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ডিবি।
वीर निर्वाण सं. 2532
कुण्डलपुर- बड़े बाबा
के निर्माणाधीन नवीन मन्दिर की आकृति
फाल्गुन, वि.सं. 2062
मार्च, 2006
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बड़े बाबा से हाथ नहीं मिलाओ, हाथ जोड़ो,
हस्तक्षेप नहीं, नतमस्तक हो जाओ कुण्डलपुर में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा प्रदत्त प्रवचन
एक स्थान पर मंदिर में चित्र देखा था। उसमें समेरु ऐसे शब्दों की चैन पर्वत के ऊपर पांडुकशिला पर कलश-अभिषेक हो रहा है, जिसे समस्त था। सौधर्म इन्द्र होनहार श्री जी पर कलश अभिषेक कर आचार्यों ने रहे थे, सभी की दृष्टि सौधर्म इन्द्र पर चली जाती है। महत्त्वपूर्ण कह भाग्यशाली तो वे होते हैं, जिनके हाथ में कलशा है, एक ध्यान आकृष्ट सामने भरा कलशा लेकर खड़ा है, उसके समीप एक किया है। और खड़ा है, ऐसी कलश माला का अन्त क्षीरसागर के
जब श्रीराम, अंत पर है। सौधर्म इन्द्र में जो प्रसन्नता है, तट पर खड़े
सीता को खो देते हैं देव के मन में भी वही उत्साह, प्रसन्नता है। यहाँ भी
तब सीता की खोज हनुमान करते हैं, सीताजी कहती हैं प्रसन्नता है। हमेशा लाइट में नहीं रहने वाले ही लाइट
पहले विश्वास दिलवाओ। हनुमान मुद्रा दिखाते हैं, तब प्रदान करते हैं। आप सोच लें उनका कितना योगदान है।
सीताजी विश्वास करती हैं। भेंट में हनुमान को हार मिल उन सभी को सर्वप्रथम हमारा आशीर्वाद है। न जाने
जाता है। एक-एक मणि को फोड़कर देखते हैं। राम की किन-किन व्यक्तियों का भाव इस महोत्सव के प्रति रहा,
तस्वीरवाली मणि रख लेते हैं। सीता जी पछती हैं- ये क्या? जिसका मापतौल नहीं हो सकता। माप तो स्थान के
तब कहते हैं- जो हमारे काम के हैं, उन्हें ही पहनँगा। ये माध्यम से, गुणस्थान के माध्यम से होता है। स्थान
काम हो गया, परीक्षा हनुमान की हो गई। पूरी सभा को हृदय जड़त्व की ओर, तो गुणस्थान भावप्रणाली की ओर ध्यान
खोलकर दिखाया, उसमें राम लक्ष्मण सीताजी बैठे थे, चरणों आकृष्ट कर देते हैं। भक्ति में कोई भी कम बढ़ नहीं है,
में हनुमान भी बैठे थे। सब लोगों की आँखों में पानी आया बोलने से ही भक्ति की अभिव्यक्ति होती, ऐसा नहीं,
राम के प्रति समर्पण देखकर। यहाँ बडे बाबा को समर्पित बिना बोले भीतर के भाव अभिव्यक्त हो जाते हैं। बड़े
पूरी भारतवर्ष की जनता है, जो यहाँ आ गयी, जो नहीं आया बाबा के इस कार्य के प्रति कौन से व्यक्ति के हृदय में
वहीं से उसकी भावना समर्पित हई। कौन-कौन से व्यक्ति ने आनंद की तरंगे (जिसे ज्वारभाटा कह दें) नहीं उठ रही
इस मांगलिक कार्य में सहयोग किया, हम भावाव्यक्ति के हैं? हम अनुमान नहीं लगा सकते, महसूस कर सकते हैं।
माध्यम से पता लगाते हैं। "ज्ञान चिल्लाता है। आपत्ति जब जीव का आकार प्रकार नहीं हआ करता। आत्मा के । आती है, आस्था झेलती है।" ज्ञान के माध्यम से हम सुन पास ज्ञान गुण भी है, चारित्र गुण भी है एवं एक दूसरा भर, जानभर लेते हैं। आत्मा में झेलने की क्षमता आ जाती दर्शन भी है, जिसे सम्यग्दर्शन बोलते हैं, जिसकी है। एक मात्र आस्था का योगदान होता है। किस मोक्षमार्ग में क्या भूमिका है बता नहीं सकते। जिस व्यक्ति में पीड़ा नहीं थी, वर्षों से लोग चाहते थे, आप अपने महाप्रासाद को खड़ा होना है वह आस्था पर खड़ा होता घर को अच्छा बनाने योजनाबद्ध ढंग से एक मंजिल दो है, इसे नींव कह दें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। नींव की मंजिल तीन मंजिल चार मंजिल अपने ढंग से स्वतंत्रता से आज तक कोई फोटो नहीं ली। नींव के विषय में तभी खड़ा कर लेते हैं। जहाँ बड़े बाबा विराजमान थे, इतिहास की हम विश्वास करते हैं,जब विशाल प्रासाद को खड़ा हुआ चीज है, ये है नहीं कल से इतिहास पलट गया है। हम देखते हैं। तब हम सोचते हैं कि इसके नीचे कितनी गहरी लोगों की कमजोरी थी, हमारी आस्था की परीक्षा नहीं हुई भूमिका होगी। शिखर की पूजा, शिखर की प्रशंसा सभी थी। अपनी वस्तु अपने आराध्य अपने पूज्य जिनके माध्यम करते हैं,नींव की नहीं होती। नींव रखना अपने आप में से हमें दृष्टि प्राप्त है उनके सिंहासन के लिये महत्त्वपूर्ण है। नींव प्रथम मंगलाचरण है तो कलशारोहण परमीशन दो।"बड़े बाबा से हाथ नहीं मिलाओ, हाथ जोड़ो, अंतिम समापन है। प्रथम मंगलाचरण को महत्त्व दिया हस्तक्षेप नहीं करो, नतमस्तक हो जाओ।" यह मूर्ति जाता है, उपरान्त ही मध्यम एवं अंतिम मंगलाचरण का जिससे तीन लोक प्रकाशित हैं, तीन लोक के नाथ की है। नम्बर आता है। भक्ति, आस्था, रुचि, सम्यग्दर्शन, प्रीति हम लोगों को आस्था चाहिये। वर्षों पहले यह कार्य
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होना चाहिये था। सुबह का भूला शाम को वापस आ जावे, | बाबा के प्रति आस्था कमजोर है, तो उसे बलवान बनाने का वह भूला नहीं माना जाता। अब यहाँ से सर्चलाइट की | प्रयास करो। अपनी आस्था को सजीव बनाओ। देश-विदेश किरणें दूर-दूर तक जायेंगी। कुण्डलपुर बड़े बाबा का स्थान | में यह ऐसा आदर्श कार्य हुआ, जो अध्यात्म की ओर मोड़ने है। जिस मूर्ति के सामने आज तक लाखों करोड़ों जनता ने | की अवश्य ही एक प्रेरणा देगा। जड़ की ओर प्रेरणा देने नतमस्तक होकर दिव्य दृष्टि प्राप्त की, जो काम हुआ आस्था | | वाली बातें बहुत होती हैं, चेतन की ओर मोड़ना प्रेरणा देना के कारण उद्घाटित होकर सामने आया।
अत्यावश्यक है। दक्षिण में फरवरी में श्रवणवेलगोला में जिस देश में ऐसे पवित्र स्थल होते हैं, उन स्थानों को | महामस्तकाभिषेक होने जा रहा है। यहाँ से जनता वहाँ जायेगी, सुरक्षित रख कर जैन समाज ने पुरातत्त्व को सुरक्षित ही | जो बड़े बाबा का संदेश लेकर जायेगी। बाहुबली भगवान किया है। पुरातत्त्व विभाग को एक प्रकार से प्रेरणा दी है। | वृषभनाथ के सुपुत्र माने जाते हैं,पहले यहाँ अभिषेक करेंगे। हमारे भगवान बड़े बाबा अधूरे नहीं है, पूरा तत्त्व हैं। हमें पूरा यहाँ का गंधोदक वहाँ ले जाकर लोगों पर छिड़कें। सभी को तत्त्व चाहिये। अधूरे तत्त्व के माध्यम से सम्यग्दर्शन की | बतायें कि अभी तक अंधकार में, अन्डरग्राउन्ड में प्रतिमा प्राप्ति नहीं होती। 4 वर्ष पूर्व महोत्सव हुआ था, जो मुख्यमंत्री | रखी थी, इन्तजार में थी कब उच्च सिंहासन पर आये। बडे आये थे तो उन्होंने लाखों के बीच कहा था, यह कार्य बहुत | बाबा के पास जैन-जैनेतर सभी आते हैं। जो लाइट में नहीं जल्दी होना चाहिये। 4 वर्षों बाद आज उसी आवाज को आये, उन्हें भी देखने की कोशिश करें, सभी के योगदान से पकड़कर लगातार पुरुषार्थ के फलस्वरूप नया इतिहास रच | यह कार्य हुआ, आगे भी होता रहे। गया। आस्था के सामने हम क्या कर सकते हैं, वह पूरा तत्त्व
अहिंसा परमोधर्म की जय है, अपने आस्था को उद्घाटित करने की बात करें। बड़े
'जिनभाषित' (हिन्दी मासिक) के सम्बन्ध में तथ्यविषयक घोषणा
प्रकाशन स्थान : 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) प्रकाशन अवधि
मासिक मुद्रक-प्रकाशक रतनलाल बैनाड़ा राष्ट्रीयता
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1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) सम्पादक
प्रो. रतनचन्द्र जैन पता
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: सर्वोदय जैन विद्यापीठ, 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी,
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रतनलाल बैनाड़ा, प्रकाशक)
आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित प्रत्येक व्यक्ति के पास अपना-अपना पुण्य-पाप है, अपने द्वारा किये हुए कर्म हैं । कमों के अनुरूप ही सारा का सारा संसार चल रहा है, किसी अन्य के बलबूते पर नहीं। फोटो उतारते समय हमारे जैसे हाव-भाव होते हैं, वैसा ही चित्र आता है, इसी तरह हमारे परिणामों के अनुसार ही कर्मास्रव होता है।
'सागर बूंद समाय' से साभार
मार्च 2006 जिनभाषित / 1
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रजि. नं.
मार्च 2006
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा
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सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
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·
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अन्तस्तत्त्व
सम्पादकीय : कुण्डलपुर में घटित ऐतिहासिक सुघटना
• प्रवचन
•
डाक पंजीयन क्र. - म.प्र./भोपाल/
मासिक
जिनभाषित
•
बड़े बाबा से हाथ नहीं मिलाओ
: आचार्य श्री विद्यासागर जी
वर्ष 5, अङ्क 14
लेख
बड़े बाबा के मंदिर की जीर्णता : पं. नाथूलाल जी शास्त्री • कुण्डलपुर में बड़े बाबा के निर्माणाधीन मंदिर की यथार्थ स्थिति
श्रृंगार दुल्हन का राह संन्यास की • सूतक एवं मरणसूतक : शास्त्रीय चर्चा
: वीरेश सेठ · जैन संस्कृति रक्षा मंच जैनत्व की चिंता क्यों नहीं कर पाया ? : निर्मल कुमार पाटोदी 'बढ़कर पूरे तत्त्व की कीजिये
चिंता पुरातत्त्व से
: निर्मल कुमार पाटोदी जयकुमार जैन 'जलज'
• जिज्ञासा समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा • बोध कथाएँ
• बिना विवेक की नकल
: सुशीला पाटनी • व्यसन की आग : सब करदे राख
: डॉ. श्रेयांसकुमार जैन
• परम पूज्य गुरुदेव 108 श्री समन्तभद्र जी महाराज
: डॉ. ज्योति जैन • साहित्याचार्य जी की साहित्य-साधना : डॉ. राजेश जैन • फल, साग की सही प्रासुक विधि एवं सावधानियाँ पं. राजकुमार
जैन
:
प्राकृतिक चिकित्सा
♦ योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा : डॉ. वंदना जैन
आ. पृ. 2
कविताएँ
• पुरातत्त्व कानून पर पुनः गौर कीजिये : सुभाष चन्द्र 'सरल' • घनिष्ट मित्रता: बेला जैन
• समाचार
लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। जनभाषित से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिए न्याय क्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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सम्पादकीय
कुण्डलपुर में घटित ऐतिहासिक सुघटना कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) में 17 जनवरी 2006 को एक ऐतिहासिक सुघटना घटित हुई, एक प्रशस्त अनुष्ठान सम्पन्न हआ। 'बडे बाबा' नाम से प्रसिद्ध आद्य तीर्थंकर श्री आदिनाथ की पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन विशाल प्रतिमा एक दो-ढाई सौ वर्ष पुराने संकीर्ण, जर्जर, अन्धकारग्रस्त छोटे से तलघररूप मन्दिर से निकाल कर नवनिर्माणोन्मुख सुदृढ़, उच्च पृष्ठभूमिमय, विशाल जिनालय की वेदी पर स्थापित कर दी गयी। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं कई कुशल इंजीनियरों के सुविचारित मार्गदर्शन में, अनेक भक्तिगद्गद मुनिवरों, आर्यिकाश्रियों एवं श्रद्धालु श्रावक-श्राविकाओं की उज्ज्वल दृष्टि के समक्ष यह ऐतिहासिक अभिनन्दनीय अनुष्ठान अत्यन्त कुशलतापूर्वक निष्पन्न हुआ।
प्रतिमा की विशालता और भव्यता को देखते हुए उसके लिए निर्मित किये जा रहे सुदृढ और विशालमन्दिर- जैसे मन्दिर का निर्माण तो उसी समय हो जाना चाहिये था, जब पुण्यात्मा शिल्पी उसे इतने उत्तुंग और विस्तृत आकार में गढ़ रहे थे। किन्तु संभवतः इसके लिए उस समय काललब्धि का योग नहीं था। जैसे पाषाणभूत अहिल्या अपने पुनरुज्जीवन के लिए श्रीराम की प्रतीक्षा कर रही थीं. वैसे ही बडे बाबा की प्रतिमा को अपनी विशालता के अनुरूप विशाल मन्दिर में स्थापित होने के लिए दक्षिण से आनेवाले एक अद्भुत परम तपस्वी की प्रतीक्षा थी। 17 जनवरी 2006 को काललब्धि आयी और बड़े बाबा अपनी विशालता के अनुरूप भावी विशालमन्दिर की विशाल वेदी पर सुरक्षित रूप से विराजमान हो गये।
जैसा कि बड़े बाबा-मन्दिर निर्माण समिति के प्रभारी श्री वीरेश सेठ ने पत्रकार सम्मेलन में बतलाया, बड़े बाबा का राना मन्दिर पूर्णतया जीर्ण-शीर्ण हो गया था ओर विगत 12 वर्षों में आये भूकम्प एवं काल के प्रभाव से मन्दिर के मण्डप में| बड़ी-बड़ी दरारें आ गयी थीं। मन्दिर की आधारभूमि भी सुदृढ़ नहीं थी, भूगर्भशास्त्रियों ने उसे कमजोर क्षेत्र घोषित किया था। इसलिए बड़े बाबा की प्रतिमा में मूर्तिमान् पन्द्रह सौ वर्ष पुराने जैन इतिहास, प्राचीन धार्मिक महिमा और पुरातन भारतीय शिल्प एवं संस्कृति की रक्षा के लिए भूकम्पप्रभावसह नवीन मन्दिर का निर्माण कर उसमें बड़ेबाबा की प्रतिमा का स्थानान्तरण अत्यन्त आवश्यक था। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के आशीर्वाद और जैन समाज के पुण्योदय के फलस्वरूप यह मंगल कार्य संभव हुआ। यह नवीन मन्दिर न केवल विशाल और सुदृढ होगा, अपित कला की दृष्टि से भी मनोहर होगा। सैकडों वर्ष बाद यह स्वयं पुरातत्त्व बन जायेगा और इसमें सुरक्षित बड़े बाबा बड़े पुरातत्त्व अर्थात् पुरातम-तत्त्व बन जायेंगे।
पुराना मन्दिर बड़ा संकीर्ण था। दस-बीस दर्शनार्थियों के भीतर चले जाने पर ही भर जाता था। और द्वार इतना छोटा था| कि दो-चार दर्शनार्थी ही द्वार पर खड़े हो जाते, तो पीछे खड़े दर्शकों को बड़े बाबा के दर्शन दुर्लभ हो जाते थे। भीतर पूजन के नए स्थान पर्याप्त नहीं था। सन्ध्याकालीन आरती के समय धक्का-मुक्की करके लोग भीतर जाने की कोशिश करते थे, इस पर भी कुछ ही लोगों को भीतर स्थान मिल पाता था। पंचकल्याणक आदि के मौकों पर जब मस्तकाभिषेक होता था, तब श्रीमन्त और उनके कुटुम्ब ही भीतर जाने का अधिकार प्राप्त कर पाते थे। अच्छे-अच्छे शीलवन्त और विद्यावन्त बाहर टापते रहते थे। सामान्य स्त्री-पुरूषों की तो बात ही क्या ?
अब बड़े बाबा निर्माणाधीन नये बृहदाकार मन्दिर की विस्तृत वेदिका पर विराजमान हो गये हैं। गर्भगृह का द्वार भी विशाल है और उसके सामने बहुत लम्बा-चौड़ा मण्डप है, जिसमें हजारों लोग एक साथ बैठकर या खड़े होकर बड़े बाबा के दर्शन-पूजन-आरती सुविधापूर्वक कर सकते हैं और मस्तकाभिषेक को भी आसानी से देख सकते हैं। अब लोगों को यह शिकायत नहीं होगी कि बडे बाबा कीआरती-अभिषेक आदि पैसेवालों और पहँचवालों को ही करने-देखने को मिल पाते हैं।
नवीन वेदिका पर बड़े बाबा को बहुत ही सुमान-प्रमाणपूर्वक, बड़ी समरूपता से स्थापित किया गया है, जिससे दृश्य बड़ा अभिराम लगता है। प्रस्तावित शैली में मन्दिर बन जाने पर प्रतिमा के सौन्दर्य में चार चाँद लग जायेंगे, इसमें सन्देह नहीं। गत फरवरी मास के प्रथम सप्ताह में मैंने सपरिवार कुण्डलपुर की यात्रा की थी और नवीन वेदी पर स्थापित बड़े बाबा के दर्शन किये थे। उस समय विशाल मण्डप में सैकड़ों लोगों को एक साथ बैठकर भजन-पूजन करते हुए देखा, तो लगा युग बदल गया है, जनता का राज आ गया है, बड़े बाबा सबकी पहुँच में आ गये हैं।
बड़े बाबा के स्थानान्तरण को लेकर जो विवाद उठाया गया है, वह निराधार है। इसका स्पष्टीकरण ‘जिनभाषित' के पूर्व अंक एवं प्रस्तुत अंक में प्रकाशित अनेक लेखों से हो जाता है। बड़े बाबा और छोटे बाबा दोनों जयवन्त हों।
रतनचन्द्र जैन
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बड़े बाबा के मंदिर की जीर्णता
पं. नाथूलाल जी शास्त्री
कुण्डलपुर (दमोह) में गोलाकार छोटी पहाड़ी के | कारण व बाह्य दीवाल पर क्रेक के निशान देखे गये। 1976 उत्तरी सिरे पर 60 मंदिर हैं, जिनमें मढ़िया-गुमटी-टोंक | से कुण्डलपुर में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज आकार के कुछ लघु-बड़े मंदिर हैं। सन् 1554 से यह | का 5 बार चतुर्मास हुआ। आचार्यश्री ने लगभग 600 दिन तीर्थक्षेत्र कहलाता है। इनमें मूर्तियाँ बाहर से लाकर रखी गई | भगवान के दर्शन किए होंगे। 1996 में आचार्य श्री विद्यासागर हैं। 1548 से 1996 तक की मूर्तियाँ हैं। धर्मशाला के निकट | जी महाराज के समक्ष नीचे प्रवचन हाल में विशाल सभा में वर्द्धमान सागर सरोवर है। तालाब के किनारे से वन्दना | नये मंदिर के निर्माण का निर्णय लिया गया। 1995 में साहूजी प्रारम्भ होती है। ग्यारहवाँ मंदिर बड़े बाबा का है। इस मंदिर | ने भी स्वीकृति दी थी। अहमदाबाद के वास्तुविद् सी.वी. में 12 फुट 6 इंच की यह प्रतिमा पद्मासन पश्चिम मुख | सोमपुरा एवं गोंदिया (महाराष्ट्र) के वास्तुविद् आर. पच्चिकर विराजमान है। कला की दृष्टि से 11वीं शताब्दी की दिखती | के निर्देशन में बड़े बाबा के वर्तमान मंदिर के पास ही100 है। चिह्न व प्रशस्ति नहीं होने से इसका नाम सरोवर के नाम | फुट दूर नये मंदिर का पहाड़ी के नीचे 3 मार्च 1999 को के समान वर्द्धमान या महावीर प्रसिद्ध रहा। यहाँ के लेख के | शिलान्यास किया गया। नये स्थान को भूकम्परहित बनाने में अनुसार 1757 में मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ। महाराजा 1 करोड़ का व्यय स्वाभाविक है। अतः भूमि खोदने आदि छत्रसाल भी इसी समय आये। शुरू से ही यह विशाल व | को देखकर विरोधी लोगों द्वारा दुष्प्रचार भी किया गया। मूर्ति अच्छे रूप में बना ही नहीं। .
