों डूबरही है, क्योंकि आकांक्षाएँ तैर रही हैं। आत्मा कभी भी समाप्त नहीं होती, आगे भी समाप्त नहीं होगी। अनादिकाल से इस बात को हर व्यक्ति जानता है, लेकिन हम स्वभावगत बातों के सामने आत्मा को पीछे छोड़ देते हैं। प्रतीक्षा की ओर चले जाओगे तो पुरुषार्थ कम हो जाएगा। प्रतीक्षा हमेशा सिर दर्द की सम्पादिका है। अत: हर क्षण को कार्य में पुरुषार्थ के साथ उपयोग करें। परीक्षण अथवा निरीक्षण करें। काल को जब गौण करोगे तभी आपको सुख की अनुभूति होगी। आचार्यश्री ने कहा आज का युग धर्मयुग से आगे बढ़ गया है, इसलिए आज प्रतीक्षा की नहीं आत्मा के निरीक्षण की आवश्यकता है। मोह रहित होने से ज्ञान अनुकूल हो जाता है ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, किन्तु जब तक संयम का सहारा नहीं मिलता, ज्ञान ही दुःख का कारण बनता है, मोहरहित होने से ज्ञान अनुकूल हो जाता है और ज्ञान जब समीचीन हो जाता है, तो जीव भगवान तुल्य हो जाता है। और जब ज्ञान विकृत हो जाता है तो जीव को श्वान बना देता है। आचार्यश्री ने कहा कि भारतीय संस्कृति में बुद्धि को जागृत करने के लिए बाल्यावस्था में बालक हो या बालिका, उसके कान छिदवाए जाते हैं, जिसके पीछे मुख्य उद्देश्य यही होता है कि कान में जब कुण्डल पहनाए जाते हैं और कदम रखने पर जब वे हिलते हैं, तो उससे बुद्धि का विकास होता है। भगवान महावीर जब तक दीक्षित नहीं हुए थे, तब तक उनके कानों में कुण्डल रहते थे। बचपन में गुरु जी भी छात्र-छात्राओं के कान खींचते हैं, इसके पीछे मुख्य वजह यही होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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