Book Title: Jinabhashita 2006 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ स्वच्छामरण कहा जा सकता। जैन विचारकों ने इसीलिए सामान्य स्थिति में | इनकार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्त्वपूर्ण लाभ है प्रवेश या गिरिपतन आदि साधनों के द्वारा | और वह स्व-पर की हित साधना में उपयोगी है, तो जीवन तात्कालिक मृत्युवरण को अनुचित ही माना है, क्योंकि उनके | सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। आचार्य भद्रबाह भी ओघनियुक्ति में पीछे मरणाकांक्षा की सम्भावना रही हुई है। समाधिमरण में | कहते हैं- साधक का देह ही नहीं रहा तो संयम कैसे रहेगा, आहारादि के त्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती, मात्र देह-पोषण अतः संयम की साधना के लिए देह का परिपालन इष्ट है। का विसर्जन किया जाता है। मृत्यु उसका परिणाम अवश्य है, लेकिन देह के परिगलन की क्रिया संयम के निमित्त है, अतः लेकिन उसकी आकांक्षा नहीं, जैसे व्रण की चीरफाड़ के | देह का ऐसा परिपालन जिसमें संयम ही समाप्त हो, किस काम परिणामस्वरूप वेदना अवश्य होती है, लेकिन उसमें वेदना की | का! साधक का जीवन न तो जीने के लिए है, न मरण के लिए आकांक्षा नहीं होती है। जैन आचार्य ने कहा है कि समाधिमरण | है। वह तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सिद्धि के लिए है। यदि की क्रिया मरण के निमित्त नहीं होकर उसके प्रतिकार के लिए जीवन से ज्ञानादि, आध्यात्मिक गुण की सिद्धि एवं शुद्धता की है, जैसे व्रण का चीरना वेदना के निमित्त नहीं होकर वेदना के | वृद्धि हो, तो जीवन की रक्षा करते हुए वैसा करना चाहिए, प्रतिकार के लिए होता है। यदि ऑपरेशन की क्रिया में हो जाने | किन्तु यदि जीवन से भी ज्ञानादि की अभीष्ट सिद्धि नहीं होती वाली मृत्यु हत्या नहीं हैं, तो फिर समाधिमरण में हो जाने वाली | हो, तो मरण भी साधक के लिए शिरसा श्लाघनीय है। मृत्यु आत्महत्या कैसे हो सकती है? एक दैहिक जीवन की रक्षा | समाधिकरण का मूल्यांकन के लिए है, तो दूसरी आध्यात्मिक जीवन की रक्षा के लिए है। स्वेच्छामरण के संबंध में पहला प्रश्न यह है कि क्या समाधिमरण और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या में | मनुष्य को प्राणांत करने का नैतिक अधिकार है? पं० सुखलाल व्यक्ति जीवन के संघर्षों से ऊब कर जीवन से भागना चाहता है, | जी ने जैन-दृष्टि से इन प्रश्न का जो उत्तर दिया है, उसका उसके मूल में कायरता है, जबकि समाधिमरण में देह और | संक्षिप्त रूप यह है कि जैनधर्म सामान्य स्थितियों में, चाहे वह संयम की रक्षा के अनिवार्य विकल्पों में से संयम की रक्षा के लौकिक हो या धार्मिक, प्राणांत करने का अधिकार नहीं देता है, विकल्प को चुनकर मृत्यु का साहसपूर्वक सामना किया जाता | लेकिन जब देह और आध्यात्मिक सद्गुण, इनमें से किसी एक है। समाधिमरण में जीवन से भागने का प्रयास नहीं, वरन् जीवन- की पसंदगी करने का विषम समय आ गया हो, तो देह का त्याग बेला की अन्तिम संध्या में द्वार पर खड़ी हुई मृत्यु का स्वागत | करके भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचाया जा है। आत्महत्या में जीवन से भय होता है, जबकि समाधिमरण में | सकता है, जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर देहनाश के द्वारा मृत्यु से निर्भयता होती है। आत्महत्या असमय मृत्यु का आमंत्रण भी अपने सतीत्व की रक्षा कर लेती है। जब तक देह और है, जबकि संथारा या समाधिमरण मात्र मृत्यु के उपस्थित होने संयम दोनों की समानभाव से रक्षा हो सके, तब तक दोनों की पर उसका सहर्ष आलिंगन है। आत्महत्या के मूल में या तो भय | रक्षा कर्तव्य है, पर जब एक की ही पसंदगी करने का सवाल होता है या कामना, जबकि समाधिमरण में भय और कामना | आये, तो सामान्य व्यक्ति देह की रक्षा पसन्द करेंगे और दोनों की अनुपस्थिति आवश्यक होती है। आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेंगे, जबकि समाधिमरण का समाधिमरण आत्म-बलिदान से भी भिन्न है। पशु-बलि | अधिकारी इससे उल्टा करेगा। जीवन तो दोनों ही हैं- दैहिक के समान आत्म-बलि की प्रथा भी शैव और शक्ति सम्प्रदायों में | और आध्यात्मिक। आध्यात्मिक जीवन जीने वालों के लिए प्रचलित रही है। लेकिन समाधिमरण को आत्म-बलिदान नहीं | प्राणान्त या अनशन की इजाजत है, पामरों, भयभीतों और कहा जा सकता, क्योंकि आत्म-बलिदान भी भावना का अतिरेक | लालचियों के लिए नहीं। भयंकर दुष्काल आदि में देहरक्षा के है। भावातिरेक आत्म-बलिदान की अनिवार्यता है, जबकि निमित्त संयम से पतित होने का अवसर आ जाये या अनिवार्य समाधिमरण में भावातिरेक नहीं, वरन् विवेक का प्रकटन आवश्यक रूप से मरण लानेवाली बीमारियों के कारण खुद को और है। दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो, फिर संयम और सद्गुण समाधिमरण के प्रत्यय के आधार पर आलोचकों ने यह | की रक्षा संभव न हो, तब मात्र समभाव की दृष्टि से संथारे या कहने का प्रयास भी किया है कि जैनदर्शन जीवन से इकरार | स्वेच्छामरण का विधान है। इस प्रकार जैनदर्शन मात्र सद्गुणों नहीं करता, वरन् जीवन से इनकार करता है, लेकिन | की रक्षा के निमित्त प्राणान्त करने की अनुमति देता है, अन्य गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह धारण भ्रान्त ही सिद्ध होती स्थितियों में नहीं। यदि सद्गुणों की रक्षा के निमित्त देह का है। उपाध्याय अमर मुनि जी लिखते हैं- वह (जैन दर्शन) विसर्जन किया जाता है, तो वह अनैतिक नहीं हो सकता। जीवन से इनकार नहीं करता है. अपित जीवन के मिथ्या मोह से | नैतिकता की रक्षा के लिए किया गया देहविसर्जन अनैतिक • दिसम्बर 2006 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36