के स्थानांतरण के विरोध हेतु मूर्ति में क्रेक आया, वह नष्ट बड़े बाबा के आसन (बैठक) का पाषाण दो खण्डों | | हो जाएगी आदि की बातें सुनकर सर्वत्र दुष्प्रभाव पड़ा। को जोड़कर बना है। गर्भगृह में परिवर्तन भी कई बार हुए पुरातत्त्व विभाग की उच्च स्तरीय टीम ने अवलोकन हैं। दिवालें कोई व्यवस्थित नहीं हैं। दो मूर्तियाँ बडे बाबा के | कर मर्ति में दरार के दावे को निरस्त कर दिया, यह समाचार आजू-बाजू कहीं मंदिर से लाई गई स्थापित हैं। शुभचन्द्रगणी | 13 मई 2000 को जबलपुर के दैनिक भास्कर में प्रमुखता से ने जीर्ण-शीर्ण स्थिति देखकर जीर्णोद्धार कराया। ब्रह्मचारी | प्रकाशित हुआ है। नेमीसागर ने छत का काम पूरा किया। महाराजा छत्रसाल ने बड़े बाबा की बैठक आदि से यह संकेत मिलता है इस मंदिर, बड़े प्रवेश द्वार व सरोवर का भी जीर्णोद्धार | कि मूर्ति पटेरा आदि कहीं से किसी व्यापारी द्वारा बैलगाड़ी कराया। 1979 में श्री साहू अशोककुमार जी के परिवार द्वारा में उसके स्वप्नानसार लाई गई और यहाँ वर्तमान स्थान पर भी अपनी ओर से जीर्णोद्धार हेतु सहायता की गई। मंदिर में | रुक गई। यहीं इनका मंदिर बना दिया गया। आततायी मुगल 4 वेदी व छह शिला फलक पर भी मूर्तियाँ स्थापित की गई | शासक द्वारा हथौड़े से प्रहार होने पर भी अपने अतिशय से हैं। उस गर्भगह में दर्शकों के लिये स्थान नहीं रहा. वहाँ मर्ति सरक्षित रही। सं. 1757 में महाराजा छत्रसाल आये और प्रकाश भी नहीं है। यह शिला-फलक दीवारों पर लगे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने से बड़े बाबा के मंदिर मंदिर के सामने चबूतरे पर पाषाण पर चरण चिह्न और | हेतु कुछ न कर विरोधी मुगल से युद्ध में विजय पाकर पीछे सामने "कुण्डगिरौ श्रीधरस्वामी'' लिखा हुआ होने से यह वहाँ सरोवर के घाट क्षेत्र, प्रवेश द्वार व इस बड़े बाबा के क्षेत्र सिद्धक्षेत्र एवं बड़े बाबा के सिर के दोनों ओर जटा होने । | मंदिर के जीर्णोद्धार तथा उसी समय पंचकल्याणक के काम से वे भगवान ऋषभनाथ घोषित हुए।
में सहयोग किया। यह सब लिखने का आशय यह है कि मंदिर के पीछे भी जीर्ण-शीर्ण स्थिति रही है। मंदिर | पुरातत्त्व विभाग का काम मूर्तियों की प्राचीनता की रक्षा का शिखर भी कोई अच्छा नहीं रहा। 1999 में जबलपुर- | करना है। यह बड़े बाबा का मंदिर प्राचीन बिल्कुल नहीं दमोह के भूकम्प का असर होने से बड़े बाबा का एक भाग | इसके सम्बन्ध में अपना कथित नकारात्मक रवैया छोड़कर डेढ़ इंच झुक गया। पश्चिम मुख, पाषाण एवं वास्तु दोष के | नवनिर्माण हेतु समर्थन देना चाहिये। ऐसा अन्यत्र भी हुआ
4/मार्च 2006 जिनभाषित
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है। मुरैना के बिचौलिया तथा श्री महावीर के शांतिमंदिर की | हमेशा कायर ही बने रहते। यह पार्टीबन्दी का काम नहीं है, मूर्तियों को पूर्वमंदिर नष्ट होने पर नये मंदिर में विराजमान | हमें उदारता से विचार करना चाहिए। वर्णीजी नहीं होते, तो किया गया।
जिनवाणी, संस्कृत, प्राकृत के महान् ग्रंथों व विद्वानों की यह पुरातत्त्व विभाग जैनमंदिर के विरोधी, लुटेरे, मुगल | स्थिति रहती ? महात्मा गाँधी, गुरु गोविंदसिंह, आचार्य या अन्य मूर्तिनाशक आयें, तो उनसे भी रक्षा करने के लिये | शांतिसागर जी आदि के समान आचार्य श्री विद्यासागर जी के है। साधारण पाषाणमूर्ति और वास्तु स्थान को सूरिमंत्र व मंत्र | सहयोग से नये मंदिर में बड़े बाबा की प्राचीन मूर्ति (मंदिर विधान से भगवान व जिनालय का रूप देने वाले आचार्य नहीं) की स्थापना से हम गौरवान्वित हो गए। “संस्कृति के परमेष्ठी की शुद्ध भावना से कराई गई या बताई गई इस | मंच" के काम को हम अच्छा मानते हैं, पर यहाँ उन्हें श्री योजना का विरोध करना क्या उचित है? क्षेत्र के ट्रस्टियों की एन.के. सेठी (अध्यक्ष, तीर्थ रक्षा समिति) आदि के निवेदन भी इसमें कोई दुर्भावना नहीं है, किन्त गलती यही है कि | को मानकर कुण्डलपुर देखना चाहिये। जैसा कि 'दिशा अपने चुनाव में हारे विरोधी को अनुकूल नहीं रखा। यह | बोध' के सम्पादक डॉ. चिरंजीलाल जी बगडा जगह-जगह विशाल रूप से दुष्प्रचार इन्हीं का काम है।
जाकर स्थिति देखते हैं और फिर छापते हैं, उन्होंने कुण्डलपुर बड़ी मूर्ति को संकुचित स्थान से सुरक्षित निकालने | की स्थिति को देखा और सन्तोष प्रकट किया। यह मैंने में जो प्राचीन नहीं था, वही टूटा। इसे शरारती तत्त्वों द्वारा भा.दि. जैन तीर्थ रक्षा समिति की पुस्तक "मध्यप्रदेश'' के विरोध के रूप में अपराध बताया गया। नये मंदिर की भी टूट-फूट सदोष बताई गई। यह जैनों की परीक्षा का अवसर
40, सर हुकमचन्द मार्ग, था। यदि नये मंदिर में मूर्ति स्थापित नहीं होती, तो जैन
मोती महल, इन्दौर
बोधकथा
बिना विवेक की नकल एक किसान की दो पुत्रियाँ थीं। एक विधवा व दूसरी | बनीं, वे अच्छी बनती भी कैसे? सधवा थी। इन दोनों में अत्यन्त प्रेम था। एक बार छोटी |
इसी समय पतिदेव भोजन करने आये। उन्होंने पत्नी की बहिन सरला (सधवा) अपनी बड़ी बहिन विमला (विधवा)
| वेषभूषा को देखा और क्रोध से लाल होकर बोले- “अरी के यहाँ पहुँची। उसने उसके स्वागत में बड़े हर्ष के साथ
| मूर्ख! मेरे होते हुए तू विधवा क्यों हो रही है?'' वह बोली खाने के लिए अनेक मिष्टान्नों के साथ ही
| "मेरी बहिन ने तो इसी भेष में गरम पूड़ियाँ बनाई थीं, जो उन्हें खाकर छोटी बहिन बड़ी प्रसन्न हुई व उनके बनाने की
अति स्वादिष्ट बनी थीं।" विधि भी दीदी से सभी प्रकार से समझ ली।
पति ने कहा- "पगली ! भेष बदलने से पड़ियाँ बनाने जब वह घर वापस आई, एक दिन उसने गरम पूड़ी बनाने को सब सामान मँगाया और बनाने लगी, परन्तु वैसी न
| का क्या सम्बन्ध? तू तो वैसा ही कर रही है कि जैसे कुछ बन सकी। इसका कारण उसके समझने में कोई भूल थी।
लोग रत्नत्रय धर्म पाने के लिये देखा-देखी बाह्य क्रियाकाण्ड
की नकल करते हैं।" किन्तु जो उसका उपाय तत्त्वज्ञान व पति ने समझाया कि तेरे बनाने में अवश्य कहीं कोई भूल रह | गई है। फिर सरला ने सोचा कि बहिन विमला ने जब बनाई
तत्त्वनिर्णय है, उसे भलीभाँति समझने का यत्न नहीं करते। थी तब वे सफेद साड़ी पहने थीं, बाल भी कटे थे। तथा हाथों
सच्ची विधि तो तत्त्वज्ञान और आत्मस्थिरता, रागद्वेषादि भावों में कोई भी आभूषण नहीं था।
में उपेक्षा एवं मोहजन्य परिणामों में विरक्तता है। उसके बिना
धर्म की प्राप्ति कैसे संभव है? तत्त्वज्ञान के बिना कितने ही अतः मुझे भी वैसा ही करके पूड़ियाँ बनानी चाहिये।
भेष बदलो, उससे अनन्त संसार के एक भी भव की कमी उसने उसी भाँति सिर मुंडाया, सफेद साड़ी भी पहिन ली व
होना संभव नहीं है। हाथों में पहने हए आभषण उतार दिये। पडियों को पन:
प्रस्तुति - सुशीला पाटनी बनाना आरम्भ किया, फिर भी पूड़ियाँ पहले अनुसार ही
मदनगंज-किशनगढ़ (राज.)
मार्च 2006 जिनभाषित /5
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कुण्डलपुर में बड़े बाबा के निर्माणाधीन मंदिर की यथार्थ स्थिति
वीरेश सेठ
श्री बड़े बाबा मंदिर निर्माण समिति, कुण्डलपुर (जिला दमोह, म.प्र.)
के प्रभारी श्री वीरेश सेठ द्वारा पत्रकार सम्मेलन में व्यक्त विचार।
विगत कुछ दिवसों से पूज्य बड़े बाबा, प्रथम जैन तीर्थंकर | स्मारक थे, तो उनकी चारों दिशायें, उनके नाप-तौल, उनके आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा के स्थानान्तरण के सम्बन्ध में | निषिद्ध क्षेत्र के विवरण के साथ इस विभाग की नीले रंग की पुरातत्त्व विभाग के कुछ अधिकारियों के लगातार असत्य | पट्टिका व विभाग के चौकीदार सुरक्षा हेतु होने चाहिए थे बयान तथा दमोह जिला प्रशासन के मुखिया के द्वारा पुरातत्त्व | | किन्तु आज की तारीख तक इस विभाग ने वहाँ पर न कोई विभाग की वास्तविकता की जानकारी लिए बिना ही संपूर्ण अपने संरक्षण की सूचना लगायी है, न ही कोई कर्मचारी, भारतवर्ष में फैले 2 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं एवं | चौकीदार की ड्यूटी लगायी है, न एक पैसे की राशि, इन अहिंसात्मक विचारधारा के समर्थकों पर तरह-तरह के मंदिरों की सुरक्षा, संरक्षण, देख-भाल, निर्माण अथवा अर्नगल, मिथ्या आरोप लगाये जा रहे हैं।
जीर्णोद्धार के नाम पर खर्च की, क्योंकि यह विभाग इस बात मैं वीरेश सेठ, प्रभारी-श्री बड़े बाबा मंदिर निर्माण समिति | को अच्छी तरह जानता था कि कुण्डलपुर में जो आज मंदिर बड़े ही सम्मान के साथ यहाँ उपस्थित सभी सम्माननीय | बनें हैं वे उनके संरक्षित स्मारक नहीं हैं। इस विभाग के द्वारा पत्रकार बंधुओं, प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के | पिछले 100 सालों में देश की स्वतंत्रता से लेकर आज तक समक्ष सन् 1871-72 से लेकर आज दिनांक 28 जनवरी| जो भी पैसा खर्च किया गया, किसी भी कर्मचारी की 2006 तक 135 सालों की वास्तविकता, इस पुरातत्त्व विभाग | कुण्डलपुर में नियुक्ति की गई या किसी स्मारक को संरक्षित के सम्मानीय अधिकारियों द्वारा समय-समय पर जैन तीर्थ | किया गया वह सिर्फ कुण्डलपुर पहाड़ी की तलहटी में बने क्षेत्र कुण्डलपुर के सम्बन्ध में पूज्य श्री 1008 बड़े बाबा की | हुए अंबिकादेवी-मठ में ही किया गया और वह इसलिये प्रतिमा जी अथवा मंदिर के सम्बन्ध में, यहाँ तक कि उनके
| भी सत्य है कि कुण्डलपुर क्षेत्र में दिगम्बर जैन समाज के द्वारा, वास्तव में संरक्षित अंबिकादेवी-मठ के सम्बन्ध में, बने हुए सारे के सारे जैन मंदिर 15 वीं से 19 वीं सदी के किये गये सर्वे, पत्राचार, नोटीफिकेशन, तत्कालीन जिला मध्य के हैं, वे मंदिर उस दरम्यान जो निर्माण में सामग्री प्रशासन प्रमुख, आदि के द्वारा कुण्डलपुर जी के सम्बन्ध में, उपयोग होती थी, उसके बने हैं, मंदिरों का आर्किटेक्ट उस वहाँ की एक मात्र समिति जो समय-समय पर जैनधर्म के समय का प्रचलित आर्किटेक्ट है। इन मंदिरों के निर्माता जैन अनुयायियों के द्वारा मनोनीत अथवा लोकतांत्रिक पद्धति से समाज के दानदाता लोग रहे हैं। किस समय किस मंदिर का निर्वाचित होती आ रही है के साथ किया गया पत्राचार | निर्माण हुआ, किन व्यक्तियों ने उन्हें बनवाया, मंदिर में किन उसकी सारी जानकारी जो हमारे पास प्रमाण के साथ उपलब्ध | तीर्थंकर भगवान की मूर्ति है, कितनी मूर्तियाँ हैं, उन मूर्तियों है, आपके समक्ष बिन्दु बार प्रस्तुत है -
की पाद-पीठिका पर, प्रशस्ति में उन दानदाताओं, प्रतिष्ठाचार्यों पुरातत्त्व विभाग अब यह बता रहा है कि 16/07/1913 |
के नाम खुदे हुये हैं, जिसका कि पूरा का पूरा प्रामाणिक को चीफ कमिश्नर सेन्ट्रल प्रावीजन्स नागपुर द्वारा प्रकाशित
रिकार्ड हमारे पास उपलब्ध है। इसकी भी प्रमाणित प्रतिलिपि अधिसूचना के तहत कुण्डलपुर के 1 से 58 जैन मंदिर | इस विज्ञप्ति के साथ संलग्न है। (क्रमांक 2)। केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण में ले लिये गये थे, पुरातत्त्व विभाग जिन मंदिरों को 6वीं-7वीं शताब्दी का जिसके संदर्भ में बड़ा ही स्पष्ट है कि उस नोटीफिकेशन में | कहता है, वह सिर्फ पहाड़ों की तलहटी में बना हुआ अंबिका सिर्फ यह लिखा है Jain Temples on The Hill, इससे | | देवी का मठ है। उसका आर्किटेक्ट, उसमें उपयोग की गयी न यह पता चलता है वे कौन से मंदिर हैं, उनका क्या क्रमांक सामग्री 6वीं-7वीं शताब्दी की है। और इस बात का प्रमाण है और उनकी कितनी संख्या है? यदि वे पुरातत्त्व के संरक्षित | मौके पर उपलब्ध है। इस विभाग के द्वारा स्वतंत्रता के पूर्व
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1871-72 में Archaological Survey of India के Asst. | निवेदन के बावजूद भी मंदिर की सुरक्षा व बड़े बाबा की Archaological सर्वे Z.D. Begler की बुन्देलखंड एवं | मूर्ति की सुरक्षा के लिये कोई कदम नहीं उठाया गया, तब मालवा के दौरे की विस्तृत रिपोर्ट जो इनके तत्कालीन | समिति के द्वारा उस पूरे Mud Rocks क्षेत्र जिसे कोलकाता आफिस से प्रकाशित हुई थी, उसमें भी बताया | भूगर्भशास्त्रियों ने वीक जोन बताया था, के चारों तरफ 15 से गया है। (अंबिका मठ का चित्र व Z.D. Begler की रिपोर्ट | 20 मीटर गहरे 100mm व्यास के 657 छिद्र बोर कराकर क्रमांक 3 और 4 संलग्न)।
पियोर सीमेंट ग्राउट कराई गई थी। उसके बावजूद भी बड़े ___ इसे एक विडम्बना ही माना जायेगा कि कुण्डलपुर में | बाबा की मूर्ति अपने मूलस्थान से 3से.मी. झुक गयी, इसकी एक मात्र संरक्षित स्मारक, जिसकी सुरक्षा पर ही इन्होंने | भी जानकारी इस विभाग को थी। ग्राउटिंग की विस्तृत रिपोर्ट अपने चौकीदार नियुक्त किये, विभाग का पैसा खर्च किया। (संलग्न क्रमांक 9) तथा इन सारी बातों की जानकारी समिति और उसकी ही सुरक्षा नहीं कर सके, यहाँ तक कि आज के द्वारा लगातार पिछले कई वर्षों से पुरातत्त्व विभाग के उससे 100 मीटर के निषिद्ध क्षेत्र प्रतिबंधित क्षेत्र जिसकी ये अधिकारियों को दी जा रही थी और निवेदन किया जा रहा बात करते हैं वहाँ पर उस क्षेत्र में 4-4 समाधि के चबूतरे, | था कि शीघ्र ही 6वीं एवं 7वीं शताब्दी के मध्य की इस नल व खनन आदि हो चके हैं, क्या कभी इस विभाग ने | विशाल जैन प्रतिमा की, जो भारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण किसी को भी नोटिस दिये? प्रशासन से इन गतिविधियों के | विश्व में फैले हुए करोड़ों जैन अनुयायियों के आस्था का लिए रोक माँगी? और तो और इस विभाग की एक सच्चाई
केन्द्र बिन्दु है, रक्षा की जाये, यहाँ तक कि इसी विभाग के यह भी है कि कुण्डलपुर में 6वीं शताब्दी के एक नहीं, दो
भोपाल मंडल के एक बड़े अधिकारी ने अपनी कुण्डलपुर मंदिर थे और वे दोनों ही केन्द्रीय स्मारक संरक्षण अधिनियम बड़े बाबा मंदिर निरीक्षण की एक विस्तृत रिपोर्ट दी थी के अंतर्गत भोपाल सर्किल की सुरक्षा में थे तथा भोपाल | (संलग्न क्रमांक 7), जिसमें स्वीकार किया गया था कि मंडल के अंतर्गत संरक्षित स्मारकों की सूची के क्रमांक 49 बड़े बाबा का मंदिर 80 प्रतिशत नष्ट हो चुका है। उसमें (संलग्न 5) में थे तथा भारतसरकार के दमोह जिले के | सघन जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। अपने विभाग की गजट के पृष्ठ क्रमांक 384 (संलग्न 6) में यह बात स्पष्ट
इतनी गंभीर जाँच रिपोर्ट के बावजूद भी यह विभाग शायद रूप से सामने आयी है कि कण्डलपर में 6वीं-7वीं सदी के उस दिन का इन्तजार कर रहा था कि बचा हआ बाकी 20 केवल दो ही मंदिर थे जो सिंगल स्लेब व फ्लेट रूप पैटर्न प्रतिशत हिस्सा कब बड़े बाबा की मूर्ति पर गिर जाये और के बने थे, उनमें से एक मंदिर खाली व दूसरे मंदिर में | 6वीं-7वीं शताब्दी की, करोड़ों जैन अनुयायियों के आस्था शायद विष्णु भगवान थे। आज मौके पर एक मंदिर है और के केन्द्र बिंदु भगवान ऋषभदेव बड़े बाबा की प्रतिमा नष्ट एक दूसरा मंदिर कहाँ गया यह विभाग बताये?
