Book Title: Jinabhashita 2006 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ भरत, शुकदेव मुनि आदि कई दृष्टान्त भी उपलब्ध हैं। परमहंस श्रेणी के साधु भी प्रायः दिगम्बर रहते हैं। मध्यकालीन साधु अखाड़ों में भी एक अखाड़ा दिगम्बरी नाम से प्रसिद्ध है। पिछली शती के वाराणसी-निवासी महात्मा तेलंग स्वामी नामक सिद्ध योगी, जो रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे प्रबुद्ध संतों एवं सुधारकों द्वारा भी पूजित हुए, सर्वथा, दिगम्बर रहते थे । बौद्ध भिक्षुओं के लिए नग्नता का विधान नहीं है, किन्तु स्वयं गौतमबुद्ध ने अपने साधनाक में कुछ समय तक दिगम्बरमुनि के रूप में तपस्या की थी। यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी सहज नग्नत्व को निर्दोषता का सूचक एवं श्लाघनीय माना गया है। जलालुद्दीन रूमी, अलमन्सूर, सरमद जैसे सूफी संतों ने दिगम्बरत्व की सराहना की। सरमद तो सदा नंगे रहते ही थे । उनकी दृष्टि तो "तने उरियानी (दिगम्बरत्व) से बेहतर नहीं कोई लिबास, यह वह लिबास है जिसका न उल्टा है न सीधा ।" सरमद का कौल था कि 'पोशानीद लबास हरकारा ऐबदीद, बे ऐबारा लबास अयानीदाद' - पोशाक तो मनुष्य के ऐबों को छिपाने के लिए है, जो बेऐब-निष्पाप हैं उनका परिधान तो नग्नत्व ही होता है । नन्द-मौर्य कालीन यूनानियों ने भारत के दिगम्बर मुनियों (जिम्नोसोफिस्ट) के वर्णन किये हैं, युवान- च्वांग आदि चीनी यात्रियों ने भी भारत के विभिन्न स्थानों में विद्यमान दिगम्बर ( लि-हि) साधुओं या निर्ग्रन्थों का उल्लेख किया है। सुलेमान आदि अरब सौदागरों और मध्यकालीन यूरोपीय पर्यटकों में से कई ने उनका संकेत किया है। डॉ. जिम्मर जैसे मनीषियों का मत है कि प्राचीन काल में जैनमुनि सर्वथा दिगम्बर ही रहते थे । वास्तव में दिगम्बरत्व तो स्वाभाविकता और निर्दोषिता जितेन्द्रिय नग्न होते हुए भी अनग्न है नग्ना एव हि जायन्ते देवता मुनयस्तथा । ये चान्ये मानवा लोके सर्वे जायन्त्यवाससः ॥ इन्द्रियैरजितैर्नग्ना दुकूलेनापि संवृताः । तैरेव संवृतो गुप्तो न वस्त्रं कारणं स्मृतम् ॥ अन्य सभी मानव नग्न ही उत्पन्न होते हैं । " "देवता, मुनि तथा लोक के "जिसने अपनी इन्द्रियों को नहीं जीता, उसका शरीर वस्त्र से आवृत हो तो भी, वह नग्न है । किन्तु जिसने उन्हें जीत लिया है, वह नग्न होते हुए भी अनग्न । नग्नता वस्त्रों से नहीं ढँकती, इन्द्रिय-विजय से ढँकती है।" (वैदिक) ब्रह्माण्डपुराण / पाद २/ अध्याय २७/ श्लोक ११८ - ११९ । 16 दिसम्बर 2006 जिनभाषित का सूचक है । महाकवि मिल्टन ने अपने काव्य 'पैरेडाइज़ लॉस्ट' में कहा है कि आदम और हव्वा जब तक सरलतम एवं सर्वथा सहज निष्पाप थे, स्वर्ग के नन्दन कानन में सुखपूर्वक विचरते थे, किन्तु जैसे ही उनके मन विकारी हुए उन्हें उस दिव्यलोक से निष्कासित कर दिया गया । विकारों को छिपाने के लिए ही उनमें लज्जा का उदय हुआ और परिधान (कपड़ों) की उन्हें आवश्यकता पड़ी। महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था, 'स्वयं मुझ नग्नावस्था प्रिय है, यदि निर्जन वन में रहता होऊ तो मैं नग्न अवस्था में रहूँ।' काका कालेलकर ने क्या ठीक ही कहा है, "पुष्प नग्न रहते हैं। प्रकृति के साथ जिन्होंने एकता नहीं खोयी है ऐसे बालक भी नग्न घूमते हैं । उनको इसकी शरम नहीं आती है और उनकी निर्व्याजता के कारण हमें भी लज्जा जैसा कुछ प्रतीत नहीं होता। लज्जा की बात जाने दें, इसमें किसी प्रकार का अश्लील, बीभत्स, जुगुप्सित, अरोचक हमें लगा है, ऐसा किसी भी मनुष्य का अनुभव नहीं । कारण यही है कि नग्नता प्राकृतिक स्थिति के साथ स्वभाव - शुदा है। मनुष्य ने विकृत ध्यान करके अपने विकारों को इतना अधिक बढ़ाया है और उन्हें उल्टे रास्तों की ओर प्रवृत्त किया है कि स्वभाव सुन्दर नग्नता सहन नहीं होती । दोष नग्नता का नहीं, अपने कृत्रिम जीवन का है।" वस्तुतः निर्विकार दिगम्बर सहज वीतराग छवि का दर्शन करने से तो स्वयं दर्शक के मनोविकार शान्त हो जाते हैं- अब चाहे वह छवि किसी सच्चे साधु की हो अथवा जिनप्रतिमा की हो। आचार्य सोमदेव कहते हैं कि समस्त प्राणियों के कल्याण में लीन ज्ञान-ध्यान तपः पूत मुनिजन यदि अमंगल हों, तो लोक में फिर और क्या ऐसा है जो अमंगल नहीं होगा । शोधादर्श - ५९ (जुलाई २००६ ई.) से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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