Book Title: Jinabhashita 2006 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ अधिकार हमारा नहीं है। संघ के संचालन का भार आचार्य | पू.आ. विद्यासागर जी का संघ केवल राजस्थान, बुंदेलखण्ड, पर निर्भर होता है। अत: उनके बीच में बोलना हमारा काम | एवं मध्यप्रदेश में ही नहीं है। लगता है कि आपको पूर्ण नहीं है। जानकारी नहीं है। आज महान् आचार्य का संघ झारखंड, 12. जहाँ तक वीर सेवादल का संबंध है, वे श्रेष्ठ | छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आदि स्वयं सेवक हैं। यदि आगमविरुद्ध चलनेवाले शिथिलाचारी | सभी राज्यों में भव्य जीवों के अज्ञान अंधकार को नष्ट करने साधुओं के कार्य में सेवा देने नहीं गये, तो यह उनकी | एवं सच्चे धर्म का प्रकाश करने के लिए चातुर्मास कर रहा प्रशंसनीय सूझबूझ मानी जायेगी। मैं उनके इस कार्य के लिए | है। महाराष्ट्र में तथा कर्नाटक में इनकी चर्या देखकर लोग उन्हें बधाई देता हूँ और उनसे अनुरोध करता हूँ कि वे भविष्य | दांतों तले उँगली दबा रहे हैं। क्योंकि अभी तक उन्होंने में भी शिथिलाचारी साधुओं के किसी कार्य में शामिल होकर | शिथिलाचारी साधुओं की ही चर्या देखी थी। अब दक्षिण पाप की अनुमोदना न करें। भारत के जैनी भाइयों ने समझ लिया है कि वास्तव में दिगम्बर 13. आज पूरे भारतवर्ष में पूज्य आचार्य विद्यासागर साधुतो पूज्य आचार्य विद्यासागरजी के संघ के तथा और कुछ जी महाराज का संघ विशाल और आगम के अनुसार चर्या | अन्य साधु ही हैं। शेष तो पंचम काल की बलिहारी हैं। अब करनेवाला है। इस संघ ने अनुपम जागृति लाने का काम | दक्षिण भारत का समाज प्रबुद्ध हो उठा है और उसने शुद्धाम्नाय किया है। दक्षिण भारत के जो लोग अभी तक गृहीतमिथ्यात्वी | तथा मूल आगमपरम्परा को समझ लिया है। अब इस पंथवाद बने हुए थे, उनको आगमसम्मत मार्ग दिखाने का साहस | के फालतू झगड़े में न पड़कर वह सत्य मार्ग अपनाना किया है। आज जब दक्षिण भारत के हजारों जैनी भाई | चाहता है। अत: मेरा अनुरोध है कि ऐसे धोखे से भरे हुए शुद्धाम्नाय के अनुसार चल पड़े हैं, तब आपको खीझ क्यों | एवं झूठे पम्पलेट निकालकर पूज्य आचार्य संत शिरोमणि रही है? अरे, आप भी मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्वी | विद्यासागर जी महाराज एवं उनके संघ का अवर्णवाद करना बन जाओ। इन शिथिलाचारी साधुओं को छोड़कर अमरकंटक | बंद करें। आशा है मेरे इस उत्तर को पढ़कर समाज में फूट : जाकर इस पंचम काल की विभूति के दर्शन तो एक बार | डालनेवाले और मिथ्यामार्ग का प्रचार करनेवाले को बुद्धि कर लो। आपके जनम-जनम के पाप कट जायेंगे। आयेगी। 14. आपने अंतिम पैराग्राफ बहुत गलत दिया है।। 'धर्ममंगल' 2.10.2006 से साभार अभिशाप बना वरदान बरुवा सागर की बात है- त्यागी श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी दिन के चार बजे लोटा पानी से भरकर शौच के लिए ग्राम से बाहर जा रहे थे। मार्ग में कुछ बालक गेंद खेल रहे थे। उन्हें खेलते देख वर्णीजी के मन में भी गेंद खेलने हो आया। वे खिलाड़ी बालकों से बोले- "भाई, हमें भी डण्डा और गेंद दो, हम भी खेलेंगे।" एक बालक ने अपना डण्डा दे दिया। गेंद आने पर ज्यों ही वर्णीजी ने डण्डा मारने को घुमाया, तो वह गेंद में न लगकर हाथ से छूटकर पास खड़े एक बालक की आँख में बड़े वेग से लगा और रुधिर-धार बहने लगी। वर्णीजी हक्के-बक्के रह गये। वे शोकातुर हो गये और शौच भूल गये। झट वापिस घर लौटे। बाईजी ने उन्हें देखा पर वर्णीजी के मुँह से बोल न फूटते थे, किन्तु रोते जाते थे और आँखों में गंगा-जमना बहती जाती थी। इतने में एक बालक वहाँ आया और बाईजी से सब हाल कहा। बाईजी ने वर्णीजी को समझाया और भोजन के लिए कहा, किन्तु वर्णीजी ने उस दिन भोजन न किया और देर तक पश्चात्ताप करते रहे। एक-दो दिन तक वर्णीजी दिन में घर से बाहर तक नहीं निकले। पर धीरे-धीरे बात पुरानी हो गयी। लगभग एक सप्ताह बाद एक दिन वर्णीजी देर से मन्दिर जा रहे थे कि उस बालक की माँ रास्ते में मिल गयी। वर्णीजी घबरा गये, उन्हें डर लगा कि हे भगवान् अब क्या होगा! लेकिन बालक की माँ ने झट से उनके पैर छुए और विनीत शब्दों में बोली कि उसके पुत्र का अंखसूर, जो अनेक औषधियाँ करने पर भी अच्छा न हुआ था, खून निकल जाने से एकदम अच्छा हो गया। आप बड़े उपकारी महात्मा हैं। वर्णीजी चिन्तन करने लगे कि उदय बड़ी वस्तु है। कहाँ तो शापरूप घटना और कहाँ उसका वरदान-रूप फल। लेकिन तब से फिर वर्णीजी ने कभी वह खेल न खेला और न फिर कभी किसी को अँखसूर निकलवाने का सौभाग्य दिया। 'बोधकथा मंजरी' से साभार 26 दिसम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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