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बारह भावना (द्रुतविलम्बित छन्द)
1.
जल तरंग समान पदार्थ हैं। सुख अहो तुम खोज कहाँ रहे ॥ यह अनादि अनन्त भ्रमीत है। इसलिये दुख ही दुख साथ है ॥
2.
शरण तो धन दौलत ही रहे। सतत ही शरणागत जा रहे ॥ मतलबी दिखते परिवार के । मरण से कब कौन बचा सके ॥
3.
मनुज नारक औ पशु देव ये। यह चतुर्गति आर्त सहीत ये॥ निज स्वरूप नहीं पहचानते । भटकते सदियों दुख भोगते ॥
4.
विविध हैं गुनरल निजात्म में । विकलता फिर क्यों किस बात में ॥ अखिल विश्व पदार्थ स्वतन्त्र हैं । सहज ही निज में रममान हैं ॥
5.
सुखदता जड़ पुद्गल में नहीं । इस प्रकार विवेक जगा नहीं ॥ पृथकता निज से सब वस्तु हैं। विमल चेतन नन्दन धाम है ॥
6.
मलमयी यह देह घृनीत है। जनक है मल का गुण धर्म है ॥ किसलिये इससे अनुराग है। भटकते इस संसृति में रहे ॥
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● मुनि श्री योगसागर जी
7.
विषयभोग अरे विष से भरे । करम बन्ध महा भयकार रे ॥ अशुभवर्धक आस्रव है घना । इस प्रकार जिनेश्वर देशना ॥
8.
परम पंच महाव्रत पूज्य हैं। अशुभ कर्म निरोधक हेतु हैं ॥ विपुल पुण्य महा शुभ वर्धता । भव विनाशक संवर तत्त्वता ॥
9.
मनुज जीवन संयम के लिये । तप करो विधि-बन्ध निवारिये ॥ भव भवान्तर की अघनिर्जरा । यह वही वरता भव से डरा ॥
10.
यह त्रिलोक निसर्ग अनादि से। छह प्रकार सु द्रव्य यहाँ बसे ॥ करम चेतन नाटक को रचे । मिट गये इसमें रच ओ पचे ॥
11.
मनुज दुर्लभ योनि महान है। स्वरग देव सदा तरसे रहे॥ सकल संयम तो नर साधता । भव समुद्र तरे पर तारता ॥
12.
परम पावन धर्म जिनेश का । स्वपर-बोध सुधा उपदेश का ॥ पतित पावन जो जग को करे । यह दयामय धर्म सभी बरें ॥
प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन
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