हो जाय। अचानक आज बडे बाबा के मंदिर की प्रतिमा के आज जब बड़े बाबा की मूर्ति का स्थानान्तरण किया स्थानान्तरण को लेकर यह विभाग इतना बडा बबाल खडा | गया, तो इस विभाग ने इतना बड़ा बबाल खड़ा कर दिया! कर रहा है। मैं बड़े सम्मान के साथ सारे पत्रकार जगत को, |
| क्या उसके पास इस बात का कोई जबाव है कि 1913 से इलेक्ट्रानिक मीडिया को बताना चाहता हूँ कि बडे बाबा की | आज 2006 तक समिति के द्वारा बड़े बाबा के पुराने मंदिर मूर्ति को पुराने मंदिर से निकालकर नये निर्माणाधीन मंदिर | का कई बार जीर्णोद्धार कराया गया, यहाँ तक कि 1975-76 में स्थानांतरण की आवश्यकता क्यों पडी? पराना मंदिर में बड़े बाबा के मंदिर का ऊपर का शिखर पूरी तरह से ढह पूर्णतया जीर्णशीर्ण हो गया था. विगत 12 वर्षों में इस क्षेत्र में | गया था तब तत्कालीन अखिल भारतीय जैनतीर्थ रक्षा समिति आये भूकम्प के प्रभाव एवं काल के प्रभाव से मंदिर के | के अध्यक्ष प्रमुख उद्योगपति साहू श्रेयांसप्रसाद जी के सहयोग मण्डप में बडे-बडे केक आ गये थे। मंदिर के नीचे कोई | से समिति के द्वारा बड़े बाबा के गर्भगृह पर सीमेंट, लोहा भी नींव नहीं थी, बल्कि Mud Rocks का क्षेत्र था, जिसे | क्रांकीट के एक विशाल शिखर का निर्माण कराया गया था, भूगर्भ-शास्त्रियों ने Week Zone Area का क्षेत्र बताया था।
यह कार्य तीन वर्ष तक लगातार चलता रहा, उस समय भी 1999 में जब पुरातत्त्व विभाग के द्वारा समिति के बार-बार
इस विभाग ने कोई आपत्ति नहीं की थी, क्योंकि यह विभाग अच्छी तरह से जानता था कि बड़े बाबा की मूर्ति ही 6वीं
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7वीं शताब्दी की है, यह मंदिर सिर्फ 150-200 साल पुराना | हो गया, शायद इसी का पुरातत्त्व विभाग वर्षों से इन्तजार है, इसमें पुरातत्त्व का कोई तत्त्व नहीं है, जिसका उल्लेख | कर रहा था। बड़े बाबा की मूर्ति के स्थानान्तरण के बाद आर्केलॉजीकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट द सेन्ट्रल प्रॉवीजन्स पुरातत्त्व विभाग ने एक और नया दुष्प्रचार करना शुरू किया 1873-74 के पृष्ठ क्रमांक 58 (संलग्न क्रमांक 4) में भी | कि बड़े बाबा की मूर्ति के 12 टुकड़े कर दिये गये हैं तथा वर्णित है, इसलिए कोई आपत्ति नहीं की गई।
इतने बड़े षड्यंत्रकारी झूठ को पूरे भारतवर्ष में प्रचारित अहिंसात्मक जैन समाज ने हमेशा कानून का अक्षरशः
| किया जा रहा है। मैं आपको जो सीडी उपलब्ध करा रहा हूँ, पालन किया है व हमेशा करता रहेगा। समिति के द्वारा | उसमें बड़े बाबा की पुराने स्थान की पूरी फोटो ग्राफी बारीकी दिनांक 05/01/06 को श्री के. के. मोहम्मद, अधीक्षक केन्द्रीय | से प्रस्तुत की गई है, जिसमें बहुत ही स्पष्ट है कि बड़े बाबा परातत्त्व विभाग भोपाल मण्डल को उनके भोपाल स्थित | की मूर्ति की क्या स्थिति थी। श्री बड़े बाबा मंदिर निर्माण कार्यालय में जाकर श्री बड़े बाबा जी की मूर्ति के नये मंदिर | समिति को आप सभी को आमंत्रित कर इस सच्चाई को में स्थानांतरण की अनुमति बावत एक 5 पेज का विस्तृत पत्र | प्रमाण के साथ बतलाने तथा सत्य को पूरे भारतवर्ष में (संलग्न क्रमांक 8) भी दिया था, जिस पर माननीय के. के. | प्रसारित करने के लिए यह वार्ता आयोजित करनी पड़ी है। मोहम्मद साहब से विस्तृत चर्चा भी हई थी तथा उनसे विगत | पुरातत्त्व विभाग जिस मूर्ति के संरक्षण की बात करता है, लम्बे समय से इस सम्बन्ध में हो रहे पत्राचार, उन पर | उसे यह भी नहीं मालूम कि बड़े बाबा की मूर्ति सिर्फ एक विभाग की अनदेखी तथा स्थानान्तरण शीघ्र अनुमति बावत | शिला में थी तथा पुराने मंदिर में पीछे की दीवार में बड़े बाबा निवेदन भी किया था. किन्त इस सब के बावजद दिनांक 15| के चारों ओर लगी अन्य मूर्तियाँ व नीचे का सिंहासन सभी जनवरी 06 को दमोह जिले के माननीय कलेक्टर महोदय | अलग-अलग समय में पत्थरों पर बनाकर पीछे की दीवार संपूर्ण शासकीय अमले, पुलिस फोर्स तथा पुरातत्त्व विभाग | में लगायी गयीं थी तथा वे निम्नानुसार रही हैं- मध्य में बड़े के अधिकारी, जिनका स्थानान्तरण हो चुका था, सबको | बाबा की प्रतिमा, दायें और बायें 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ साथ लेकर कुण्डलपुर पहुँच गये। कुण्डलपुर जी में 5 भगवान की खड्गासन प्रतिमायें (नग 2), बड़े बाबा के करोड़ 51 लाख मंत्रों की जाप का अनुष्ठान चल रहा था। उपर 1 पत्थर का छत्र, बड़े बाबा के कन्धे की ऊँचाई के इन जापों का अनुष्ठान पूर्व में पूरे भारत वर्ष में जैन समाज | दोनों तरफ दो पुष्पवृष्टि, बड़े बाबा के पद्मासन के दोनों के द्वारा भिन्न-भिन्न पूजा स्थलों पर लम्बे समय से जारी था। तरफ दो चॅवरधारी, नीचे का सिंहासन में जो (Random उसी की कडी में यह जाप अनुष्ठान कण्डलपर में आयोजित | Rubble) मैसेनरी का बना था, क्लेडिग किये हुए भगवान था। माननीय कलेक्टर महोदय ने वहाँ पर उपस्थित जैन | ऋषभदेव के गौमुखी यक्ष एवं चक्रेश्वरी देवी तथा दो सिंह समुदाय के समक्ष एक भय का वातावरण निर्मित कर | की आकृतियां थीं, जो बड़े बाबा के चारों तरफ उनके दिया, उन्होंने हमारे धर्म गुरु,आचार्यों के प्रति अमर्यादित भाषा | परिकर के रूप में जैन मान्यताओं के अनुसार लगायी गयी का उपयोग किया। यहाँ तक कि पूरे कुण्डलपुर क्षेत्र में | थीं। प्रमाण स्वरूप मैं आपको बड़े बाबा के स्थानांतरण के पैरामिलेट्री फोर्स को नियुक्त कर देने की बात कही। उपस्थित | पूर्व के फोटो ग्राफ तथा वर्तमान में बड़े बाबा के नये मंदिर जैन समुदाय जो जाप अनुष्ठान में अपनी धार्मिक भावनाओं | गर्भालय के फोटो ग्राफ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ तथा इसी के साथ पूज्य बड़े बाबा से विश्वशांति की मनोकामना कर | गर्भालय में बड़े बाबा का पूरा का पूरा परिकर पूर्व की तरह रहा था, कलेक्टर महोदय के द्वारा निर्मित वातावरण से घबरा ही शोभायमान होगा। गया। यह समाचार आग की तरह पूरे हिन्दुस्तान में फैल ___ साथियो, यहाँ यह भी बताना बहुत आवश्यक है कि गया। रातों-रात बड़े बाबा के प्रति आस्था रखनेवाली | पुरातत्त्व विभाग के द्वारा संस्कृति की रक्षा करने का जो दावा महिलाओं, पुरुषों, बच्चों और बुर्जुगों का बहुत बड़ा सैलाब किया जा रहा है, वास्तविकता में वह कार्य कुण्डलपुर सिद्ध कुण्डलपुर में एकत्रित हो गया और बड़े बाबा जी की प्रतिमा क्षेत्र में बड़े बाबा के विशाल मंदिरनिर्माण द्वारा किया जा रहा पुराने मंदिर से निकाल कर नये मंदिर में स्थापित कर दी | है। बड़े बाबा का नया भव्य निर्माणाधीन मंदिर वंशी पहाड़पुर गई। यह भी एक चमत्कार था कि बड़े बाबा को जैसे ही | पत्थर पर अनूठी नक्काशी के साथ 171 फीट ऊँचाई का पुराने मंदिर से निकाला गया पुराना मंदिर स्वयमेव धराशायी | शिखर, 2 विशाल गुण व नृत्य मंडप, अक्षरधाम की तर्ज पर 8 /मार्च 2006 जिनभाषित
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निर्मित हो रहे हैं, जिसे देखकर वहाँ पर पहुँचने वाले हजारों- | आपको लिखित में सहमति नहीं दे सकते, किंतु बड़े बाबा हजार तीर्थयात्री, बुद्धिजीवी, विद्वान् भी प्रशंसा करते हुए यह के संरक्षण के लिए नये मंदिर का निर्माण कार्य अपरिहार्य कहते हैं कि बड़े बाबा की प्रतिमा जी के संरक्षण का असली | है। काम तो अब हो रहा है। बड़े-बड़े वास्तुविदों ने इस निर्माणाधीन | मैंने जो भी तथ्य आपके सामने रखे. वे मेरी जानकारी से मंदिर को महाप्रसाद का नाम दिया है।
पूर्णतः सत्य हैं। प्रमाण के तौर पर सभी दस्तावेज, फोटो बंधुओ, हमारी समिति आपसे विनम्र निवेदन करती है | ग्राफ भी उपलब्ध हैं। मेरी भावना किसी को ठेस पहुँचाने या कि आप लोग कुण्डलपुर पहुँचकर अपनी आँखों से सच्चाई | नीचा दिखाने की नहीं है। सिर्फ विगत दिवसों में भ्रान्त प्रचार को देखें, जानें व स्वयं निर्णय करें कि जैन समाज ने अथवा | के माध्यम से जो वातावरण को दषित किया गया, जिला समिति ने जो बड़े बाबा के नये मंदिरनिर्माण का बीड़ा | प्रमुख के गैर जिम्मेदाराना आचरण से भारतवर्ष में साम्प्रदायिक उठाया है, वह कितना सही है। अभी तक के हुए निर्माण | सौहार्दता को बिगाड़ने का जो प्रयत्न किया गया उसके कार्य में संपूर्ण भारतवर्ष से जैन धर्मावलंबियों से प्राप्त दान | निराकरण हेतु ये सारी बातें आपके समक्ष रखना आवश्यक राशि से 10 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं। 1995 से | हो गईं। . लगातार निर्माण का कार्य जारी है तथा यह भी एक सत्य है धन्यवाद कि इस विभाग के अधिकारियों की पूर्ण जानकारी में यह
प्रभारी कार्य हो रहा है। यही नहीं, वे यह भी कहते थे कि हम
श्री बड़े बाबा मंदिर निर्माण समिति कुण्डलपुर, जिला दमोह (म.प्र.)
पुरातत्त्व कानून पर पुन: गौर कीजिये
सुभाष चन्द्र 'सरल'
देश में अनगिनत पुरा सम्पदायें, जगह-जगह खड़ी हैं। पर दम तोड़ती सी बिखरी पड़ी हैं। हमारी सरकार उनका संरक्षण नहीं कर पा रही है, पर संरक्षण की भावना रखने वाले, अनुयायियों के आड़े आ रही है, हजारों देव प्रतिमाओं का क्षरण हो रहा है। चोरी हो रही है, या मरण हो रहा है। हजारों मन्दिर गिर गये हैं या गिरते जा रहे हैं, या उचित रखरखाव के अभाव में टूटते जा रहे हैं, सरकार के पुरातत्त्व संरक्षण कर्ताओं से, संरक्षण नहीं हो पा रहा है। सरकार के बजट का अधिकतम,
वेतन में खर्च हो रहा है। अत: आप जितना संभाल सकें, उतना सँभालिये पर प्रजातंत्र में देवों के अनुयायियों के, संरक्षण कार्य एवं नवनिर्माण में, आड़े मत आइये। कृपया अपनी सरकार के पुरातत्त्व संरक्षण कानून पर, महामहिम जी, प्रधान जी पुन: गौर कीजिये। और जिन पुरा देव प्रतिमाओं के अनुयायी, संरक्षण को तत्पर हैं उन्हें संरक्षण एवं आवश्यक नवनिर्माण के अधिकार दीजिये। जहाँ अनुयायी संरक्षण कर्ता न बनें, आप पूरी जिम्मेदारी से उनको सँभालिये। पर, लोकतंत्र में न करेंगे, और न करने देंगे की, नीति मत पालिये।
भोला फोटो स्टूडियो, सुभाषगंज अशोकनगर (म.प्र.)
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जैन संस्कृति रक्षा मंच जैनत्व की चिंता क्यों नहीं कर पाया?
