Book Title: Jinabhashita 2006 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ कामविकार उत्पन्न हो सकता है, वस्त्रधारियों के मन में नहीं? यदि वस्त्रधारियों के मन में भी हो सकता है, तो काम विकार की उत्पत्ति में मुनि की नग्नता दोषी कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती।। डॉ० अनिलकुमार जी ने वर्तमान की परिवर्तित परिस्थिति का दूसरा उदाहरण देते हुए लिखा है कि "आज के ग्लैमरयुक्त संसार की आम जनता तो और अधिक उसमें (काम में) लिप्त हो गयी है। उनके विकारभाव तो हैं ही। शहरों और महानगरों में नग्न साधु भ्रमण कर आम जनता के विकारभावों को उत्तेजित करने में माध्यम क्यों बनें?" (शोधादर्श-५८/ पृ. ३४)। ___इस सन्दर्भ में भी मैं डॉ० अनिलकुमार जी से जानना चाहता हूँ कि दिगम्बरजैन समाज की माताएँ, बहनें और बहू-बेटियाँ दिगम्बर मुनियों को आहारदान करती हैं, तब क्या उनके मन में कामविकार उद्दीप्त होता है? डॉ० अनिलकुमार जी भी दिगम्बर जैन हैं, उनके परिवार की और रिश्ते की महिलाओं ने भी दिगम्बर मुनि को आहारदान किया होगा, उनसे उन्हें अपने कथन की सत्यता प्रमाणित करानी चाहिए। आहारदान करनेवाली महिलाओं का अनुभव डॉ० अनिलकुमार जी के कथन के सर्वथा विपरीत है, यह इसी से सिद्ध है कि यदि अनिलकुमार जी का कथन सत्य होता, तो नब्बे प्रतिशत जैन महिलाओं ने दिगम्बर मुनियों के दर्शन करना और आहारदान करना छोड़ दिया होता, बल्कि जैनधर्म ही छोड़ दिया होता और जैनधर्म कभी का लुप्त हो गया होता, क्योंकि अपने पातिव्रत धर्म को भंग कर पापकर्म के बन्धन में बंधने के लिए सभी महिलाएँ तैयार नहीं हो सकतीं। किन्तु जैनधर्म आज तक अक्षुण्ण है और इसके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि हुई है। अनेक धनसम्पन्न सुशिक्षित श्वेताम्बरजैन परिवार परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के अनुयायी बन गये हैं और उनकी अत्यन्त प्रतिभाशाली, उच्चशिक्षाप्राप्त पुत्रियाँ आचार्यश्री से आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत लेकर धर्मसाधना करती हुईं आर्यिकादीक्षा की प्रतीक्षा कर रही हैं। वे आचार्यश्री तथा संघस्थ मुनियों के दर्शन-पूजन करती हैं, उन्हें आहार देती हैं और उनके मन की पवित्रता के दर्शन कोई भी कर सकता है। यदि डॉ० अनिलकुमार जी का कथन सत्य होता, तो वे श्वेताम्बर कन्याएँ अपने सवस्त्र गरुओं को छोडकर दिगम्बरगरु की शरण में न आतीं। और भी अनेक जैनेतर परिवार दिगम्बर जैन मुनियों के शिष्य बने हैं। हजारों वर्ष प्राचीन, प्राग्वैदिक दिगम्बर जैनधर्म का आज तक अक्षुण्ण रहना और जैनधर्मावलम्बियों की संख्या में वृद्धि होना, इस बात का सबूत है कि डॉ० अनिलकुमार जी की धारणा सर्वथा मिथ्या है। कामवासना के उद्दीपन का मनोविज्ञान स्त्री-पुरुष में एक-दूसरे के प्रति कामात्मक आकर्षण उत्पन्न होना स्वाभाविक प्रवृत्ति (Instinct) है। यह धार्मिक और सामाजिक संस्कारों एवं अनुशासन से नियंत्रित होने के कारण धर्मप्राण स्त्रियों में पति के अतिरिक्त अन्य किसी भी पुरुष के प्रति प्रवृत्त नहीं होती। कामात्मक आकर्षण का केन्द्र मुख्यरूप से मुख होता है। सर्व प्रथम मुख का सौन्दर्य तत्पश्चात् सुगठित-सुडौल देहयष्टि कामात्मक आकर्षण उत्पन्न करती है। यदि मुख कुरूप होता है, तो न तो सुगठित देहयष्टि आकर्षण पैदा कर पाती है, न शरीर का कोई अन्य अंग। वे सब बीभत्स लगने लगते हैं। __मुख का सौन्दर्य ही कामात्मक आकर्षण का केन्द्र होता है, यह सम्पूर्ण मानवसमाज द्वारा स्वीकृत है। इसीलिए परस्त्रियों के प्रति पुरुषों के कामात्मक आकर्षण को रोकने के लिए घूघट और बुरके की प्रथा प्रचलित की गयी। इसी प्रकार स्त्रियों के लिए परपुरुष के दिखाई देने पर आँखें नीची कर लेने की मर्यादा बनायी गयी। भद्र स्त्रियाँ ऐसा ही करती हैं। परपुरुष के सामने आ जाने पर वे अपनी दृष्टि या तो नीचे कर लेती हैं, या दायें-वायें घुमा लेती हैं। जिन पुरुषों से उन्हें बात करना आवश्यक हो जाता है, उनकी तरफ वे देखती हैं, किन्तु सतत दृष्टि मिलाकर बात नहीं करतीं। इस मनोवैज्ञानिक सत्य पर दृष्टिपात करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नग्न मुनि को देखकर किसी स्त्री में उनके प्रति कामात्मक आकर्षण तभी उत्पन्न हो सकता है, जब उनका मुख सुन्दर हो और देहयष्टि भी सुगठित -दिसम्बर 2006 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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