Book Title: Jinabhashita 2006 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ दिगम्बरत्व का महत्त्व स्व. डॉ. ज्योति प्रसाद जी जैन मोक्ष-प्राप्ति के लिए साधक की चरम अवस्था में | जैन साधु के लिए दिगम्बरत्व को अपरिहार्य नहीं मानता दिगम्बरत्व अनिवार्य है, किन्तु वह अन्तरंग एवं बाह्य, दोनों | और साधुओं को सीमित-संख्यक, बिनसिले श्वेतवस्त्र धारण ही प्रकार का युगपत् होना चाहिए, तभी उसकी सार्थकता है। करने की अनुमति देता है, इस तथ्य को मान्य करता है कि यह मार्ग दस्साध्य है। यही कारण है कि लगभग एक सवा | प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तथा अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान करोड़ जैनों की संख्या में २५० सौ के करीब ही दिगम्बर | महावीर अपने जीवन में अचेलक अथवा दिगम्बर ही रहे थे, मुनि हैं। वे सभी दिगम्बरत्व के साधक हैं और प्रायः २८ | अन्य अनेक पुरातन जैनमुनि दिगम्बर रहे, तथा यह कि मूलगुणों का निरतिचार से पालन करते हैं। इसमें सन्देह नहीं | जिनमार्ग में जिनकल्पी साधुओं का श्रेष्ठ एवं श्लाघनीय रूप है कि दिगम्बर मुनि अपनी अत्यन्त कठोरचर्या, व्रत, नियम, | अचेलक है। कला क्षेत्र में भी ८वीं-९वीं शती ई. से पूर्व की संयम तथा शीत-ऊष्ण-दंश-मशक-नाग्न्य-लज्जा आदि | प्रायः सभी उपलब्ध तीर्थंकर या जिनप्रतिमाएँ दिगम्बर ही हैं बाईस परीषहों को जीतने एवं नाना प्रकार के उपसर्गों को | और वे उभय सम्प्रदायों के अनुयायियों द्वारा समान रूप से सहन करने में सक्षम होता है। उसका जीवन एक खुली | पूजनीय रहीं, आज भी हैं। कालान्तर में साम्प्रदायिक भेद के पुस्तक होता है। ज्ञान की उसमें कमी या अल्पाधिक्य हो | लिए श्वेताम्बर साधु जिनमूर्तियों में भी लंगोट का चिह्न सकता है। संस्कारों या परिस्थतिजन्य दोष भी लक्ष्य किये | बनवाने लगे। मुकुट, हार, कुंडल, चोली-आंगी, कृत्रिम नेत्र जा सकते हैं, अथवा दिगम्बर मुनि के आदर्श की कसौटी आदि का प्रचलन तो इधर लगभग दो अढ़ाई सौ वर्ष के पर भी वह भले ही पूरा-पक्का न उतर पाये, तथापि अन्य | भीतर ही हआ है। परम्पराओं के साधुओं की अपेक्षा अपने नियम-संयम, तप जैन-परम्परा में नहीं, अन्य धार्मिक परम्पराओं में भी एवं कष्ट सहिष्णुता में वह श्रेष्ठतर ही ठहरता है। फिर जो मुनि | श्रेष्ठतम साधकों के लिए दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा की गयी आदर्श को अपने जीवन में चरितार्थ करते हैं, उन मुनिराजों | प्राप्त होती है। प्रागैतिहासिक एवं प्राग्वैदिक सिन्ध-घाटी की बात ही क्या है, वे सच्चे साधु या सच्चे गुरु ही आचार्य- | सभ्यता के मोहन-जोदड़ो से प्राप्त अवशेषों में कायोत्सर्ग उपाध्याय-साधु के रूप में पंच-परमेष्ठी में परिगणित हैं, वे | दिगम्बर योगिमूर्ति का धड़ मिला है। स्वयं ऋग्वेद में वातरशना मोक्षमार्ग के पूजनीय एवं अनुकरणीय मार्गदर्शक होते हैं । वे | (दिगम्बर) मुनियों का उल्लेख हुआ है। कृष्णयजुर्वेदीय तरणतारण होते हैं। उन्हीं के लिए कहा गया है तैत्तिरीय आरण्यक में उक्त वातरशना मुनियों को श्रमणधर्मा धन्यास्ते मानवाः मन्ये ये लोके विषयाकुले।। एवं ऊध्वरेतस (ब्रह्मचर्य से युक्त) बताया है। श्रीमद्भागवत विचरन्ति गतग्रन्थाश्तुरंगे निराकुलाः॥ । में भी वातरशना मुनियों के उल्लेख हैं तथा वहाँ व अन्य इस दिगम्बरमार्ग के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर आदिदेव | | अनेक ब्राह्मणीय पुराणों में नाभेय ऋषभ को विष्णु का एक ऋषभ थे। जिनदीक्षा लेने के उपरान्त उन्होंने दिगम्बरमुनि के | प्रारम्भिक अवतार सूचित करते हुए दिगम्बर चित्रित किया रूप में तपश्चरण करके केवलज्ञान एवं तीर्थंकर पद प्राप्त गया है। ऐसे उल्लेखों के आधार पर स्व.डॉ.मंगलदेव शास्त्री किया था। उनके भरत-बाहुबली आदि अनेक सुपुत्रों और | का अभिमत है कि 'वातरशना-श्रमण' एक प्राग्वैदिक मुनि अनगिनत अनुयायियों ने इसी दिगम्बरमार्ग का अवलम्बन परम्परा थी और वैदिक धारा पर उसका प्रभाव स्पष्ट है। लेकर आत्मकल्याण किया है। भगवान् ऋषभ के समय से कई उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत लेकर अद्य पर्यन्त यह दिगम्बरमुनि-परम्परा अविच्छिन्न | आदि अनेक ब्राह्मणीय धर्मग्रन्थों, वृहत्संहिता, भर्तृहरिशतक चली आयी है। बीच-बीच में मार्ग में काल-दोष से विकार | तथा क्लासिकल संस्कृत साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों के भी उत्पन्न हुए, चारित्रिक शैथिल्य भी आया, किन्तु संशोधन- | उल्लेख एवं दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ब्राह्मण परिमार्जन भी होते रहे हैं। परम्परा में ६ प्रकार के सन्यासियों का विधान है, जिनमें जैनपरम्परा का स्वयं वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी, जो | तुरीयातीत श्रेणी के सन्यासी दिगम्बर ही रहते थे। जड़ दिसम्बर 2006 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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