निर्मल कुमार पाटोदी बुन्देलखण्ड का तीर्थराज कुण्डलपुर प्रथम तीर्थंकर | की न निर्माण कार्यों का अवलोकन किया। इसके विपरीत आदिनाथ भगवान बड़े बाबा का चमत्कारी दिगम्बर जैन | राष्ट्र के महान् संत गुरुवर विद्यासागर जी महाराज को अप्रत्यक्ष सिद्ध क्षेत्र है। सन् 1998-99 में संबंधित विशेषज्ञों के दल ने | बदनाम करने का प्रयास किया है। निर्माण कार्यों के खिलाफ मंदिर की जीर्ण-शीर्ण हालत से उत्पन्न खतरे के प्रति सचेत | न्यायालय के माध्यम से अवरोध उत्पन्न किया है। समाज में किया था। वास्तुविद् सी.वी. सोमपुरा ने वर्तमान में वायव्यमुखी | विवाद की सोचनीय स्थिति उत्पन्न की है। जिस संस्था को बड़े बाबा की इस प्रतिमा को पूर्व या उत्तरमुखी करके दिगम्बर जैन महासमिति के समान भारत सरकार ने समाज वास्तुदोष दूर करने की अनिवार्यता पर भी बल दिया था। के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता नहीं दी, उसने कुण्डलपुर विशेषज्ञों के सुझावानुसार प्रबंधकारिणी समिति ने आचार्य | क्षेत्र के भव्य निर्माण कार्यों को जहाँ प्राचीन मूर्तियों का श्री विद्यासागरजी महाराज का आशीर्वाद प्राप्त कर प्राचीन | संरक्षण किया जाने वाला है, रुकवाने का अवांछनीय कार्य भारतीय पंचायतन शैली के अनुरूप पाषाण निर्मित हजार किया है। ऐसी संस्था के रजिस्ट्रेशन का समाजहित में क्या साल से भी अधिक आयु वाला, भूकम्प के झटके सहने में | औचित्य है? आचार्य मेरूभूषण जी महाराज ने इस जैन समर्थ, बिना सीमेंट और लोहे के उपयोग के भव्य मंदिर संस्कृति रक्षा मंच के प्रमुख पदाधिकारियों को गिरनार जी निर्माण का प्रस्ताव किया, जो सन् 1999 में कुण्डलपुर में | सिद्धक्षेत्र मामले में उच्च न्यायालय में चल रहे प्रकरण में आचार्य श्री की उपस्थिति में विशाल धर्मसभा में निर्विरोध | पक्षकार बनने का पत्र लिखा था, किंतु कुछ नहीं किया गया। स्वीकार हुआ। देश के जाने-माने प्रतिष्ठाचार्य संहितासूरी क्या जैन संस्कृति रक्षा मंच के पदाधिकारीगण अपना पण्डित नाथूलालजी शास्त्री, इन्दौर से शास्त्रसम्मत परामर्श | स्पष्टीकरण देंगे? उन्होंने श्री गिरनारजी तीर्थ राष्ट्रस्तरीयकरके उनकी उपस्थिति में नये मंदिर का शिलान्यास किया | एक्शन-कमेटी के कार्यों की हर संभव आलोचना की, गया। तब से बड़े बाबा की मूर्ति व साथवाली जैन प्रतिमाओं असहयोग किया। केसरियाजी, पावापुर, अंतरिक्ष पार्श्वनाथ, का संरक्षण अनिवार्य हो जाने से नये मंदिर का निर्माण प्रारंभ पावागढ, सम्मेदशिखर जी तीर्थों के अस्तित्त्व पर आये संकट करना पड़ा।
के निवारण के लिये समाज को बताया जायेगा कि जैन घर को आग लगा दी घर के चिरागों ने संस्कृति रक्षा मंच वालों ने क्या कुछ किया? समाज की धरोहर के रक्षार्थ किये जा रहे भव्यनिर्माण को कुण्डलपुर जैसे निर्माणकार्य पूर्व में भी राजस्थान के विवाद का रूप समाज के एक अस्तित्वहीन, आधारहीन | अतिशय क्षेत्र पद्मपुरा में नवनिर्माण करके किये गये हैं। श्री जैन संस्कृति रक्षा मंच ने पिछले दिनों दे दिया है। इस महावीर जी जैसे प्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र में महावीर भगवान संस्थान ने अब तक कितने नव-निर्माण किये हैं? कितने की अतिशयकारी प्रतिमा जहाँ से निकली, उसे भी उसी तीर्थक्षेत्रों के पुरातत्त्व की रक्षा की है? कितनी धनराशि तीर्थ स्थल के बजाय अन्यत्र विराजित किया गया है। यह बात क्षेत्रों पर खर्च की है? इस तीर्थ रक्षा की संस्था ने अपने समूचा जैन समाज जानता है। सपने में भी नहीं सोचा जा उद्देश्यों के अनुरूप गठन से लेकर अब तक कितना |
| सकता है कि जैन धरोहर के संरक्षक आचार्य श्री विद्यासागर सकारात्मक योगदान दिया है? ऐसी जानकारी पूरे देश के जी महाराज तथा धर्म क्षेत्र कुण्डलपुर की प्रबंधकारिणी बड़े
न कभी प्रचारित की गई और न ही प्रसारित | बाबा भगवान ऋषभनाथ जी व अन्य मूर्तियों जैसी धरोहरों की गई। सिर्फ संस्था के शीर्ष पत्र पर छपे महानुभावों के को कभी क्षति पहुँचाने की सोच भी सकते हैं। नामों व उनके प्रभावों को भुनाने का कार्य ही संभवतः संस्था पुरातत्त्व विभाग कुण्डलपुर में अपना के पदाधिकारियों ने किया है? जो स्वयं कुछ रचनात्मक
योगदान बतावे योगदान नहीं दे सके हैं, उन्होंने कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र पर | | भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग को हमारे समाज के धर्मायतन की रक्षार्थ किये जा रहे धार्मिक निर्माणकार्यों की जैन संस्कृति के इन तथाकथित धर्मरक्षकों ने ही शिकायत प्रबंधकारिणी समिति से सम्पर्क करके न जानकारी प्राप्त | करके सक्रिय किया है, मजबूर किया है। कुण्डलपुर तीर्थक्षेत्र
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में पुरातत्त्व विभाग ने पुरातत्त्व स्मारक सम्बन्धी आज तक | राष्ट्रपति जी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री जी को पत्र भेजकर कोई सूचना व जानकारी प्रदर्शित नहीं की है। समाज के इस | माँग करना होगी कि धर्मक्षेत्र कुण् धर्मक्षेत्र पर तथा बड़े बाबा का मंदिर जीर्ण-शीर्ण होते जाने | विकास सम्बन्धी कार्य करने का अधिकार प्रबंधकारिणी पर भी पुरातत्त्व विभाग, वन विभाग व अन्य शासकीय | समिति को हस्तान्तरित किये जायें, जैसे कि माउंटआबू, विभागों की हमारे धर्मक्षेत्र के विकास, संरक्षण, संवर्धन में | राजस्थान, देलवाड़ा के जैन मंदिरों के संरक्षण, संवर्धन एवं कभी कोई भूमिका नहीं रही, न ही पुरातत्त्व विभाग ने अब | विकास कार्य के अधिकार वहाँ की समाज को हस्तान्तरित तक खर्च किये गये दस करोड़ रुपयों के निर्माण कार्य को | किये गये हैं। ऐसा प्रावधान भारतीय पुरातत्त्व अधिनियम में रोकने की पहल की है, जो कि छिपाकर चुपचाप किया है भी तथा यह अनुभव के आधार पर न्याय का तकाजा भी जाना असंभव था।
| है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के अन्तर्मन से उपजी ऐसी दशा में समाज के सभी संस्थाओं व महानुभावों को | यह भावना सबके गले उतरने योग्य है कि पुरातत्त्व विभाग जैन संस्कृति रक्षा के नाम पर अवरोध उत्पन्न करने वाले को पुरातत्त्व की चिंता है, हमें पूरे तत्त्व की। नकारात्मक चेहरों को पहचानना होगा तथा उनका बहिष्कार
22, जॉय बिल्डर्स कॉलोनी, इन्दौर-452003 करना होगा। भारतसरकार के पुरातत्त्वविभाग, प्रधानमंत्री जी,
घनिष्ट मित्रता
बेला जैन
मैत्री वही घनिष्ट है, जिसमें दो अनुरूप। आत्मा को अर्पण करें, सखा को रुचिरूप॥
बुध सम्मत वह मित्रता, जिसमें यह बर्ताव। स्वाश्रित दोनों पक्ष हों, रखे न साथ दबाव ॥
3. मित्र वस्तु पर मित्र का, दिखे नहीं कुछ स्वत्व। तो मैत्री किस मूल्य की, और रखे क्या तत्त्व॥
एक हृदय सन्मित्र का, सच्चे तजें न साथ। नाश हेतु होवे भले , चाहे उसका साथ ।।
7. जिस पर चिरकाल से, मन में अति अनुराग। कर दे यदि वह हानि तो, होता नहीं विराग।
8. मित्र नहीं सन्मित्र पर, सहता दोषारोप। फूले उस दिन मित्र जब, हरले अरि आरोप॥
9. चिर मित्रों के साथ भी, शिथिल न जिसका प्रेम । ऐसे मानव रत्न को, अरि भी करते प्रेम॥
बिना लिये ही राय कुछ, कर लेवे यदि मित्र। तो प्रसन्न होता अधिक, सचमुच गाढ़ा मित्र ॥
5.
कष्ट मिले यदि मित्र से, तो उसका भावार्थ। या तो वह अज्ञान है, या मैत्री सत्यार्थ ॥
म. नं. 16, गाँधी चौक,
नसीराबाद (राज.)
मार्च 2006 जिनभाषित / 11
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ये हैं तथ्य और प्रमाण
चिंता पुरातत्त्व से बढ़कर पूरे तत्त्व की कीजिये
"जहाँ आकर सात्त्विक भाव जागृत हों, व्यक्ति परमार्थ की ओर मुड़े, आत्म कल्याण की ओर उन्मुख हो, वह क्षेत्र तीर्थ होता है। कोई क्षेत्र तीर्थ बनता है तब, जब अनेक भव्य जीवों ने वहाँ साधना की होती है, तो उनकी तप-प्रभावना का आरोप उस क्षेत्र पर हो जाता है। यह कुण्डलपुर में और अत्यधिक मात्रा में विद्यमान है। बड़े बाबा की महिमा को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता, शब्दातीत हैं 'वे' ।" यह मत कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र के बारे में आचार्य श्री विद्यासागर जी का है।
भारत के हृदयस्थल मध्यप्रदेश के सागर संभाग का एक जिला दमोह है। इस जिला मुख्यालय से लगभग 35 कि.मी. दूर पटेरा तहसील में, बुन्देलखण्ड का 'तीर्थराज ' कुण्डलपुर है, प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान का चमत्कारिक स्थान । प्राकृतिक सुषमा की आनंदमयी गोद में कुण्डलाकार पर्वत श्रेणियों के मध्य स्थित ऊँचे-ऊँचे जिनालयों वाला यह सिद्धक्षेत्र जैनधर्म की कीर्ति पताका फहरा रहा है ।
भारत की 6वीं शती की प्राचीनतम तथा विशालतम लाल बलुआ पत्थर की पद्मासन, 15 फुट ऊँची, इस भव्य आदिनाथ भगवान की प्रतिमा के दर्शन को श्रद्धा से भरपूर जैन- अजैन, बाल-अबाल, स्त्री-पुरुष, भक्तजन खिंचे चले आते हैं। दर्शन करके जयकारा करने से, भाव-विभोर भक्तों की भक्ति साकार हो जाती है। मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। बड़े बाबा की मनोहारी मूर्ति के कारण कुण्डलगिरि ख्यात है। सत्रहवीं शती के अंतिम वर्षों में इस क्षेत्र के किसी ग्रामीण को इस प्रतिमा के धड़ और शिर दिखाई दिये थे । उस समय दिगम्बर जैन परम्परा के भट्टारक मुनि श्री सुरेन्द्र कीर्ति जी अपने शिष्यों व संघ सहित विहार करते हुए इस क्षेत्र में ठहरे थे । आहार से पूर्व देवदर्शन का भट्टारक जी का नियम था। दो दिन दो रात तक भगवान के दर्शन बिना वे निराहार रहे। तब किसी ने इस प्रतिमा की जानकारी भट्टारक जी को दी थी और वे देवदर्शन हेतु भगवान की प्रतिमा स्थल तक पहुँच कर दर्शन का संकल्प पूर्ण कर सके तथा आहार ग्रहण कर पाये। जीर्णोद्धार के लिए भट्टारकजी ने वहीं चतुर्मास किया। यह विवरण मंदिर के जीर्णोद्धार - सम्बन्धी देवनागरी लिपि तथा संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण 1700 ई. के यहाँ स्थित शिलालेख में है ।
12 / मार्च 2006 जिनभाषित
निर्मल कुमार पाटोदी कुण्डलपुर के बड़े बाबा की वेदी के बाहर अंतिम केवली श्रीधर स्वामी की निर्वाण स्थली होने के कारण यह स्थान सिद्धक्षेत्र है। ईसा से छह शताब्दियों पूर्व भगवान महावीर का समवशरण इस स्थान पर आया था। संभवतः बड़े बाबा के मूल मंदिर का निर्माण लगभग छठवीं शती में हुआ होगा । कुण्डलपुर के विषय में प्रथम विधिवत् जानकारी कुण्डलपुर नामक पुस्तक (1949) में लिपिबद्ध की गयी है। इस पुस्तक के वर्ष 1963 के संस्करण में प्रथम बार बड़े बाबा की पहचान भगवान आदिनाथ के रूप में की गयी। इसके पहले तक कुण्डलपुर के बड़े बाबा की प्रतिमा को भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा के रूप में पहचाना गया था।
सन् 1997-98 में विशेषज्ञों के दल ने मंदिर की जीर्णशीर्ण अवस्था को देखते हुए जो खतरा उत्पन्न हो गया था उसके आधार पर सुझाव दिया था कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग करते हुए पहाड़ में ग्राउटिंग करके, मंदिर का स्थान परिवर्तित करके, पीछे की ओर अन्यत्र मजबूत स्थान पर ऐसा मंदिर बनाया जाए जो रिक्टर पैमाने पर 8 तीव्रता तक के भूकम्प को सह सके। वास्तुविद् सी.वी. सोमपुरा ने वर्तमान में वायव्यमुखी प्रतिमा को पूर्व या उत्तरमुखी करके वास्तुदोष को दूर करने की अनिवार्यता पर बल दिया, जिससे प्रतिमा की स्थायी सुरक्षा की व्यवस्था की जा सके। विशेषज्ञों के सुझाव अनुसार प्रबन्धसमिति ने आचार्य श्री विद्यासागर जी का आशीर्वाद प्राप्त कर प्राचीन भारतीय पंचायतन शैली के अनुरूप पाषाण निर्मित बिना सीमेंट और लोहे के उपयोग के भव्य मंदिर निर्माण का प्रस्ताव किया। आचार्य श्री के फरवरी 1999 में कुण्डलपुर आगमन पर उनके तथा समाज के गणमान्य व्यक्तियों के समक्ष 14 फरवरी 1999 को विद्या भवन कुण्डलपुर में, विशाल धर्मसभा में यह प्रस्ताव रखा गया, जो निर्विरोध स्वीकार हुआ। 3 मार्च 1999 को देश के मान्य प्रतिष्ठाचार्य संहितासूरी पण्डित नाथूलाल जी शास्त्री, इन्दौर से विधि-विधान तथा शास्त्र सम्मत जानकारी हेतु परामर्श करके नव मंदिर का शिलान्यास किया गया।
'पुरातत्त्व विभाग को पुरातत्त्व की चिंता है। हमें पूरे तत्त्व की " यह आचार्य श्री विद्यासागर जी का मत है। इतना कुछ हो जाने पर भी निरर्थक प्रश्न हवा में उछले हैं, निराधार शंकाएँ लोगों के मन में उत्पन्न की गयी हैं और जो अकारण
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धारणाएँ एवं भ्रांतियाँ व्याप्त हो गई हैं, उनका निराकरण पद्मप्रभ भगवान की प्राचीन मूर्ति पुराने स्थान से स्थानान्तरित
भावों को तब होगा, जब वे स्वयं कर नवनिर्मित विशाल मंदिर में विराजमान की गई, किन्तु क्षेत्र पर किये जा रहे निर्माण से अवगत होने के लिए पधारेंगे, उसके अतिशय में कोई कमी नहीं आयी। तथ्यों से अवगत होंगे तथा अपनी आशंकाओं का निराकरण वर्तमान बड़े बाबा का मंदिर न तो मूलनायक प्रतिमा का प्रबन्ध समिति से कर लेंगे।
मूल प्राचीन मंदिर है, न ही मूल गर्भगृह। महत्त्व मूर्ति की __वर्तमान गर्भगृह तथा श्रीधर केवली के स्थान को सुरक्षित पवित्रता, प्राचीनता एवं पूजनीयता का ही है, स्थान का नहीं। रखकर इसके पास नये मानस्तंभ का निर्माण किया जायेगा। महावीर जी में महावीरभगवान की अतिशयकारी प्रतिमा को विस्तृत जानकारी के अभाव में बड़े बाबा की मूर्ति के प्राप्ति स्थल (जहाँ ग्वाले की गाय रोज दूध देती थी)पर न स्थानान्तरण के प्रश्न को लेकर मूर्ति को क्षति, मूर्ति के प्रतिष्ठित करके, अन्यत्र विराजित किया जा सकता है, तो अतिशय में कमी तथा इस प्रक्रिया में कुछ पुराने निर्माणों को कुण्डलगिरि में भगवान आदिनाथ जी बड़े बाबा की मूर्ति हटाने के कारण प्राचीनता पर आँच आने जैसी शंकाएँ उठाई को खतरा होने से अन्यत्र विराजमान क्यों नहीं किया जा गईं हैं। वस्तुस्थिति यह है कि किसी दूसरे के कब्जेवाली सकता? कोई भी समाज क्यों अकारण अपनी ही धरोहर को मिल्कीयत पर न कब्जा किया गया है, न ही जबरदस्ती क्षति पहुँचाना चाहेगा? ध्यान देने की मूल बात यह है कि करके तोड़फोड़ का षड्यंत्र रचा गया है। यह तो विशुद्ध रूप पुरातत्त्व के ज्ञाता, जैन धरोहर के संरक्षक, आचार्य व मुनिगण से कुण्डलपुर क्षेत्र की प्रबन्ध समिति तथा सकल जैन समाज तथा तीर्थक्षेत्र की प्रबन्धकारिणी आदि बड़े बाबा की मूर्ति का निजी मामला है। फरवरी 2001 में कुण्डलपुर में आयोजित को क्षति पहुँचाने का खतरा मोल कैसे ले सकते हैं? गत 200 महामस्तकाभिषेक के अवसर पर सकल जैन समाज ने नया वर्षों में जैनसमाज के आधिपत्यवाले इस क्षेत्र में भारत सरकार भव्य मंदिर निर्माण करने तथा सभी मूर्तियों को उस मंदिर में और उसका पुरातत्त्व विभाग कभी नहीं जागा, न ही कभी विराजमान करने का संकल्प लिया था। मूर्ति-स्थानान्तरण से उसने हस्तक्षेप किया और न ही कभी एक पैसा विभाग की बड़े बाबा सहित किसी भी मूर्ति को रंच मात्र भी क्षति नहीं और से कुण्डलपुर क्षेत्र के संरक्षण, संवर्धन, विकास और हुई है। सब कुछ तकनीकी विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में सरलता देखभाल में लगाया गया। आस्थावान दिगम्बर जैन समाज के से हुआ है। बड़े बाबा की मूर्ति के स्थानान्तरण से उनकी लाखों धर्मानुरागियों के तन, मन, धन व सहभागिता से ही महिमा व अतिशय में कोई कमी नहीं आयेगी, चाहे वे यहाँ सब कुछ सही दिशा में किया जा रहा है। समाज के कतिपय रहें या वहाँ, वे बड़े ही रहेंगे। पूरे भारत के विभिन्न भागों में महानुभावों द्वारा उठाई गई सभी आशंकाएँ निर्मूल सिद्ध हो महामंत्र ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बड़े बाबा अहँ नमः स्वाहा के करोड़ों चुकी हैं।
जाप तथा हजारों-हजारों श्रद्धालुओं की धर्म व पुरातत्त्व की सुरक्षा चन्द व्यक्तियों की नहीं, उपस्थिति में धार्मिक अनुष्ठान के साथ बड़े बाबा की प्रतिमा सम्पूर्ण समाज की चिंता का विषय है। इस कार्य में समस्त नवनिर्मित वेदी पर विराजमान की गयी। इस अवसर पर मुनिसंघ और अधिकांश जैनसमाज की स्वीकृति है। प्रबन्ध आचार्य श्री विद्यासागर जी के सान्निध्य में प्रथम समिति की आड़ में आचार्यों तथा देव, शास्त्र व गुरु सम्मत महामस्तकाभिषेक इस नये स्थान पर किया गया। इस अवसर कार्यों का विरोध करना व बाधाएँ उत्पन्न करना न पर प्रवचन में आचार्यश्री ने कहा कि बड़े बाबा की नए मंदिर अभिनन्दनीय है, न ही स्तुत्य। जो कुछ भी किया जा रहा है में स्थापना होने के लिए देशभर में लाखों लोगों ने जप किये धार्मिक, अध्यात्मिक, व्यवहारिक दृष्टि से पूरे तत्त्वों-वास्तु, थे। पहले बैलगाड़ी से लाए गए बड़े बाबा को अब भूगर्भ से कलात्मकता. प्राचीन संस्कृति, भव्यता, पवित्रता तथा सुरक्षा निकालकर अंतरिक्ष में स्थापित किया गया है। इस अवसर और अखण्डता का ध्यान रखते हए किया जा रहा है। यह पर पूज्य बड़े बाबा की जय के उद्घोष से समूचा धर्म क्षेत्र निर्माण भारतवर्ष का सबसे विशाल ऐतिहासिक दिगम्बर गंजायमान हो गया था। इस अद्भुत ऐतिहासिक क्षण का जैन मंदिर जिसमें पर्वत पर शिखर की ऊँचाई 171 फट. साक्षी बनने पर हर भक्त अपने पुण्योदय को सराह रहा था। मंदिर का सम्पूर्ण निर्माण गुलाबी रंग के वंशी पहाडपुर के सब कुछ शांति से सानन्द सम्पन्न हुआ है। इसका सबसे पत्थर से हो रहा है। देलवाडा माऊन्टआबू के मंदिर के महत्त्वपूर्ण उदाहरण है-अतिशय क्षेत्र पद्मपुरा, जयपुर (राज.), समान नक्काशी नागर शैली का उपयोग किया जा रहा है। जो केवल अपने अतिशय के लिए ही जाना जाता है। वहाँ सोमवार 6 मार्च 2006 को उच्चन्यायालय, जबलपुर में तारीख
