Book Title: Jinabhashita 2006 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ है। दिगम्बर जैन समाज की सभी संस्थाओं तथा प्रमुख | श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र प्रबन्धकारिणी समिति, कुण्डलपुर महानुभावों द्वारा इस सम्बन्ध में प्रस्ताव स्वीकृत कर भारत | (दमोह,म.प्र.) पिन 470773 को भेजी जाये। ऐसा राजस्थान सरकार के पुरातत्त्व विभाग को भेजा जाना चाहिये, जिसमें | के माऊन्टआबू में स्थित देलवाड़ा के जैन मंदिरों के संरक्षणमाँग की जाय कि समाज के इस सम्पूर्ण धर्म क्षेत्र कुण्डलपुर | संवर्धन का अधिकार वहाँ की प्रबन्ध समिति को भारतसरकार (दमोह) का आधिपत्य प्रबन्धकारिणी समिति कुण्डलपुर | के पुरातत्त्व विभाग के द्वारा सौंपा जा चुका है। ऐसा प्रावधान को सौंपा जाये, ताकि वह भविष्य में भी इस क्षेत्र का संरक्षण, | भारतीय पुरातत्त्व अधिनियम में है तथा यह न्याय का तकाजा संवर्धन तथा विकास कर सके एवं समचे क्षेत्र को सर्वांगीण | भी है। व भव्य स्वरूप दिया जा सके। माँगपत्र की एक प्रति | 22, जॉय बिल्डर्स कॉलोनी ( रानी सती गेट), इन्दौर दीक्षा दिवस मुनित्रय का दीक्षा दिवस मुनि श्री चन्द्रसागर जी मध्यप्रदेश का एक हिस्सा पश्चिम निमाड़ और इसी जब संकल्प शक्ति की यात्रा प्रारम्भ होती है तब जीवन | निमाड की एक नगरी है सनावद, जो सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकट यम की ओर गमन करने लगता है, यही संकल्प की विधि | जी के समीप है। इस नगरी को त्यागी-व्रतियों की नगरी जीवन का दाक्षा है, जो पूरे जीवन भर पाप से बचा लता है। कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। त्याग और तपस्या तो और फिर जीवन की शोभा के लिये हाथ में संयमोपकरण | जैसे यहाँ की मिट्टी की खुशबू बन गई है। (पिच्छिका) आ जाता है, जिसके द्वारा जीवों का रक्षण किया सनावद नगर से एक दो नहीं, पूरे नौ दिगम्बर साधु हुए जाता है। जिस प्रकार मयूर पंख से निर्मित पिच्छिका मृदु | | हैं। आचार्य वर्धमानसागर जी (जो अभी हुए श्रवणवेलगोला होती है, उसी प्रकार हमारे भाव मृदु बने रहें और न पिच्छिका में महामस्तकाभिषेक के सूत्रधार थे) इस नगर के प्रथम मुनि में पानी, तेल, धूल का स्पर्श होता है, ऐसे ही हमारी आत्मा हैं, जो आचार्य पद को सुशोभित कर रहे हैं और उनसे शुरू विकारी भावों के स्पर्श से बची रहे। यही दीक्षा हमें प्रतिपल हुआ सिलसिला अब तक अनवरत जारी है। मुनिश्री सावधान रहने का संकेत देती रहती है। ये जागृति हमारी | प्रशस्तसागर जी, प्रबोधसागर जी एवं प्रयोगसागर जी बचपन आत्मा को मलिन होने से बचा लेती है अर्थात् बुराई में नहीं | से ही साथ खेले, साथ पढ़े और साथ रहे। तीनों दोस्तों की फँसने देती और कैसे खाना, कैसे पीना, कैसे बोलना,कैसे | दोस्ती की प्रगाढ़ता इसी से जाहिर होती है कि सनावद नगर चलना, कैसे बैठना, कैसे उठना, कैसे सोना इत्यादि कार्यों | में 1993 में आर्यिकारत्न पूर्णमती जी के ससंघ चतुर्मास के के प्रति सचेत रहना ही दीक्षा के लक्षण हैं। जीवन का | दौरान तीनों के मन में वैराग्य के अंकुर फूटे, जो दिनों दिन प्रत्येक पल दीक्षामय है। दीक्षा, काल से बँधकर नहीं पलती बढ़ते गये। संघ में प्रवेश, घर परिवार का त्याग, कठिन व्रतों है। दीक्षा के संस्कार काल की मर्यादा को लेकर चलते हैं, का लेना, इन सब क्रियाओं में व्यवधान भी आए, मगर जिसे किन्तु दीक्षा दिवस सावधानी का दिवस होता है। जहाँ प्रभात | वैराग्यलक्ष्मी का वरण करना हो, उसे कोई भी बाधा रोक से लेकर चलते हैं, किन्तु प्रत्येक दिवस सावधानी चलती नहीं सकती है। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिये रहती है। सावधानी से चूकने पर जीवन को पतन की ओर | अपने आपको अपने श्रद्धेय के प्रति समर्पित करने का भाव जाने में देर नहीं लगती है। दीक्षा समीचीन दिशा का नाम है। लिये हुए तीनों ब्रह्मचारी मुनि बनकर कठिन साधना करने जो दशा के परिवर्तन में कारण है। वैसे भी दिशा और दशा निकल पड़े। के कारण ही पापों का क्षय होता है। इसी भूमिका में शान्ति धन्य हैं वे माता-पिता, मित्र, परिवारजन एवं नगरवासी और सुख की अनुभूति होती है। यही धरती से ऊपर उठने जिन्होंने अपने लाल जिनवाणी माता की गोद में अर्पित कर की कला है। दीक्षा में मास, वर्ष की गिनती नहीं होती है, न दिए हैं। समय को काटा जाता है। यह तो कर्म काटने की साधना पद्धति है। साधक अपने भावों को संभालते हुये दोषों का श्रीमती भारती जैन, परिमार्जन करते हुये दीक्षामय जीवनयापन करते हुये साधना नेहरू नगर, भोपाल में लगा रहता है। यही दीक्षा दिवस है। 14 / मार्च 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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