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कैसे होगा?
निमेष दोनों क्रियाएँ मिलकर ही देखने की एक क्रिया पूरी होती जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन गीता में भी है। उपलब्ध है। गीता कहती है कि यदि जीवित रहकर (आध्यात्मिक | भारतीय नैतिक चिन्तन में केवल जीवन जीने की कला सद्गुणों के विनाश के कारण) अपकीर्ति की संभावना हो तो | पर ही नहीं, वरन् उसमें जीवन की कला के साथ मरण की उस जीवन से मरण ही श्रेष्ठ है।१२
कला पर भी विचार किया गया है। नैतिक चिन्तन की दृष्टि से आदरणीय काका कालेकर लिखते हैं कि मृत्यु शिकारी | किस प्रकार जीवन जीना चाहिए यही महत्वपूर्ण नहीं है, वर के समान हमारे पीछे पड़े और हम बचने के लिए भागते जायें | किस प्रकार मरना चाहिए यह भी मूल्यावान् है। मृत्यु की कला यह दृश्य मनुष्य को शोभा नहीं देता। जीवन का प्रयोजन समाप्त जीवन की कला से भी महत्त्वपूर्ण है, आदर्श मृत्यु ही नैतिक हुआ, ऐसा देखते ही मृत्यु को आदरणीय अतिथि समझ कर उसे
जीवन की कसौटी है। जीवन का जीना तो विद्यार्थी के सूत्रकालीन आमंत्रण देना, उसका स्वागत करना और इस तरह से स्वेच्छा
अध्ययन के समान है, जबकि मृत्यु परीक्षा का अवसर है। हम स्वीकृत मरण के द्वारा जीवन को कृतार्थ करना, यह एक
जीवन की कमाई का अंतिम सौदा मृत्यु के समय करते हैं। सुन्दर आदर्श है। आत्महत्या को नैतिक दृष्टि से उचित मानते
यहाँ चूके तो फिर पछताना होता है और इसी अपेक्षा से कहा हुए वे कहते हैं कि इसे हम आत्महत्या नहीं कहें, निराश होकर,
जा सकता है कि जीवन की कला की अपेक्षा मृत्यु की कला कायर होकर या डर के मारे शरीर छोड़ देना यह एक किस्म
अधिक मूल्यवान है। भारतीय नैतिक चिन्तन के अनुसार मृत्यु की हार ही है। उसे हम जीवन-द्रोह भी कह सकते हैं। सब
का अवसर ऐसा अवसर है, जब हममें से अधिकांश अपने धर्मों ने आत्महत्या की निन्दा की है, लेकिन जब मनुष्य सोचता
भावी जीवन का चुनाव करते हैं । गीता का कथन है कि मृत्यु के है कि उसके जीवन का प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की
समय जैसी भावना होती है, वैसी ही योनि जीव प्राप्त करता है। आवश्यकता नहीं रही, तब वह आत्म-साधना के अन्तिम रूप
(१८/५-६)। जैनपरम्परा में खन्धक मुनि की कथा यही बताती के तौर पर अगर शरीर छोड दे, तो वह उसका हक है। मैं स्वयं | है कि जीवन भर कठोर साधना करनेवाला महान साधक, जिसने व्यक्तिशः इस अधिकार का समर्थन करता हूँ।
अपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन से अपने सहचारी पाँच सौ साधक समकालीन विचारकों में आदरणीय धर्मानन्द कौसाम्बी शिष्यों को उपस्थित मृत्यु की विषम परिस्थिति में समत्व की और महात्मा गाँधी ने भी मनुष्य को प्राणान्त करने के अधिकार साधना के द्वारा निर्वाण का अमृतपान कराया, वही साधक स्वयं का समर्थन नैतिक दृष्टि से किया था। महात्मा जी का कथन है की मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार अपने कि जब मनुष्य पापाचार का वेग बलवत्तर हुआ देखता है और साधना-पथ से विचलित हो गया। वैदिक परम्परा में जड़भरत आत्महत्या के बिना अपने को पाप से नहीं बचा सकता, तब का कथानक भी यही बताता है कि इतने महान् साधक को भी होनेवाले पाप से बचने के लिए उसे आत्महत्या करने का मरणबेला में हरिण पर आसक्ति रखने के कारण पशु योनि को अधिकार है। कौसम्बीजी ने भी अपनी पुस्तक 'पार्श्वनाथ प्राप्त होना पड़ा। उपर्युक्त कथानक हमारे सामने मृत्यु का मूल्य का चार्तुयाम धर्म' में स्वेच्छामरण का समर्थन किया था और उपस्थित कर देते हैं। मृत्यु इस जीवन की साधना का परीक्षा उसकी भूमिका में पं० सुखलाल जी ने 'उन्होंने अपनी स्वेच्छा- | काल है। वह इस जीवन में लक्ष्योपलब्धि का अन्तिम अवसर मरण की इच्छा को भी अभिव्यक्त किया था' यह उद्धृत किया और भावी जीवन की कामना का आरम्भ बिन्दु है। इस प्रकार
वह अपने में दो जीवनों का मूल्य सँजोए हुए है। मरण जीवन काका कालेकर स्वेच्छामरण को महत्वपूर्ण मानते हुए का अवश्यम्भावी अंग है। उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। जैनपरम्परा के समान ही कहते हैं कि जब तक यह शरीर मुक्ति | वह जीवन का उपसंहार है, जिसे सुन्दर बनाना हमारा एक का साधन हो सकता है, तब तक अपरिहार्य हिंसा को सहन | आवश्यक कर्त्तव्य है। करके भी इसे जिलाना चाहिए। जब हम यह देखें कि आत्मा के इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्प्रतियुग के प्रबुद्ध विचारक अपने विकास के प्रयत्न में शरीर बाधा रूप ही होता है, तब भी समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते। अत: जैन दर्शन पर हमें उसे छोड़ना चाहिए। जो किसी हालत में जीना चाहता है, लगाया जानेवाला यह आक्षेप कि वह जीवन के मूल्य को उसकी निष्ठा तो स्पष्ट है ही, लेकिन जो जीवन से उब कर | अस्वीकार करता है, उचित नहीं माना जा सकता। वस्तुतः अथवा केवल मरने के लिए मरना चाहता है, तो उसमें भी | समाधिमरण पर जो आपेक्ष लगाये जाते हैं, उनका सम्बन्ध विकृत शरीर-निष्ठा है। जो मरण से डरता है और जो मरण ही | समाधिमरण से न होकर आत्महत्या से है। कुछ विचारकों ने चाहता है, वे दोनों जीवन का रहस्य नहीं जानते। व्यापक जीवन | समाधिमरण और आत्महत्या के वास्तविक अन्तर को नहीं समझा में जीना और मरना दोनों का अन्तर्भाव होता है, उन्मेष और । और इसी आधार पर समाधिमरण को अनैतिक कहने का प्रयास 22 दिसम्बर 2006 जिनभाषित -
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