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है। दिगम्बर जैन समाज की सभी संस्थाओं तथा प्रमुख | श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र प्रबन्धकारिणी समिति, कुण्डलपुर महानुभावों द्वारा इस सम्बन्ध में प्रस्ताव स्वीकृत कर भारत | (दमोह,म.प्र.) पिन 470773 को भेजी जाये। ऐसा राजस्थान सरकार के पुरातत्त्व विभाग को भेजा जाना चाहिये, जिसमें | के माऊन्टआबू में स्थित देलवाड़ा के जैन मंदिरों के संरक्षणमाँग की जाय कि समाज के इस सम्पूर्ण धर्म क्षेत्र कुण्डलपुर | संवर्धन का अधिकार वहाँ की प्रबन्ध समिति को भारतसरकार (दमोह) का आधिपत्य प्रबन्धकारिणी समिति कुण्डलपुर | के पुरातत्त्व विभाग के द्वारा सौंपा जा चुका है। ऐसा प्रावधान को सौंपा जाये, ताकि वह भविष्य में भी इस क्षेत्र का संरक्षण, | भारतीय पुरातत्त्व अधिनियम में है तथा यह न्याय का तकाजा संवर्धन तथा विकास कर सके एवं समचे क्षेत्र को सर्वांगीण | भी है। व भव्य स्वरूप दिया जा सके। माँगपत्र की एक प्रति | 22, जॉय बिल्डर्स कॉलोनी ( रानी सती गेट), इन्दौर
दीक्षा दिवस
मुनित्रय का दीक्षा दिवस मुनि श्री चन्द्रसागर जी
मध्यप्रदेश का एक हिस्सा पश्चिम निमाड़ और इसी जब संकल्प शक्ति की यात्रा प्रारम्भ होती है तब जीवन | निमाड की एक नगरी है सनावद, जो सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकट यम की ओर गमन करने लगता है, यही संकल्प की विधि | जी के समीप है। इस नगरी को त्यागी-व्रतियों की नगरी जीवन का दाक्षा है, जो पूरे जीवन भर पाप से बचा लता है। कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। त्याग और तपस्या तो
और फिर जीवन की शोभा के लिये हाथ में संयमोपकरण | जैसे यहाँ की मिट्टी की खुशबू बन गई है। (पिच्छिका) आ जाता है, जिसके द्वारा जीवों का रक्षण किया
सनावद नगर से एक दो नहीं, पूरे नौ दिगम्बर साधु हुए जाता है। जिस प्रकार मयूर पंख से निर्मित पिच्छिका मृदु |
| हैं। आचार्य वर्धमानसागर जी (जो अभी हुए श्रवणवेलगोला होती है, उसी प्रकार हमारे भाव मृदु बने रहें और न पिच्छिका
में महामस्तकाभिषेक के सूत्रधार थे) इस नगर के प्रथम मुनि में पानी, तेल, धूल का स्पर्श होता है, ऐसे ही हमारी आत्मा
हैं, जो आचार्य पद को सुशोभित कर रहे हैं और उनसे शुरू विकारी भावों के स्पर्श से बची रहे। यही दीक्षा हमें प्रतिपल
हुआ सिलसिला अब तक अनवरत जारी है। मुनिश्री सावधान रहने का संकेत देती रहती है। ये जागृति हमारी |
प्रशस्तसागर जी, प्रबोधसागर जी एवं प्रयोगसागर जी बचपन आत्मा को मलिन होने से बचा लेती है अर्थात् बुराई में नहीं |
से ही साथ खेले, साथ पढ़े और साथ रहे। तीनों दोस्तों की फँसने देती और कैसे खाना, कैसे पीना, कैसे बोलना,कैसे |
दोस्ती की प्रगाढ़ता इसी से जाहिर होती है कि सनावद नगर चलना, कैसे बैठना, कैसे उठना, कैसे सोना इत्यादि कार्यों |
में 1993 में आर्यिकारत्न पूर्णमती जी के ससंघ चतुर्मास के के प्रति सचेत रहना ही दीक्षा के लक्षण हैं। जीवन का |
दौरान तीनों के मन में वैराग्य के अंकुर फूटे, जो दिनों दिन प्रत्येक पल दीक्षामय है। दीक्षा, काल से बँधकर नहीं पलती
बढ़ते गये। संघ में प्रवेश, घर परिवार का त्याग, कठिन व्रतों है। दीक्षा के संस्कार काल की मर्यादा को लेकर चलते हैं,
का लेना, इन सब क्रियाओं में व्यवधान भी आए, मगर जिसे किन्तु दीक्षा दिवस सावधानी का दिवस होता है। जहाँ प्रभात |
वैराग्यलक्ष्मी का वरण करना हो, उसे कोई भी बाधा रोक से लेकर चलते हैं, किन्तु प्रत्येक दिवस सावधानी चलती
नहीं सकती है। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिये रहती है। सावधानी से चूकने पर जीवन को पतन की ओर |
अपने आपको अपने श्रद्धेय के प्रति समर्पित करने का भाव जाने में देर नहीं लगती है। दीक्षा समीचीन दिशा का नाम है।
लिये हुए तीनों ब्रह्मचारी मुनि बनकर कठिन साधना करने जो दशा के परिवर्तन में कारण है। वैसे भी दिशा और दशा
निकल पड़े। के कारण ही पापों का क्षय होता है। इसी भूमिका में शान्ति
धन्य हैं वे माता-पिता, मित्र, परिवारजन एवं नगरवासी और सुख की अनुभूति होती है। यही धरती से ऊपर उठने
जिन्होंने अपने लाल जिनवाणी माता की गोद में अर्पित कर की कला है। दीक्षा में मास, वर्ष की गिनती नहीं होती है, न
दिए हैं। समय को काटा जाता है। यह तो कर्म काटने की साधना पद्धति है। साधक अपने भावों को संभालते हुये दोषों का
श्रीमती भारती जैन, परिमार्जन करते हुये दीक्षामय जीवनयापन करते हुये साधना
नेहरू नगर, भोपाल में लगा रहता है। यही दीक्षा दिवस है। 14 / मार्च 2006 जिनभाषित
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श्रृंगार दुल्हन का : राह संन्यास की आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने 58 ब्रह्मचारिणी बहिनों को आर्यिका दीक्षा प्रदान की
जयकुमार जैन 'जलज' सुप्रसिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर में 13 फरवरी 2006 को लगभग । मोक्षमार्ग के कठिन पथ पर जो बढ़ रही थी। सच के पीछे 50 हजार श्रद्धालुओं की उपस्थिति में देश के विभिन्न प्रांतों | की भावना और भावनाओं के पीछे का सच जिसे समझ में से आईं 58 ब्रह्मचारिणी बहिनों ने उत्सवी माहौल में संत | आ जाता है वही दीक्षा को उपलब्ध होता है। यह आत्मशिरोमणि परम पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज से
विजेता योद्धाओं का पथ है। इस पर कोई वीर महावीर ही आर्यिका दीक्षा प्राप्त की। यह पहला मौका है जब एक साथ | चल सकता है क्योंकि शत्रुओं को जीतना आसान है पर इतनी अधिक संख्या में आचार्यश्री द्वारा आर्यिकादीक्षा प्रदान अपने आप पर नियंत्रण सबसे कठिन काम है। धन्य थीं वे की गई।
हजारों-हजार आँखें, जिन्होंने इस महान् दृश्य को देखा। इस अवसर पर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने | पटना (बिहार) से पहली बार कुण्डलपुर पधारे 74 वर्षीय अपने आशीर्वचन में कहा कि बड़े बाबा के उच्च सिंहासन भँवरलाल जैन अपने जीवन में पहली बार कोई दीक्षा समारोह पर विराजित होने के उपरान्त यह चमत्कार हआ है। | देख रहे थे, वे बिल्कुल चौथेकाल जैसे दृश्य का अनुभव ब्रह्मचारिणी बहिनों की भावना थी. पर्व में अनेक बार उन्होंने | कर रहे थे। सप्तम प्रतिमाधारी वयोवृद्ध डालचंद बडकल दीक्षा हेतु भाव प्रकट किये थे. अब यह कार्य जल्दी से | का कहना था- काश हमें गुरुवर पहले मिल गये होते. तो जल्दी हो जावे। होता कैसे बड़े बाबा भूगर्भ में थे। आज हम गृहस्थी न बसाते। जब चिड़िया चुग गई खेत अब आपने अपने जीवनकाल में यह मोक्षमार्ग-महोत्सव देखा,
| पछताये होत का। ब्रह्मचारी त्रिलोकजी ने कहा- दीक्षा वह इसे आत्म-महोत्सव कहें या संयम-महोत्सव कहें, इससे अवसर है, जब साधक अकरणीय कार्यों से मुक्त होकर बढकर आर्यिकादीक्षा-महोत्सव क्या होगा! इन सभी ने चारित्र रत्नत्रयस्वरूप करणीय कार्यों को करने के लिये कृतसंकल्प को, संयम को स्वीकार किया है, संयम मार्ग को चुना है।
होता है। संजय चौधरी गुना का कहना था उनकी छोटी असंयम संसार का कारण है संयम मुक्ति का कारण है।।
बहिन भारती दीदी सच्चे मार्ग पर कदम बढ़ा रही हैं, जहाँ संयमी गिने चुने होते हैं, असंयमियों की संख्या निर्धारित दीक्षा पाकर उनका जीवन सुखी होगा। शादी करके भी ये नहीं, अनंत कोटि में है। संयम एक नौका का कार्य करता | सुख,खुशियाँ उन्हें हम नहीं दे पाते। दीक्षा ले रही डॉ. श्रद्धा है। आप लोग इस दृश्य को देखकर जीवन सार्थक करने हेतु दीदी के भाई सनत कुमार ने बताया कि हम लोग चाहते थे पुरुषार्थ करें। जिन्होंने महाव्रत को धारण किया है. कर्मक्षय | कि दीदी इतनी जल्दी दीक्षा न लें, पर दीदी तो अडिग रहीं. हेतु वे भूले नहीं, अपने मार्ग पर अविरल पल-पल पग-पग उनका कहना था जो कदम आगे बढ गये, पीछे नहीं हट बढ़ते चलें मोक्षमहल की ओर।
सकते। व्रती-नगरी पिण्डरई के विजयकमार अपनी बिटिया दीक्षास्थल का नजारा तो अभूतपूर्व था। सुसज्जित मंच | अंजू को गुरुचरणों में सौंपते हुये प्रसन्न दिखे। आचार्यश्री ने पर आचार्यश्री के साथ 48 मुनिगण, एक शतक से अधिक
| सभी 58 दीक्षार्थी बहिनों को आर्यिका दीक्षा के संस्कार के आर्यिका मातायें, नव दीक्षार्थी 58 ब्रह्मचारिणी बहिनें, सैकड़ों साथ पिच्छी कमण्डलु एवं नये नाम दिये। प्रतिभामंडल की ब्रह्मचारिणी बहिनें, दूर-दूर तक हजारों
दीक्षा के पूर्वदिन कुण्डलपुर में आनंद का सागर वर्धमान हजार श्रद्धालुओं की कतारें, चारों ओर से उठती बड़े बाबा | सागर की लहरों के बीच हिलोरें लेता दृष्टिगत हो रहा था। एवं आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का जय-जयकार।
दीक्षा ले रही अर्धशतक से ज्यादा ब्रह्मचारिणी बहिनों के श्रद्धालु उस समय आर्द्र हो गये. जब दीक्षार्थी बहिनों ने शापर्व लोकोपचार-संस्कार की रस्म मेंहदी, दुल्हन स्वरूप वैराग्य के मंच से अपने परिवारजनों, गुरुजनों एवं उपस्थित | शृंगार, ओली भराई एवं बाजे-गाजे के साथ कुण्डलपुर कस्बे जनसमूह से क्षमायाचना कर धर्मपथ पर चलने दीक्षा की | में निकली विनौरी-शोभायात्रा के अलौकिक दृश्य देखकर ओर कदम बढ़ाया। दीक्षार्थी बहिनों के परिजन अपने आँसुओं | उपस्थित विशाल जनसमुदाय भाव विभोर हो गया। मेंहदी को रोक नहीं सके, घर आंगन में पली, बढ़ी लाड़ली बिटिया | रस्म के समय वंदना जैन दमोह अपने भाग्य को सराहते
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कल्पना दीदी खुरई के हाथों में मेंहदी रचाते इतनी खुश | 20. ब्र.कल्पना,शाहपुर श्री पृथ्वीमति जी दिखीं कि कह उठीं- ऐसा लग रहा है कि पूरे हाथों में मेंहदी | 21. ब्र.मनीषा, नागपुर श्री निर्मदमति जी रचा दूँ। महावीर उदासीन आश्रम कुण्डलपुर के अधिष्ठाता | 22. ब्र.दीपा, खुरई (सागर) श्री पुनीतमति जी पं.अमरचंद जी शास्त्री का कहना था कि आज के टी.वी.- 23. ब्र.कल्पना, खुरई
श्री विनीतमति जी मोबाइल युग में जब विलासिता और पाप करने के साधन | 24. ब्र.संगीता, खुरई
श्री मेरुमति जी घरों में घुस गये हैं, ऐसे समय में बच्चे सांसारिकता से मुँह | 25. ब्र.मीरा, बरा (सागर) श्री आप्तमति जी मोड़कर आचार्यश्री का निमित्त पाकर वैराग्यपथ धारण कर | 26. ब्र.वाणी, चेय्यार (त. ना.) श्री उपशममति जी रहे हैं, पूर्व जन्म में इन्होंने कितना पुण्य अर्जन किया होगा! | 27. ब्र.पम्मी, कोसावेल(छ.ग.) श्री ध्रुवमति जी 87 वर्षीय देशरानी दीक्षासमारोह के साथ-साथ बड़े बाबा के | 28. ब्र.मनीषा, पथरिया
श्री असीममति जी दर्शन करते-करते बोल उठीं-आज हृदय गदगद हो गया। 29. ब्र.अंजू , पथरिया
श्री गौतममति जी हम सोच भी नहीं सकते थे कि हमें अपने जीवन में उच्च 30. ब्र. ज्योति, कुंभराज श्री संयतमति जी सिंहासन पर विराजमान बड़े बाबा के नये मंदिर में दर्शन 31. ब्र.अंजू, बांदकपुर
श्री अगाधमति जी कभी हो सकेंगे। जौहरीबाजार जयपुर से पधारे एक बुजुर्ग 32. ब्र.ज्योति, चरगवां
श्री निर्वाणमति जी सज्जन का कहना था- ऐसा लग रहा है जैसे साक्षात् भगवान 33. ब्र.वंदना, चरगवां
श्री मार्दवमति जी के समवशरण के दर्शन हो रहे हों। कार्यक्रम संचालन 34. ब्र.प्रीति, चरगवां
श्री मंगलमति जी आर्यिकारत्न श्री गुरुमति जी एवं आर्यिकारत्न श्री दृढ़मति जी 35. ब्र.कीर्ति, दिग्रस (महाराष्ट्र) श्री परमार्थमति जी ने किया।
36. ब्र.मधु, टड़ा (सागर) श्री ध्यानमति जी दीक्षित आर्यिकाओं के
37. ब्र.अनीता, नागपुर
श्री विदेहमति जी पूर्व नाम
दीक्षानाम 38. ब्र.नीलम, जरुआखेड़ा श्री अवायमति जी
श्री पारमति जी 1. ब्र.शशि, सागर
39. ब्र.ममता, बहेरिया रहली श्री स्वस्थमति जी
40. ब्र.विनीता, गढ़ाकोटा श्री तथ्यमति जी
श्री आगतमति जी 2. ब्र.भारती, सागर
श्री श्रुतमति जी 41. ब्र.जूली, सागर
श्री वात्सल्यमति जी 3. ब्र.साधना, शाहपुर
42. ब्र.साधना, जबलपुर श्री अदूरमति जी 4. ब्र.रजनी, गुना
श्री पथ्यमति जी
43. ब्र.सुनीता, नन्हीं देवरी श्री स्वभावमति जी 5. ब्र.संतोष, कुचामन श्री जाग्रतमति जी
44. ब्र.सरिता, पथरिया
श्री धवलमति जी 6. ब्र. डॉ. श्रद्धा, बण्डा श्री कर्त्तव्यमति जी
45. ब्र. आकांक्षा,शाहपुर (सागर) श्री विनयमति जी 7. ब्र. डॉ. देविका, जबलपुर श्री गंतव्यमति जी
46. ब्र.सपना, शाहपुर (सागर) श्री समितिमति जी 8. ब्र.कल्पना, गुना
श्री संस्कारमति जी 47. ब्र.साधना,दमोह
श्री अमितमति जी 9. ब्र. पदमश्री, जुगुड (कर्ना.) श्री निष्काममति जी
48. ब्र. सरिता,कर्रापुर (सागर) श्री परममति जी 10. ब्र. राजश्री, जुगुड़ (कर्ना.) श्री विरतमति जी
49. ब्र.प्रियंका, सांगा (दमोह) श्री चेतनमति जी 11. ब्र. राखी, विदिशा
श्री तथामति जी 50. ब्र.पिंकी,नागौद
श्री निसर्गमति जी 12. ब्र.अंजू, पिण्डरई
श्री उदारमति जी 51. ब्र. निधि, रांझी, जबलपुर श्री मननमति जी 13. ब्र.बबीता, सतना श्री विजितमति जी 52. ब्र. नीलू, तेंदूखेड़ा
श्री अविकारमति जी 14. ब्र.श्वेता, छिंदवाड़ा श्री संतुष्टमति जी 53. ब्र.स्वाति,जैसीनगर श्री चारित्रमति जी 15. ब्र. डॉ. मीनू , जबलपुर श्री निकटमति जी 54. ब्र.ज्योति, जैसीनगर श्री श्रद्धामति जी 16. ब्र. प्रीति, नागपुर
श्री संवरमति जी 55. ब्र.सरिता, जैतपुर कोपरा श्री उत्कर्षमति जी 17. ब्र. भारती, बण्डा
श्री ध्येयमति जी 56. ब्र. सूर्यकुमारी अम्मा, तमिलनाडु श्री संगतमति जी 18. ब्र. रेणु , दिल्ली
श्री आत्ममति जी 57. ब्र. सुशीला, ललितपुर श्री लक्ष्यमति जी 19. ब्र.पप्पी, सतना
श्री चैत्यमति जी
58. ब्र. प्रभाबाई,जबलपुर श्री भक्तिमति जी
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सूतक एवं मरणसूतक : शास्त्रीय चर्चा
मानवजीवन में घटनाओं का क्रम चलता रहता है। कभी चाही घटना घटित होती है, तो कभी अनचाही घटना घटित होती है। चाही घटना घटित होने पर हर्ष उत्पन्न होता है और अनचाही घटना घटित होने पर शोक बढ़ता है। हर्ष के बढ़ने और शोक के बढ़ने से रागद्वेष की अधिकता मन में उत्पन्न हो जाती है। राग-द्वेष का अतिरेक ही अशौच की उत्पत्ति और वृद्धि करने वाला होता है। तात्कालिक घटनाओं से वह मानसिक अस्थिरता और अपवित्रता शीघ्र दूर नहीं होती, उसे दूर होने में/ शान्त करने में समय लगता है, वही कालशुद्धि है, उसी को सूतक और मरणसूतक कहा गया है। अर्थात् परिवार में बालक-बालिका के जन्म से होने वाली अशुद्धि को सूतक कहते हैं, यही सुआ कहा जाता है। परिवार में व्यक्ति के मरण के पश्चात् उत्पन्न हुई अशुद्धि को मरणसूतक कहते हैं। मरणसूतक को पातक भी कहा जाता है ।
सूतक व मरणसूतक (पातक) का विवेक भोजनशुद्धि के प्रकरण में शास्त्रों में विशेष रूप से बताया गया है किन्तु वर्तमान में कुछ लोग इसको बिल्कुल भी नहीं मानना चाहते हैं, उन्हीं की मान्यता अज्ञानता के निवारण हेतु शास्त्रीय प्रमाणों के साथ लौकिक / व्यवहारिक रूप से मान्य विधान की प्रस्तुति की जा रही है।
भगवती आराधना की विजयोदयाटीका में लिखा गया है"मृतजातसूतकयुक्तगृहिजनेन दीयमाना वसतिर्दायकदुष्टा (230/444/20) जिसको मरणाशौच अथवा जननाशौच कहते हैं। यदि उसके द्वारा वसतिका दी गई हो तो वह दायक दोष से दुष्ट है। अशौच वाले व्यक्ति को वसतिका प्रदान करने का भी निषेध किया गया है।
यहाँ यह विचारणीय है कि जो साधु गृहस्थों के निवास स्थान/ मकान कोठी में निवास/ विश्राम/ चतुर्मास करते हैं, वे दायक दोष से कैसे बच सकते हैं। उनकी मानसिक शुद्धि कैसे रहे? हाँ प्रायश्चित्तसंग्रह में जिनका सूतक नहीं लगता उनके विषय में भी कहा गया है।
बालत्रयशूरत्वाज्वलनादि प्रदेशे दीक्षितैः ।
• अनशनप्रदेशेषु च मृतकानां खलु सूतकं नास्ति ॥1353 ॥ तीन दिन का बालक, युद्ध में मरण को प्राप्त, अग्नि आदि के द्वारा मरण को प्राप्त, जिनदीक्षित, अनशन करके
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन
मरण को प्राप्त व्यक्तियों का मरणसूतक नहीं लगता ।
