Book Title: Jinabhashita 2006 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 22
________________ आत्महत्या का समर्थन करती है, वहीं जैन परम्परा उसे अस्वीकार | यद्यपि ये प्रथाएँ आज नामशेष हो गयी हैं, फिर भी वैदिक करती है। इस सन्दर्भ में बौद्ध परम्परा वैदिक परम्परा के | सन्यासियों द्वारा जीवित समाधि लेने की प्रथा आज भी अधिक निकट है। जनमानस की श्रद्धा का केन्द्र है। वैदिक परम्परा में मृत्युवरण इस प्रकार हम देखते है कि न केवल जैन और बौद्ध सामान्यतया हिन्दू धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को महापाप | परम्पराओं में, वरन् वैदिक परम्परा में भी मृत्युवरण को समर्थन माना गया है। पाराशरस्मृति (४/१/२) में कहा गया है कि जो दिया गया है। लेकिन जैन और वैदिक परम्पराओं में प्रमख क्लेश, भय, घमण्ड और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या अन्तर यह है कि जहाँ वैदिक परम्परा में जल एवं अग्नि में करता है, वह साठ हजार वर्ष तक नरकवास करता है, लेकिन | प्रवेश, गिरिशिखर से गिरना, विष या शस्त्र प्रयोग आदि विविध इनके अतिरिक्त हिन्दू धर्मशास्त्रों में ऐसे भी अनेक सन्दर्भ हैं, जो | साधनों से मृत्युवरण का विधान मिलता है, वहाँ जैन परम्परा में स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते हैं। प्रायश्चित के सामान्यतया केवल उपवास द्वारा ही देहत्याग का समर्थन मिलता निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन मनुस्मृति (११/९०-९१) है। जैन परम्परा शस्त्र आदि से होने वाली तात्कालिक मृत्यु की याज्ञवल्क्यस्मृति (३/२५३), गौतमस्मृति (२३/१), अपेक्षा उपवास द्वारा होने वली क्रमिक मृत्यु को ही अधिक वशिष्ठधर्मसूत्र (२०/२२, १३/१४) और आपस्तम्बसूत्र | प्रशस्त मानती है। यद्यपि ब्रह्मचर्य की रक्षा आदि कुछ प्रसंगों में (१/९/२५/१-३, ६) में भी किया गया है। मात्र इतना ही नहीं, | तात्कालिक मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है, तथापि हिन्दू धर्मशास्त्रों में भी ऐसे अनेक स्थल हैं, जहाँ मृत्युवरण को | | सामान्यतया जैन आचार्यों ने तात्कालिक मृत्युवरण की जिसे पवित्र एवं धार्मिक आचारण के रूप में देखा गया है। महाभारत प्रकारान्तर से आत्महत्या भी कहा जा सकता है, आलोचना की के अनुशासनपर्व (२५/६२-६४), वनपर्व (८५/८३) एवं | है। आचार्य समन्तभद्र ने गिरिपतन या अग्निप्रवेश के द्वारा किये मत्स्यपुराण (१८६/३४/३५) में अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, | जानेवाले मृत्युवरण को लोकमूढ़ता कहा है। जैन आचार्यों की गिरिपतन, विषप्रयोग या उपवास आदि के द्वारा देहत्याग करने | दृष्टि में समाधि-मरण का अर्थ मृत्यु की कामना नहीं, वरन पर ब्रह्मलोक या मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा माना गया है। अपरार्क देहासक्ति का परित्याग है। उनके अनुसार तो जिस प्रकार जीवन । ने प्राचीन आचार्यों के मत को उद्धृत करते हुए लिखा है कि | की आकांक्षा दूषित मानी गई है, उसी प्रकार मृत्यु की आकांक्षा यदि कोई गृहस्थ असाध्य रोग से पीड़ित हो, जिसने अपने | को भी दूषित माना गया है। कर्तव्य पूरे कर लिए हों, वह महाप्रस्थान हेत अग्नि या जल में | समाधिमरण और आत्महत्या प्रवेश कर अथवा पर्वतशिखर से गिरकर अपने प्राणों की आहुति | जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में जीविताशा दे सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता। उसकी और मरणाशा दोनों को अनुचित माना गया है, तो यह प्रश्न मृत्यु तो तपों से भी बढ़कर है। शास्त्रानुमोदित कर्तव्यों के पालन स्वाभाविक रूप से खड़ा होता है कि क्या समाधिमरण मरणाकांक्षा में अशक्त होने पर जीवन जीने की इच्छा रखना व्यर्थ है।६ | नहीं है? वस्तुतः यह न तो मरणाकांक्षा है और न आत्महत्या ही। श्रीमद्भागवत के ११वें स्कन्ध के १८ वें अध्याय में भी व्यक्ति आत्महत्या या तो क्रोध के वशीभूत होकर करता है या स्वेच्छापूर्वक मत्युवरण को स्वीकार किया गया है। वैदिक परम्परा | फिर सम्मान या हितों को गहरी चोट पहुँचने पर अथवा जीवन में स्वेच्छा मृत्युवरण का समर्थन न केवल शास्त्रीय आधारों पर | से निराश हो जाने पर करता है, लेकिन ये सभी चित्त की हुआ है, वरन् व्यावहारिक जीवन में इसके अनेक उदाहरण भी | सांवेगिक अवस्थाएँ हैं, जबकि समाधिमरण तो चित्त के समत्व परम्परा में उपलब्ध हैं। महाभारत में पाण्डवों के द्वारा हिमालय- | की अवस्था है। अत: वह आत्महत्या नहीं कही जा सकती। यात्रा में किया गया देहपात मृत्युवरण का एक प्रमुख उदाहरण दूसरे आत्महत्या में मृत्यु को निमंत्रण दिया जाता है। व्यक्ति के है। डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे ने वाल्मीकि रामायण एवं अन्य | अन्तस् में मरने की इच्छा छिपी हुई होती है, लेकिन समाधिमरण वैदिक धर्मग्रन्थों तथा शिलालेखों के आधार पर शरभंग, महाराजा में मरणकांक्षा का अभाव ही अपेक्षित है, क्योंकि समाधिमरण रघु, कलचुरी के राजा गांगेय, चंदेल कुल के राजा गंगदेव, के प्रतिज्ञा-सूत्र में ही साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं मृत्यु चालुक्यराज सोमेश्वर आदि के स्वेच्छा मृत्युवरण का उल्लेख | की आकांक्षा से रहित होकर आत्मरमण करूँगा (काल अकंखमाणं किया है। मैगस्थनीज ने भी ईसवीपूर्व चतर्थ शताब्दी में प्रचलित | विहरामि)। यदि समाधिमरण में मरने की इच्छा ही प्रमुख होती. स्वेच्छामरण का उल्लेख किया है। प्रयोग में अक्षयवट से कूद | तो उसके प्रतिज्ञा-सूत्र में इन शब्दों के रखने की कोई आवश्यकता कर गंगा में प्रणान्त करने की प्रथा तथा काशी में करवत लेने की ही नहीं थी। जैन विचारकों ने तो मरणाकांक्षा को समाधिमरण प्रथा वैदिक परम्परा में मध्य यग तक भी काफी प्रचलित थी। | का दोष ही माना है। अतः समाधिमरण को आत्महत्या नहीं 20 दिसम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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