यहाँ अग्नि आदि के द्वारा मरण को प्राप्त व्यक्ति से अर्थ उसका है, जो किसी अग्निकाण्ड में फंस गया हो अचानक बिजली गिरने से जिसकी मौत हो गई हो उसका मरणसूतक नहीं लगेगा किन्तु जिसने अग्नि में जलकर आत्मघात किया हो, उसका मरणसूतक अवश्य लगेगा।
अशौच वाले व्यक्ति को वसतिका प्रदान करने का भी निषेध किया गया है। सूतक न लगने के प्रकरण में जयसेन प्रतिष्ठापाठ से लिया गया है कि -
यद्वंश्यतीर्थंरबिम्बमुदीर्य संस्था मुख्या तदीयकुलगोत्रजनिप्रवेशात् । संवृत्तगोत्रचरण प्रतिपातयोगादाशौचमावहतुनोद्यभवप्रशस्तम्।। 258 ।।
जिस वंश वाला यजमान बिम्ब प्रतिष्ठा करा रहा हो, उसके वंश, कुल, गोत्र में उस दिवस से अशौच नहीं माना से यजमान के कुल में अशौच (सूतक-पातक) नहीं होता। जाता अर्थात् जिस दिन नान्दी अभिषेक हो गया हो उस दिन
प्रतिष्ठापाठ के इस कथन के आधार पर यजमान के परिवार को नान्दी अभिषेक के बाद सूतक, मरणसूतक (पातक) होने पर भी पूजा-विधान करने का अधिकार है। वर्तमान में जो प्रतिष्ठाचार्य अथवा साधुजन सूतक की संभावना वाले परिवार को नाला बांधकर परिवार या निजघर से बाहर रहने की आज्ञा (सलाह) देते हैं, उसकी आवश्यकता नहीं है । यहाँ जयसेन स्वामी का यह आशय रहा होगा कि नान्दी विधान के अनन्तर यजमान के अन्तर में रागद्वेष का शमन हो जाता है, जिससे मानसिक अशौच उत्पन्न नहीं होता। सांसारिक घटनाओं के कारण से धार्मिक क्रियाओं से वंचित नहीं करना चाहिए। भरत चक्रवर्ती पुत्रोत्पत्ति होने पर भी समवशरण में आदिनाथ महाप्रभु की पूजा करने जाता है, जिसका समाधान दिया जाता है कि तिरेसठ शलाका पुरुषों को सूतक एवं मरणसूतक (पातक) का दोष नहीं लगता।
उक्त व्यक्तियों से भिन्न जो गृहस्थ हैं, उन्हें सूतक मरणसूतक (पातक) का दोष अवश्य लगता है, क्योंकि मुनियों के आहारदान के प्रकरण में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मरणसूतक अथवा सूतक की अवस्था वाले यदि आहारदान देते हैं तो उसका क्या फल है? सूतक वालों को इसी के साथ जिनार्चा, देव-शास्त्र-गुरु के स्पर्श का भी
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निषेध समझना चाहिए।
करनी पड़ती है। उनके कारण उसके अत्यधिक जगप्सा आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने त्रिलोकसार में
होती है। मन मलिन होता है जिससे अशौच की उत्पत्ति होती कहा है
है। मूलाराधना की 646 गाथा टीका में जुगुप्सा दो प्रकार की
कही है। लौकिकी व लोकोत्तर/लोक व्यवहार शोधनार्थ सूतक दुब्भाव असुचिसूदगपुष्फवई जाइ संकरादीहिं।
आदि का निवारण करने के लिए जो लौकिकी जुगुप्सा की कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायते ॥924।।
जाती है वह छोड़ने योग्य है और परमार्थ या लोकोत्तर जुगुप्सा अर्थात् सूतककरि जो अपवित्र है। यदि ऐसा मनुष्य आहार
करने योग्य है। परमार्थ जुगुप्सा में विरक्ति का भाव रहता है। दान करे है तो वह कुमनुष्य विषै उपजे है।
अतः उसे करणीय बतलाया है। मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में दायक के दोषों का
| अशौच समय के साथ ही दर होता है अतः जन्म का कथन करते हुए कहा गया है-"मृतकं सूतकेन श्मशाने
सूतक और मरण का सूतक (पातक) दोष का निवारण परिक्षिप्यागतो यः स मृतक इत्युच्यते"।
सभी को करना चाहिए। जो परिवार के सदस्य के मरण के __ अर्थात् जो मृतक को श्मशान में जलाकर आया है, ऐसा | बाद तेरहवीं की प्रथा को एक-दो दिन में ही पूर्ण कर लिया मरणसूतक वाला आहार दान देने योग्य नहीं है। यही बात
| जाता है वह ठीक नहीं है क्योंकि उससे संवेदनाएँ भी शून्य पण्डित आशाधर जी ने भी लिखी है कि शव को श्मशान में | होती जाती हैं। हाँ तेरहवीं तक रोना/शोक करना आदि न छोड़कर आये हुये मरण सूतक से युक्त पुरुषों द्वारा दत्त | कर धार्मिक चर्चाएँ होना चाहिए। रिश्तेदार और कुटुम्बी आहारदायक दोष से दूषित समझना चाहिए। और जिसके जनों के आवागमन काल में संसार की असारता का वातावरण सन्तान उत्पन्न हुई हो उससे भी आहार ग्रहण नहीं करना बनाया जाए, जो पापभीरू बनाएगा। इससे आंतरिक विशुद्धि चाहिए। मोक्षपाहड की टीका में कहा गया है कि दरिद्री और | बढ़ती है। एक-दो-तीन दिन में तेरहवीं पर संसार के रागसतकवाली स्त्री के घर का विशेष रूप से आहार ग्रहण न | रंग में पर्ववत ही फंस जाते हैं। यदि काल की मर्यादा का करें। श्रावकों के लिए भी कहा गया है कि अणुव्रती श्रावकों | लाभ न होता तो आचार्यों को लिखने की क्या आवश्यकता को अपने भोजन की शुद्धि बनाये रखने के लिए सूतक | थी? इन शास्त्रों में शद्धि का जो काल बताया है उसे भी अब मरणसूतक (पातक) वाले व्यक्ति के घर का भोजन त्याग
दर्शाया जा रहा है। श्रावक की तिरेपन क्रियाओं में भी शुद्धि करना चाहिए। अर्थात् सूतक-पातक वाले व्यक्तियों के घर
के घर के काल का प्रसंग आ जाता है। आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए।
आचार्य जिनसेन ने गर्भान्वय क्रियाओं के वर्णन प्रसंग में ___ उक्त उल्लेखों/शास्त्रीय प्रमाणों को पढ़कर/सुनकर भी | बहिर्यान क्रिया को बताते हुए लिखा हैकुछ लोग सूतक,मरणसूतक (पातक) काल की अशुद्धि
बहिर्यानं ततो द्वित्रैः मासैस्त्रिचतुरैरुत। को न मानकर धार्मिक क्रियाएं करते हैं अथवा शास्त्रोक्त
यथानुकूल मिष्टऽह्वि कार्यतूर्यादिमंगलैः ।।१०।। वार्ता का निषेध करते हैं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि निम्न तथ्य अवश्य समझें कि जिस मकान/घर में
ततः प्रमृत्यभीष्टं हि शिशोः प्रसववेश्मनः। किसी का जन्म या मृत्यु होती है, वहाँ रोग, शोक की उत्पत्ति
बहिः प्रणयनं माता धात्र्युत्सड्गगस्य वा॥91।। निश्चित होती है और उसके कारण, अपवित्रता व्याप्त हो | तदनंतर (प्रसूति के) दो-तीन अथवा तीन-चार माह के जाती है जो स्नान, वस्त्र/मकान धोने से दूर न होकर यथाकाल | बाद किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजों के साथदूर होती है। बालक जब जन्मता है तो उसके साथ माता के | साथ अपनी अनुकूलता के अनुसार बहिर्यान क्रिया करनी उदर से जेर की जो उत्पत्ति होती है, उसमें अनंत जीवों का | चाहिए। जिस दिन यह क्रिया की जाए उसी दिन से माता वास होता है, उसे भूमि में गड़वाने से असंख्यात जीवों की | अथवा धाय की गोद में बैठे हुए बालक का प्रसूति गृह से हिंसा का दोष लगता है। उस पाप के कारण भी विशेष | बाहर ले जाना सम्मत है। अशौच होता है। इसी प्रकार मृतक के शरीर को अग्निदाह वर्ण भेद की अपेक्षा सूतक, मरणसूतक (पातक) की कराने से उस शरीराश्रित अनंत जीवों की हिंसा का भी दोष | अवधि पर विचार किया गया है। ब्राह्मण पाँच दिन में, लगता है। श्रावक को उक्त दोनों क्रियाएँ आवश्यक रूप से क्षत्रिय दस दिन में, वैश्य बारह दिन में और शूद्र पंद्रह दिनों
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में पातक के दोष से शुद्ध होते हैं।
अशौच का जो काल लोक व्यवहार में प्रचलित वह भी दृष्टव्य हैअवसर जन्म
मरण गर्भपात
अशुद्धि 3 पीढी 10 दिन
12 दिन 3 मास के गर्भपात बाद 3 दिन
जितने माह का गर्भपात हो 4 पीढ़ी 10 दिन
10 दिन 5 पीढ़ी 6 दिन
6 दिन 6 पीढ़ी 4 दिन 4 दिन
उतने दिन 7 पीढ़ी 3 दिन 3 दिन
का दोष 8 पीढ़ी 8 प्रहर 4 प्रहर यदि घर का
घर वालों 9 पीढ़ी 2 प्रहर
2 प्रहर सदस्य परदेस को सूचना मिलने पुत्री, दासी, दास,
3 दिन में मरण को प्राप्त हो के बाद पीढ़ी के अपने घर में गाय
अनुसार 6 माह भैंसें 1 दिन
1 दिन
अपघात मृत्यु अनाचारी स्त्री सदा अशुचि
सदा अशुचि सूतक पातक शुद्धिकाल चक्र- इसके अतिरिक्त रजस्वला स्त्री के स्पर्श को भी दोष बताया गया है। उसके द्वारा यदि पात्र को आहार दिया जाता है तो वह पुष्पवती स्त्री कुयोनि की पात्र बनती है। इसके स्पर्श होने पर भोजन छोड़ने का कथन श्रावकों के लिए भी है। इसी कारण इनकी शुद्धि के काल की चर्चा महापुराण में की है। चतुर्थ स्नान के द्वारा शुद्ध हुई स्त्री अरहंत देव की पूजा कर सकती है और गार्हस्थ्य सम्बन्धी कार्यों में प्रवृत्त हो सकती है।
उक्त विवेचन के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि संस्कारों की पवित्रता रखने के लिए सूतक पातक सम्बन्धी काल मर्यादा का पालन अवश्य करना चाहिए। संदर्भ 1. शवादिनापि .................... दत्तं दायकदोषमा 5/34 अनगार धर्मामृत 2. मोक्षपाहुड गा. 48 टीका पृ. 112 3. लाटी संहिता 5/251 4. ब्राह्मणक्षत्रियविड्' शूद्रादिदिनैः शुद्ध्ययन्ति पञ्चभिः ।
दश-द्वादशभिः पञ्चादश वा संख्याप्रयोगतः ।।53 ।। प्रायश्चितसंग्रह 5. सागार धर्मामृत 4/70 6. महापुराण 38 /70
नवग्रह भगवान के सेवक हैं श्री दिगम्बर जैन संघी जी मंदिर अतिशय क्षेत्र, सांगानेर, जयपुर से, कौन दिगम्बर जैन धर्मानुयायी अपरिचित है। यह भव्य जिनालय लगभग 1000 वर्ष प्राचीन और 7 मंजिला है। जिसमें 4 मंजिल जमीन के अंदर हैं। यह मंदिर पत्थर की नक्काशी के लिये विश्व प्रसिद्ध है। प्रतिदिन बहुसंख्या में देशी एवं विदेशी पर्यटक लोग, इस जिनालय के दर्शन हेतु पधारते हैं। इस मंदिर में विराजमान जिनबिम्ब भी अत्यन्त मनोहारी एवं दिव्य हैं। उन्हीं जिनबिम्बों में से, यह एक 'चौबीसी' को प्रदर्शित करने वाला जिनबिम्ब है, जो लगभग 3 फुट ऊँचा एवं सफेद मार्बल का है। इसकी एक
प्रमुख विशेषता यह भी है कि इसमें सबसे नीचे 9 धड दिखाए हए हैं, जो इस बात का प्रतीक है कि सभी ग्रह भगवान के सेवक हैं अथवा जिनेन्द्र भगवान का स्तवन करने से नवग्रह कृत दोष स्वमेव शान्त हो जाते हैं।
पं. रतनलाल बैनाड़ा मार्च 2006 जिनभाषित / 19
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पावन-स्मृति
परम पूज्य गुरुदेव 108 श्री समन्तभद्र जी महाराज
डॉ. ज्योति जैन 'खतौली'
जैनधर्म, साहित्य और संस्कृति के विकास में संपूर्ण | पथ पर चलते हुए 1952 में मुनि दीक्षा ली। वे जीवन भर दक्षिण भारत की गौरवशाली परम्परा रही है। राजवंशों, मंदिरों, | अपने पद के प्रति सावधान रहे और मुनि पद के अनुकूल मंदिर निर्माताओं, आगम ग्रंथों, आगम ग्रंथों के लेखकों | चर्या में संलग्न रहे। ज्ञान, ध्यान, तप में लीन महाराज जी ने लिपिकारों,श्रेष्ठियों और श्रावकों ने जो योगदान दिया वह | लगभग सभी प्रमुख आगम ग्रंथों का पठन-पाठन स्वाध्याय स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। भगवान बाहुबली की | एवं चिंतन-मनन किया, स्वयं पढ़ते और दूसरों को भी पढ़ने विश्व प्रसिद्ध प्रतिमा, श्रवणबेलगोला एवं दक्षिणभारत के | की प्रेरणा देते थे। जैन ग्रंथों के साथ उन्होंने स्वामी विवेकानंद, अन्य शिलालेख दक्षिणापथ के इतिहास को सुरक्षित/संजोए | स्वामी रामतीर्थ के वाङ्गमय का अध्ययन भी किया। जैन रखे है। प्राकृत एवं संस्कृत भाषा को साथ लिये स्थानीय | धर्म के सिद्धान्तों की प्रभावना एवं संरक्षण में अपना सारा भाषा को जो संरक्षण यहाँ मिला वह बेजोड़ है। मूल दिगम्बर | जीवन लगा दिया। अच्छा वक्ता बनने या भाषणबाजी की जैन आगम सुरक्षित रखने में दक्षिण का विशिष्ट योगदान | निपुणता या श्रेष्ठ प्रवचनकार बनने की लालसा उन्हें कभी रहा है। इन सभी धरोहरों के साथ 20 वीं शताब्दी में गुरुकुल नहीं रही। ख्याति नाम से दूर रहकर त्याग-संयम के नियम परम्परा को दक्षिण में एक सुदृढ़ आधार प्रदान करने वाले | को साथ लिये स्वपर कल्याण में लगे रहे ऐसे निस्पृही साधु पूज्य मुनि श्री समन्तभद्र महाराज का भी विशेष योगदान है। | आज के समय में दुर्लभ हैं। गुरुकुलों के माध्यम से दक्षिण भारत में ज्ञान का जो आलोक | पूज्य समन्तभद्र जी महाराज ने जब समाज की ओर फैलाया उससे आज भी संपूर्ण दक्षिण भारत प्रकाशवान है। | दृष्टि डाली तो उनके सामने मुख्य समस्या थी कि जैनों को
एक कुशल शिल्पी की भांति अपनी योजनाओं को | जैन' कैसे बनाये रखें। दक्षिणभारत में जैनधर्म एवं संस्कृति मर्तरूप देने वाले. बहमखी प्रतिभा के धनी, देवचंद से | में विसंगतियां आती जा रही थीं. संस्कारों का लोप होता जा समन्दभद्र महाराज तक की यात्रा करने वाले पूज्य समन्त | रहा था। इन सबको कैसे फिर से जीवित करें ? कैसे अपने भद्र जी महाराज की कर्मठता उनकी जैनधर्म संस्कृति के | गौरवशाली इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को बचायें ? प्रति गहन निष्ठा को व्यक्त करती है। उन्होंने अपनी योजनाओं | व्यक्तियों और संस्थाओं को कैसे जोडें ? भोगवादी संस्कृति को एक लघ बीज के रूप में बोकर विशाल वटवृक्ष के रूप | से यवा पीढी धर्म-संस्कृति से दर होती जा रही है, कैसे उसे में साकार किया।
दिशा दें ? खानपान प्रदूषण से लेकर वैचारिक प्रदूषण तक विद्यार्थी जीवन से ही उनके मन में देशसेवा व समाज | कैसे बचें ? जीवनचर्या कैसे व्यवस्थित बने ? आदि प्रश्न सेवा के भाव उभरते रहते थे। आजादी के आंदोलन के | उनके मन में सदैव घुमडते रहते थे और इन सबका समाधान समय उनकी राष्ट्रीयता की भावना बलवती हो गयी। वे | उन्हें गुरुकुल परम्परा में दिखा। फलतः उन्होंने कार्यकारी सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी पं.अर्जुनलाल सेठी के विद्यालय में | योजना बनाकर गुरुकुलों की स्थापना का महनीय कार्य किया पढने जयपुर आये पर उनका विचार था कि देश की सेवा | और धर्म एवं संस्कृति के मूल्यों को गुरुकुलों के द्वारा ही हिंसात्मक तरीके से नहीं वरन् अहिंसात्मक ढंग से करनी | स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने इस बात पर सदैव चाहिए। उनके क्रांतिकारी साथियों में से एक मोतीचंद को | बल दिया कि अध्यात्म तो मुख्य है पर व्यवहारिक धर्मएक केस में फांसी की सजा भी हुई थी। वे जयपुर से अपनी | क्रिया, संस्कार भी जीवन में बहुत आवश्यक हैं। सामान्य पढ़ाई पूरी कर आगे की पढ़ाई के लिये अपने मित्र बालचंद | जन सिद्धान्तों के कथन को नहीं पकड़ पाते हैं। व्यवहारिक के साथ बंबई आ गये। शिक्षा पूरी करके उन्होंने समाज सेवा | नियमों के माध्यम से, चर्चा के माध्यम से इन्हें आसानी से का मार्ग चुना और सच्चरित्र नागरिकों के निर्माण में लग गये। समझाया जा सकता है।
आत्मस्वातंत्र्य की भावना भाते हुए उन्होंने ब्रह्मचर्य | उत्तरभारत में लगभग उन्हीं दिनों वर्णी जी के प्रभाव व्रत धारण किया। 1934 में क्षुल्लक दीक्षा ली और संयम | से अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई थी। वाराणसी में 20/मार्च 2006 जिनभाषित
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श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, सागर, मुरैना आदि जगहों पर | प्रायः सभी ब्रह्मचारी थे। विद्वान्, संस्कारवान एवं कार्यदक्ष विद्यालयों की स्थापना हुई। इनके माध्यम से धर्म के प्रति | लोगों की एक ऐसी टीम तैयार की जिन्होंने धर्म एवं संस्कृति जागरूकता तो आयी ही जैन पण्डित परम्परा को भी एक | को जीवंतता प्रदान की और गुरुकुलों को विकास की ऊँचाईयों दिशा मिली। दक्षिण भारत के विद्यार्थी भी इन्हीं विद्यालयों में | तक पहुँचाया। आज अनेक विद्यार्थी इन गुरुकुलों में शिक्षा ज्ञान अर्जन करने आते रहे। गुरुवर समन्तभद्र जी महाराज ने प्राप्त कर अपने व्यवसाय के साथ-साथ जैनधर्म संस्कृति के दक्षिण भारत में ज्ञान की अलख जगा दी। सन् 1918 में संरक्षण का महान् कार्य कर रहे हैं। दक्षिणभारत में एक कारंजा में गुरुकुल की स्थापना की। इसके बाद तो प्रकाश प्रबुद्ध वर्ग स्थापित करने में इन गुरुकुलों का बड़ा योगदान स्तम्भ के रूप में एक के बाद एक गुरुकुल खुलते गये। रहा है। किसी ने सच ही कहा था कि 'महाराज जी को कारंजा श्राविकाश्रम, बाहबली कम्भोज,स्तवनिधि,शोलापुर, गुरुकुलों का गुरुकुल कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।' कारकल, खुरई, वेल्लाद, वागेवाड़ी, तरदेल, एलोरा आदि| दक्षिणभारत में फैले जैन मंदिरों के संरक्षण एवं सुरक्षा प्रमुख हैं। उन्होंने कुम्भोज बाहुबली को केन्द्र बनाकर दक्षिण | की परम आवश्यकता है। इस कार्य के लिये भी महाराज जी भारत के सभी गुरुकुलों में जैनधर्म एवं संस्कृति की अलख ने समाज का एवं विभिन्न संगठनों का ध्यान आकर्षित जगा दी। महाराज जी की दृढ़ संकल्प शक्ति और अद्भुत | किया, उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि दिगम्बर कार्यशैली से गुरुकुलों की स्थापना एवं विकास में सफलता | संस्कृति की धरोहर, इन तीर्थों की सुरक्षा में ही हमारी धर्म मिली। समाज ने भी उदारत र्ण सहयोग दिया। सभी संस्कृति जीवित रहेगी। तीर्थक्षेत्रों की सुरक्षा एवं विकास हेतु वर्गों का समर्थन मिला। गुरुकुल विकास पथ पर चल पडे| चलाया अभियान उन्होंने जीवन के अंत तक निभाया और और चल पड़ी जैनधर्म संस्कृति के संरक्षण की योजनायें। | अनेक विवादास्पद तीर्थों को बचाया।
पूज्य महाराज जी जहाँ अपनी निर्दोष व नियमपूर्वक आपसी लड़ाई और गुटबाजी से धर्म-संस्कृति कमजोर चर्या के लिये विख्यात थे वहीं बच्चों के संस्कार निर्माण में | पडती है। महाराज जी सदैव इस बात पर बल देते थे कि एक कुशल शिल्पी के रूप में भी विख्यात रहे। बच्चों की | जैन समाज को परस्पर मतभेदों को भुलाना चाहिए। धार्मिक कक्षा स्वयं लेते थे। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक योजनाओं पूज्य गुरुवर के व्यक्तित्व व कृतित्व को देखें तो को उन्होंने साकार किया। महाराज जी में कार्य करने की | प्रतीत होता है कि नियम-संयम के पथ पर चलते हुए उन्होंने अद्भुत क्षमता थी स्वयं शिक्षित होने के कारण कभी रूढ़ियों | एक ऊर्जापूर्ण ढंग से न केवल अपनी योजनाओं पर कार्य में नहीं जकड़े। उन्होंने नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक किया बल्कि समाज को भी एक दिशा दी। विचारणीय है मूल्यों को गुरुकुलों के माध्यम से स्थापित करने का भागीरथी | कि आज हम सब इस दिशा में कितना चल पा रहे हैं। कुछ प्रयत्न किया। महाराज जी ने इस बात पर भी चिंतन किया | गुरुकुलों को छोड़ दें तो अन्य के प्रति समाज की उदासीनता कि समाज सेवा के क्षेत्र में समर्पित कार्य-कर्ताओं का अभाव | देखी जा सकती है। संस्कारों, तीर्थरक्षा, संस्कृति-संरक्षण सा रहता है और जहाँ कहीं भी समर्पित लोगों ने कार्य हाथ में | की बात करें तो योजनायें, भाषण व लेख आदि ही दिखाई दे लिया उन्हें सफलता मिली है। अतः उन्होंने व्यक्तियों और रहे हैं। अतः आवश्यकता है आज पुनः चिन्तन मनन और संस्थाओं को जोडा और समर्पित कार्यकर्ता तैयार किये, जो | विचार की ताकि समाज को एक दिशा मिले।
मुनि को आहार में देने योग्य शुद्ध गुड़
बनाने की विधि गन्ने के रस को एक पतीली या कडाई में उबालने रखें। उबलने पर एक चम्मच दूध डालकर, ऊपर से मैल निकालकर गुड़ को साफ कर लें। इसके बाद उसमें दो चम्मच शुद्ध घी डाल दें। जब गुड़ की चासनी खूब गाढी हो जाये तब कढाही नीचे उतारकर उसे ठण्डा होने तक चम्मच से चलाते रहें। इस तरह शुद्ध गुड बन जायेगा।
प्रस्तुति - सरिता जैन, नन्दुरवार
शाहपुरा, भोपाल में कलशारोहण
परमपूज्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शुभाशीष एवं पूज्य मुनि श्री चिन्मयसागर जी महाराज के पावन सानिध्य में प्रतिष्ठाचार्य बा. ब्र. अनिल जी भोपाल के | निर्देशन में दिनांक 11 एवं 12 फरवरी 2006 को श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मंदिर, शाहपुरा, भोपाल के शिखर पर कलशारोहण महोत्सव सानंद सम्पन्न हुआ।
सन्तोष कुमार जैन, सचिव
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साहित्याचार्य जी की साहित्य-साधना
डॉ. राजेश जैन भाषाओं की जननी संस्कृत के तपोनिष्ठ साहित्य मनीषी | देखकर भारत के नवरत्न-पारखी, भारतरत्न राष्ट्रपति डॉ. डॉ. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य का लेखन जैनधर्म पर आधारित | राजेन्द्रप्रसाद जी आश्चर्यचकित रह गये थे। न केवल संस्कृत धार्मिक ग्रन्थों एवं पुस्तकों के रूप में ही मुख्यतः रहा, परन्तु | साहित्य, विविध दार्शनिक चिन्तन, विचारधारा का तुलनात्मक पंडित जी का साहित्य सृजन ही समूचे संस्कृत साहित्य के | अध्येता इतना सीधा-सादा और प्रचार की दुनियाँ से दूर लिये अमूल्य धरोहर है। पंडित जी के समृद्ध रचना संसार | कैसे ? अपने करकमलों में समर्पित ग्रन्थों के ढेर को देखकर से संस्कृत की सत्ता स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है। उनमें से एक को छांटकर विद्या-विशारद डॉ. राजेन्द्रप्रसाद आज जब संस्कृत के साधकों की निरंतर कमी हो रही है तो | जी ने धड़ाघड़ प्रश्नों की बौछार लगा दी। जैसे मानस राजहंस पंडित जी का संस्कृत साहित्य ऐसे में और भी उपयोगी है। नीर-क्षीर-विवेक की शक्ति सार्थक कर रहा हो और पंडित संस्कृत भाषा के ज्ञान एवं प्रचार-प्रसार के लिहाज से तो | साहित्याचार्य जी ने तड़ातड़ प्रश्नोत्तर देना प्रारम्भ कर दिया पंडित जी का साहित्य लेखन मील का पत्थर साबित हो | जैसे कोई डी.लिट कराने वाला निर्देशक बोल रहा है। राष्ट्रपति सकता है। संस्कृत के लिये काम करने वालों को चाहिये । महोदय ने अपने गले लगाकर संस्कृत के प्रति, संस्कृत कि वे पंडित जी द्वारा रचित साहित्य का अध्ययन अवश्य करें। | साहित्य के प्रति, संस्कृत साहित्य सेवा मनीषी के प्रति __सरस्वती आराधक, कुशल लेखक, प्रभावी प्रवक्ता, विवाद | अपने सौजन्य का परिचय दिया। रहित विद्वत्ता के संगम स्व. साहित्याचार्य जी(05.03.1911- | साहित्याचार्य डॉ. पन्नालाल जी विरचित 'चिन्तामणि-त्रय 09.03.2001) मध्यप्रदेश सागर जिले के पारगुवां ग्राम के | का समीक्षात्मक अध्ययन' शीर्षक विषय पर डॉ. हरीसिंह स्व. श्री गल्लीलाल-स्व.श्रीमती जानकी बाई की संतान एक | गौर विश्वविद्यालय सागर के द्वारा पीएच.डी. की उपाधि के ऐसे दैदीप्यमान रत्न थे जिन्होंने अपनी लेखनी विद्वत्ता से | अतिरिक्त देश में अनेक जगह पंडितजी को सम्मानित किया। जैनागम को सरल भाषा में जन-जन पहँचाने में महती भूमिका | सन् 19960 में जीवन्धर चम्पू पर मध्यप्रदेश शासन साहित्य का निर्वाह किया।
परिषद् की ओर से मित्र पुरस्कार, 1974 में गद्यचिन्तामणि __पूज्य संत गणेश प्रसाद जी वर्णी की प्रेरणा से सन् 1931 | पर अखिल भारतीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् के तत्त्वावधान में जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में साहित्य अध्यापक के | में भारतीयज्ञानपीठ द्वारा गणेशप्रसादवर्णी पुरस्कार, 1974 में रूप में कार्य प्रारंभ कर दिया तब से अनवरत शिक्षक एवं | श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति इन्दौर ने पुरुदेव चम्पू सन् 1977 से 1983 तक प्राचार्य रहे। अपनी वृद्धावस्था के | ग्रन्थ पर आपको सम्मानित एवं पुरस्कृत किया। जैनविद्या कारण प्राचार्य पद से मुक्त होकर शेष जीवन पर्यन्त अपनी | संस्थान ने 1983 के महावरी पुरस्कार के लिये सम्यक्त्व सेवाएं वर्णी गुरुकुल जबलपुर को देते रहे।
चिन्तामणि को चुना है। इस प्रकार पंडित जी द्वारा सम्पादित ___पंडित जी ने अपने जीवन में जितनी साहित्यिक सेवा | साहित्य का समादर हुआ। पंडित जी की विद्वत्ता से प्रभावित की और उनकी सेवाओं का जितना सम्मान सामाजिक और | होकर भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री बी.बी.गिरि ने सन् राष्ट्रीय स्तर पर किया गया उनकी क्षमता का कोई व्यक्ति ] 1969 में आदर्श शिक्षक के रूप में राष्ट्रीय पुरस्कार से दशाब्दियों में दृष्टिगोचर नहीं होता है। पंडित जी की मौलिक सम्मानित किया है। 1973 में विद्वत् परिषद् ने पंडित जी की रचनाओं में सम्यक्त्वचिंतामणि, सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, सम्यक् सेवाओं के फलस्वरूप सम्मानित कर रजत पट्ट पर प्रशस्ति चारित्रगद्यचिन्तामणि, जीवन्धर चम्पू, वर्णीग्रन्थमाला, | प्रदान की है। इसके अतिरिक्त प्रदेश स्तर पर सार्वजनिक क्षत्रचूड़ालंकार, अनुवादित ग्रन्थ आदिपुराण, उत्तरपुराण, | संस्थाओं-संगठनों तथा सामाजिक अखिल भारतीय स्तर तक पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, स्नकरण्डकश्रावकाचार इत्यादि प्रमुख हैं। की संस्थाओं ने पंडित जी की सेवाओं का मूल्यांकन कर संस्कृत साहित्य की सेवा एवं संस्कृत शिक्षा के क्षेत्र में | उन्हें सम्मानित किया है।
स से भी अधिक वर्षों से संलग्न, संस्कृत के | अपनी अंतिम इच्छा के अनुरूप आचार्य श्री विद्यासागर उद्भट विद्वान् तथा साहित्य-मनीषी पंडित जी, संस्कृत ] जी महाराज के (कुण्डलपुर गजरथ के समय) चरणों में देह जगत् के वह दैदीप्यमान रत्न हैं। जिनकी साहित्य सेवा को | त्यागी। 22 / मार्च 2006 जिनभाषित
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फल, साग की सही प्रासुक विधि एवं सावधानियाँ
पं. राजकुमार जैन 1. संयमी या व्रती किसी भी वनस्पति को या तो रस के | इनके बीच में त्रस जीव रह सकते हैं।
रूप में, साग के रूप में, शेक (गाढ़ा रस) के रूप में, | 9. किसी भी फल का बीज प्रासुक नहीं हो पाता है, चटनी के रूप में लेते हैं। फल के रूप में जैसे गृहस्थ | इसलिए आहार में बीज निकालकर ही सामग्री चलाएं। लेते हैं, वैसे नहीं लेते।
चाहे सब्जी, फल, रस, चटनी आदि कुछ भी हो। 2. फलों को जैसे नाशपाती, सेव, केला, अंगूर, आलूबुखारा, | 10. आयुर्वेद शास्त्र का भी कहना है कि अग्निपक्व, जल अमरूद को 50 या 100 ग्राम जल (वस्तु मात्रानुसार)
और साग-सब्जी अधिक जल्दी हजम हो जाती है एवं में फलों के टुकड़े बनाकर कढ़ाही में डालकर कटोरे वात, पित्त, कफ का प्रकोप न होने से शरीर निरोग आदि से ढंककर 5-10 मिनट उबालने से भाप के द्वारा | रहता है। अंदर बाहर प्रासुक हो जाएंगे।
| 11. ड्राईफ्रूट जैसे-काजू, बादाम, पिस्ता, मूंगफली के दो 3. प्रासुक वस्तु का स्पर्श, रस, गंध, वर्ण बदलना चाहिए। भाग करके एवं मुनक्का को बीज रहित करके दें।
एवं लौकी की सब्जी जैसे मुलायम हो जाए तभी सही | 12. किसमिस, मुनक्का को जल में गलाने से उनके तत्त्व प्रासुक मानी जाती है, क्योंकि साधु अधपका हुआ नहीं निकल जाते हैं या तो गलाएं नहीं, यदि गलाएं तो लेते हैं, कारण कि अंगुल के असंख्यातवें भाग में जीव उसका जल अवश्य चलाएं। रहते हैं।
13. घुना अन्न जैसे-चना, बटरा (मटर), मूंग, उड़द आदि 4. लौकी, परवल, करेला, गिलकी, टिंडा आदि की साग | तथा बरसात में फफूंदी लगी वस्तु अभक्ष्य ही होती है।
बनाई जाती है, जो उबालने, तलने से प्रासुक होती है। दही, छाछ के साथ दो दल वाले मूंग, उड़द, चना, 5. बीज निकालकर चटनी बनाने से भी प्रासुक हो जाते | अरहर आदि जिनका आटा बन जाता है, वे द्विदल हो
हैं। लेकिन ज्यादा बड़े-बड़े टुकड़े नहीं रहना चाहिए। जाते हैं, जो अभक्ष्य हैं। दही, छाछ के साथ दो दल यदि उबालकर चटनी बांटते हैं तो टुकड़े भी प्रासुक वाले जिनमें तेल निकलता है। जैसे-मूंगफली, बादाम रहेंगे। जैसे- टमाटर, कैंथा, अमरूद आदि बीज वाली | आदि द्विदल नहीं होते। साग।
14. नमक बाँटकर जल में उबालने से ही सही प्रासुक होता 6. खरबूजा, पपीता, पका आम, चीकू, इनको छिलका है। लेकिन बाँटकर गरम कर लेने पर भी प्रासुक मान
तथा बीज अलग करके शेक (मिक्सी से फेंटकर) लेते हैं। साधुओं को दोनों तरह का नमक अलगबना लें, लेकिन इसमें कोई टुकड़ा नहीं रहे। वह टुकड़ा अलग कटोरी में दिखाएं। अप्रासुक माना जाता है।
15. कच्चे गीले नारियल को घिसकर बुरादा बनने के बाद 7. नीबू, मौसम्मी के दाने अप्रासुक होते हैं, अतः उन्हें गर्म | गर्म करके बाँटकर चटनी बनाने से ही प्रासुक होता है।
न करें। बल्कि रस निकालें वही प्रासुक है अनार, 16. भोजन सामग्री को दूसरी बार गर्म करना, कम पकाना मौसम्मी, संतरा, अनानास, नारियल, सेव, ककड़ी, लौकी (कच्चा रह जाना) ज्यादा पकाना (जल जाना) यह आदि का रस प्रासुक हो ही जाता है। रस निकालते द्विपक्वाहार कहलाता है। यह साधु के लेने योग्य नहीं समय हाथ के घर्षण से प्रासुक हो जाता है। सभी रस होता है तथा आयुर्वेद में भी ऐसे भोजन को विषवर्धक काँच के बर्तन, शीशी आदि में रखें, नहीं तो करीब 30 माना गया है। चौकों में रोटी कच्ची रहती है तो उससे मिनिट बाद से विकृत (खराब) होने की संभावना पेट में गैस बनती है, ध्यान रखें। रहती है।
17. सब्जी वगैरह में अधिक मात्रा में लालमिर्च का प्रयोग 8. कच्ची मूंगफली, चना, मक्का, ज्वार, मटर आदि जल नहीं करें, अलग से रखें क्योंकि भोजन में अधिक मिर्च
में उबालकर या सेंककर प्रासुक करें तथा सूखी मूंगफली, होने पर साधु को पेट में जलन हो सकती है। उड़द, मूंग, चना आदि को साबुत नहीं बनाएं क्योंकि | 18. आहार सामग्री सूर्योदय से दो घड़ी पश्चात् तथा सूर्यास्त
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से दो घड़ी पूर्व के बीच ही दिन में बनाएं। अंधेरे में या | दूध का हो, तो साधु को सुपाच्य रहता है।) छाँछ बनाते रात्रि में बनाने से अभक्ष्य हो जाएगी।
समय उसमें घी नहीं रहे। ऐसी छाँछ अच्छी मानी जाती 19. जो साधु यदि बूरा या गड नहीं लेते तो उनके लिए
छुहारे का पाउडर या चटनी सामग्री में मिलाकर भी दे | घ. घृत शुद्धि- शुद्ध दही से निकले मक्खन को तत्काल सकते हैं।
अग्नि पर रखकर गर्म करके घृत तैयार करना चाहिए। 20. जीरे आदि मसाले खड़े नहीं डालें, अलग से पिसें, इसमें से जलीय अंश पूर्ण निकल जाना चाहिए। यदि
सिके ही डालें साग में पहले से डालने से जल जाते हैं घी में जल का अंश रहा, तो चौबीस घंटे के बाद एवं सुपाच्य भी नहीं होते एवं पेट में गैस बनाते हैं। अमर्यादित हो जाता है। मक्खन को तत्काल गर्म कर आहार सामग्री की शुद्धि भी आवश्यक
लेना चाहिए, जिससे जीवोत्पत्ति नहीं होती। इसी प्रकार क. जल शुद्धि- 1. कुएँ में जीवानी डालने के लिए कड़े मलाई को भी तुरंत गर्म करके घी निकालना चाहिए।
वाली बाल्टी का ही प्रयोग करें एवं जल जिस कुएं कई लोग तीन-चार दिन की मलाई इकट्ठी हो जाने पर आदि से भरा है, जीवानी भी उसी कुएँ में धीरे-धीरे गर्म करके घी निकालते हैं, वह घी अमर्यादित ही माना छोड़ें। कड़े वाली बाल्टी जब पानी की सतह के करीब जाएगा। वह साधु को देने योग्य नहीं है। घी घर पर ही पहुँच जावे, तब धीरे से रस्सी को झटका दें। ताकि बनाएं बाजार का शोध का घी कदापि उपयोग न करें। जलगत जीवों को पीड़ा न हो।
गुड़ की शुद्धि- आजकल चौकों में बाजार का गुड़ 2. जब भी चौके में जल छाने, तो एक बर्तन में जीवानी छानकर उपयोग में लाते हैं, वह अशुद्ध रहता है। इसलिए
रख लें और जब जल भरने जाएं तो कुएँ में जीवानी कई क्षेत्रों में शुद्ध गुड़ बनता है। वह गुड़ मंगवाकर छोड़ दें।
उपयोग में लेना चाहिए। 3. पानी छानने का छन्ना 36 इंच लंबा और 24 इंच चौड़ा
श्रावकों को सझाव- बाजार में गन्ने के रस की हो तथा जिसमें सूर्य का प्रकाश न दिख सके और छन्ना दुकान पर प्रासुक जल से मशीन धुलवाकर और गन्नों सफेद हो तथा गंदा एवं फटा न हो।
का संशोधन करके ज्यादा मात्रा में रस निकलवाकर घर 4. जीवानी डालने के बाद छन्ने को बाहर सूखी जगह में पर ही गुड़ बनाना चाहिए। गन्ने के रस का गाढ़ा सीरा
निचोड़ देवें, कभी बाल्टी में न निचोड़ें क्योंकि बाल्टी | बनाकर यह सीरा भी सीधा सामग्री में मिलाकर चला में निचोड़ने से जीवानी के सारे जीव मर जाएंगे।
सकते हैं। यह सीरा चूंकि गाढ़ा हो जाता है, इसलिए 5. कुएँ का पानी (सोले का) प्लास्टिक की बाल्टी में न हरी में भी नहीं आएगा। यह सीरा जो बूरा नहीं लेते हैं रखें।
और मीठे का त्याग नहीं है, वे भी ले सकते हैं। 6. आहार के योग्य, जल के साधन- कुएँ का, बहती
आहार ही औषधि नदी का, झरने का, व्यवस्थित कुण्ड/बावड़ी का, चौड़ी| 1. आहार के बाद जब साधु अंजुलि छोड़ने के बाद कुल्ला बोरिंग जिसमें जीवानी नीचे तक पहँच जावे. छत पर करें तो उन्हें लौंग, हल्दी, नमक, माजूफल, शुद्ध सरसों वर्षा का जल, हौज में इकट्ठा करके चना आदि डालने का तेल, शुद्ध मंजन, अमृतधारा, नीबू का रस आदि पर भी चौके के लिए उपयोग कर सकते हैं।
अवश्य दें। ख. दुग्ध शुद्धि- स्वच्छ बर्तन में प्रासुक जल से गाय, भैंस | 2. गेहूं और चना की बराबर मात्रा वाले आटे की रोटी में
के थनों को धोकर, पोंछकर दूध दुहना चाहिए और अच्छी मात्रा में घी मिलाकर देने से तथा सादा रोटी दुहने के पश्चात् छन्ने से छानकर (प्लास्टिक की छन्नी चोकर सहित देने से स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होती से न छानें)। उसे 48 मिनिट में गर्म कर लेना चाहिए। अन्यथा जिस गाय, भैंस का दूध रहता है, उसी के | 3. एक जग पानी में अजवाइन डालकर उबाला हुआ पानी आकार के संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं।
जब साधु जल लेते हैं उसकी जगह चलाने से गैस के ग. दही शुद्धि- उबले दूध को ठंडा करके बादाम या | रोगों में आराम मिलता है।
नारियल की नरेटी का एक छोटा टुकड़ा धोकर उसमें | 4. आहार के अंत में सौंफ, लौंग, अजवाइन और नमक,
डाल दें, जिससे दही जम जाता है। (यदि दही गाय के सौंठ, हल्दी तथा गुड़ की डली, नींबू का रस अवश्य 24/मार्च 2006 जिनभाषित
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चलाएं। सभी वस्तुएँ मौसम, ऋतु के अनुसार मर्यादित भी होनी चाहिए एवं मसाले पूर्ण रूप से पिसे हुए हों । तथा इनमें सकरे हाथ न लगाएं।
5. मूँग की दाल छिलके वाली ही बनाएं तथा दाल का पानी भी घी मिलाकर देने से लाभदायक होता है ।
6. जल के आगे-पीछे कोई रस न चलाएं तथा नीबू के साथ घी विषवर्धक होता है।
7. दूध के आगे-पीछे खट्टे पदार्थ, दही, रस आदि भी न
चलाएं।
मीठा अनार,
8.
वात शांति के द्रव्य- गेहूँ, मूँग, घी, मुनक्का, पके आम, आँवला, कैंथ, हर्रे, गौ दूध, सेंधा नमक । पित्त शांति के द्रव्य- मधुर रस, चावल की खीर, मुनक्का, आँवला, छुआरा, ककड़ी, केला, घी, दूध । कफ शांति के द्रव्य- चना, गुड़, सौंठ, काली मिर्च, पीपर, सौंठ युक्त दूध |
आहार सामग्री के भक्ष्य, अभक्ष्य की जानकारी एवं आवश्यक निर्देश
सभी ऋतुओं में एक समान
48 मिनिट - दूध (बिना उबला), छाछ (बाद में जल अथवा मीठा मिलाने पर), पिसा नमक ।
6 घंटे- पिसा नमक (मसाला मिलाने पर), खिचड़ी, रायता, कढ़ी, दाल, सब्जी ।
24 घंटे- दूध (उबला), दही (गर्म दूध का), नमक (पिसा गर्म ), मौन वाले पकवान ।
आटा (सभी प्रकार का ), पिसे मसाले- शीत काल 7 दिन, ग्रीष्मकाल 5 दिन, वर्षा काल 3 दिन
बूरा शक्कर का शीत काल 1 माह, ग्रीष्मकाल 15 दिन, वर्षाकाल 7 दिन
घी, तेल, गुड़- 1 वर्ष अथवा जब तक स्वाद न बिगड़े गुड़ मिला हुआ दही/ छाछ सर्वथा अभक्ष्य है, मीठा मिले दूध का जमाया हुआ दही भी अभक्ष्य है । रसचलित- स्वाद बदल गया हो,
बदबूदार
पदार्थ
तथा फटा हुआ दूध आदि त्याज्य है ।
अजान फल- जिसको हम पहचानते नहीं हैं, ऐसे फल, पत्ते आदिं संयमी के लिए योग्य नहीं हैं ।
अतितुच्छ फल- जिसमें बीज नहीं पड़े हों, ऐसे बिल्कुल कच्चे छोटे-छोटे फल भी लेने योग्य नहीं हैं। अभक्ष्य के भेद- त्रस हिंसाकारक, बहुस्थावर
हिंसाकारक, प्रमाद कारक, अनिष्ट और अनुपसेव्य
दूध अभक्ष्य (अशुद्ध )- प्रसूति के बाद भैंस का दूध 15 दिन, गाय का दूध 10 दिन, बकरी का दूध 8 दिन तक अभक्ष्य है।
निर्देश
1.
7.
12 घंटे- छाछ (विलौते समय जल डालने पर ), रोटी, पूड़ी, हलवा, बड़ा, कचौड़ी
2.
जल को तीन बर्तनों में तीन जगह रखना चाहिए, जिसकी गर्माहट में थोड़ा-थोड़ा अंतर हो, जिससे श्रावक साधु की अनुकूलता के अनुसार दे सकें।
आहारदान यदि दूसरे के चौके में देवें, तो अपनी आहार सामग्री हाथ में अवश्य ले जाएं।
चक्की से जब भी पीसें या पिसवाएं तो वह साफ होना चाहिए, क्योंकि उसमें कोई जीव-जंतु भी हो सकते हैं तथा उसमें अमर्यादित आटा भी लगा रहता है। अतः शीत, ग्रीष्म, वर्षा ऋतु में क्रमशः 7, 5, 3 दिन में चक्की अवश्य साफ करें।
हाथ में कोई आहार सामग्री लगी हो तो उन हाथों से आहार सामग्री न दें |
6.
हरी क्या है?- जो फल, साग आदि वनस्पति जो अभी गीली है, हरी कहलाती है तथा धूप में पूर्णतः सूख जाने पर हरी नहीं रहती । जैसे- सौंठ, हल्दी आदि ।
3.
4.
5.
कमण्डलु में जल 24 घंटे की मर्यादा (उबला हुआ ) वाला ही भरें, ठंडा या कम मर्यादा वाला नहीं।
अतिथि संविभाग व्रत वैयावृत्य के समान फलदायी है। पड़गाहन के लिए द्वार पर प्रतीक्षा करने से ही संपूर्ण आहार का फल मिलता है। साधु नहीं आने पर संक्लेश नहीं करना चाहिए । निरंतराय आहार हों, ऐसी भावना भानी चाहिए।
8.
परिवार में सूतक - पातक होने पर तथा शवदाह में सम्मिलित होने पर भी आहारदान नहीं दें ।
9.
आहार देते समय कोई भी मृत्यु सम्बन्धी बातें, पीप चमड़ा आदि असभ्य शब्द बोलने से अंतराय हो सकता है ।
नोट
इस प्राकविधि का उपयोग आप स्वयं करें एवं दूसरे लोगों को बताकर करवाएं। इस लेख की तभी पूर्ण सार्थकता हो सकती है। अशुद्धियों पर ध्यान न दें। कमियों को सूचित करें। जिससे और सुधार किया जा सके।
क्षेत्रीय अधिकारी, द.प.सा. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
शाखा देवरी (सागर) म.प्र.
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योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा
डॉ. वंदना जैन स्वास्थ्य प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, और | और दूसरी का निर्माण होना इसी चक्र में रोगी फँस जाता है। निरोग रहना मानव शरीर की स्वाभाविक स्थिति है। व्यक्ति कोई नहीं चाहता का शरीर निरोग होने के साथ उसका मन, मस्तिष्क और . . बार बार बीमार होना। आत्मा भी स्वस्थ और उन्नत हो तभी तो संपूर्ण स्वास्थ्य की अस्पतालों के चक्कर काटना। अवस्था होती है। प्राकृतिक जीवन के नियमों के अनुसार
. घंटों लाइन में लगना। रहन-सहन, खान-पान तथा दिनचर्या रखने से व्यक्ति स्वयं . शारीरिक व मानसिक परेशानियों से ग्रस्त रहना। ही स्वाभाविक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहता है तथा प्रकृति के हर व्यक्ति चाहता है नियमों के विरुद्ध होने पर ही सभी प्रकार के रोग, कष्ट तथा . नित्य स्वस्थ रहना। समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
. इंजेक्शन, ऑपरेशन आदि से बचना। ___ योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा प्राचीन पद्धतियां हैं, जिनके • एंटीबायोटिक जैसी जहरीली दवाओं से बचना। संदर्भ प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। आज स्वास्थ्य संरक्षण एवं . पैसा और समय की बर्बादी से बचना। विशेषकर मनोदैहिक विकारों के निवारण में इनकी उपयोगिता योग व प्राकृतिक चिकित्सा में है को देखकर विश्व स्तर पर लोगों में इन चिकित्सा पद्धतियों . रोग को जड़ से मिटाने का उपचार। के प्रति रुचि और जिज्ञासा बढ़ी है। बड़े-बड़े चिकित्सा
. रोग प्रतिबंधन का उपचार। अनुसंधान संस्थाओं में कार्यरत वैज्ञानिक एवं चिकित्सक . स्वावलंबन और अहिंसा का विवेक। भी इनकी उपयोगिता को भली-भांति समझकर अपने
. रोगी को स्वयं योगी व चिकित्सक बनने के संस्कार , अनुसंधानों द्वारा उनकी उपयोगिता को प्रभावित करने में लगे हुए हैं।
योग व प्राकृतिक चिकित्सा वह पद्धति है, जो वर्षों से ____ जनसाधारण में भी इनके प्रति रुचि बढ़ी है और लोग | चली आई है और आज भी जिसका निरंतर विकास जारी है, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा को अपने जीवन में अपनाने जो एक अति वैज्ञानिक प्रणाली है और जिसमें निदान डॉक्टर की बात गंभीरता से सोचने लगे हैं, क्योंकि योग एवं प्राकतिक दवाईयाँ और अस्पताल प्रधान ना होकर मरीज या कष्ट चिकित्सा प्रणाली अपने आप में प्रकृति का विज्ञान है। इस पीड़ित व्यक्ति प्रधान होता है तथा उसका कष्ट जड़ से दूर विज्ञान में प्रकृति के नियमों द्वारा अस्वस्थ व्यक्ति स्वस्थ हो | करने का प्रयास किया जाता है। इसमें रोग के वास्तविक सकता है और स्वस्थ रह सकता है।
कारण की खोज की जाती है और कष्ट को दूर करने के ____ आज ज्यादातर लोग इंजेक्शनों और जहरीली दवाओं के | लिए सबसे सरल, सबसे प्राकृतिक तथा सर्वाधिक वृद्धि शिकार हैं एवं इसके आदी हो गए हैं। इनमें तुरंत ठीक होने | संगत उपाय किए जाते हैं। यह सिर्फ एक चिकित्सा पद्धति का चमत्कार दिखता है, अतः सामान्य लोग इस ओर आकर्षित | ही नहीं वरन् एक संपूर्ण जीवनदर्शन है व स्वस्थ जीवन जीने होते हैं, किन्तु अब इनके पार्श्व प्रभाव सामने आने से इस | की कला है। चमत्कार की असलियत सामने आने लगी है। इन जहरीली
योग विज्ञान विभाग दवाओं से बीमारी दबा दी जाती है। एक बीमारी का दबना
डॉ. हरीसिंह गौर वि.वि.,सागर (म. प्र.) • क्रोध अनेक पापों का जनक है; उसका परित्याग करके जीवदया में प्रवृत्त होना चाहिए।
Anger sires several sins. It must be renounced and kindness towards all the living beings adopted. मारने का विचार, ईर्ष्या और डाह आदि अशुभ मनोयोग हैं। The thought of killing, jealousy and malice are the inauspicious mental activities.
'वीरदेशना' से साभार
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बोधकथा
व्यसन की आग : सब करदे राख बहुत समय पहले की बात है, जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में | हरिदास ने अपने घर से राजमहल तक एक गुप्त सुरंग सद्ऋतु नाम का एक नगर था। उस नगर में भावन नाम का | बनाई। उस सुरंग से जाकर वह प्रतिदिन अपनी इच्छानुसार एक बनिया रहता था। हरिदास उसका इकलौता पुत्र था। | धन चुराकर लाने लगा और व्यसनों में गँवाने लगा।
भावन के पास अतुल धन-सम्पत्ति थी किन्तु फिर भी। कुछ समय बाद वणिक भावन धन कमाकर अपने घर उसे विदेश जाकर और अधिक धन कमाने की लालसा लौटा। हरिदास उस समय अपने घर में नहीं था। भावन ने थी। उसकी पत्नी उसे विदेश जाने को मना करती थी पर अपनी पत्नी के कुशल-क्षेम पूछकर जानना चाहा कि बेटा भावन अपनी लालसा नहीं रोक पा रहा था। अपनी चार | हरिदास कहाँ है? करोड़ सोने की मुद्राएँ पुत्र हरिदास को धरोहर के रूप में माँ अपने बेटे की बुरी आदतों/व्यसनों से बहुत दुःखी सम्हलाते हुए उसे जुआ-मदिरा आदि व्यसनों से दूर रहने | थी। उसने पति से बेटे के व्यसनों व खोटे आचरण के बारे में का उपदेश देकर वह और अधिक धन कमाने के लिए बताते हुए कहा कि वह इस सुरंगमार्ग से राजमहल में चोरी विदेश चला गया।
करने गया है। भावन क्रोध व दुःख के कारण उत्तेजना से भर हरिदास कच्ची उम्र का था। अभी उसमें हेय-उपादेय, | उठा। पुत्र के अनिष्ट की आशंका से घबराकर वह स्वयं उचित-अनुचित, लाभ-हानि का निर्णय करने की क्षमता | उस सुरंग से उसे ढूंढने चल पड़ा। विकसित नहीं हुई थी। समुचित देख-रेख, सम्यक् रोक- | हरिदास राजमहल से चोरी कर धन लेकर लौट रहा था। टोक, अनुशासन व अंकुश न होने से तथा इतनी अधिक | सुरंग में अंधेरा था। सामने एक मनुष्य-आकृति को देखकर धन-राशि मिल जाने से वह किशोर व्यसनों की ओर उन्मुख हरिदास ने सोचा कि वह जरूर कोई भेदिया है जिसे इस हो गया।
सुरंग-मार्ग का पता लग गया है। यह भेद खोल देगा तो मैं धीरे-धीरे हरिदास ने जुए की लत और मदिरा-पान में | मारा जाऊँगा। अपनी मौत से भयभीत हरिदास ने बिना आगाअपना सारा धन गँवा दिया। पास का धन चुक गया तो | पीछा सोचे, बिना देखे-भाले उस मनुष्य-आकृति को तलवार हरिदास कर्जा लेने लगा। कुछ ही दिनों में उस पर काफी | से मौत के घाट उतार दिया। आकृति के स्पन्दन रहित हो कर्जा चढ़ गया। लेनदार परेशान करने लगे। हरिदास को | | जाने पर जब हरिदास ने प्रकाश करके देखा तो वह चौंक धनप्राप्ति का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।
उठा, उसने पहचाना-अरे! ये तो मेरे पिता थे। पर ये यहाँ __ जैसा आचार-वैसा विचार, जैसी क्रिया-वैसा व्यवहार। कैसे आ गये? सुरंग से बाहर आकर उसने माँ से पूछा तो व्यसनों में डबा हआ व्यक्ति धन पाने के लिए मेहनत
में करना चाहता। वह धन कमाने की कोशिश | खोजने गये थे। नहीं करता। वह तो बिना प्रयास, अनायास ही धन पाना | पिता का हत्यारा हरिदास दण्ड के भय से घर से भाग चाहता है। इसलिए व्यसनों में रत व्यक्ति चोरी-डाका, धोखा- निकला और जंगलों में छिपता रहा, जहाँ हिंसक पशुओं का फरेब आदि कुटेवों में ही उलझता-फँसता जाता है। अंकुश | डर, भूख-प्यास आदि के असह्य दुःखों से वह परेशान हो के अभाव में एक अवगुण नित नये अवगुणों को जन्म देता है। गया। अन्त में दुःख और ग्लानि से पीड़ित हो जंगल में ही
हरिदास के साथ भी ऐसा ही हुआ। व्यसनों के कीचड | मर गया। में फँस जाने से उसका हर कदम, हर आचरण उसे और ओह! व्यसनों की आग समय की हवा से बढ़ती जाती नये-नये व्यसनों के गहरे दलदल में फँसाता जा रहा था। है। यह आग धन-सम्पत्ति, मान-मर्यादा, ज्ञान-ध्यान, सन्तोषअपना कर्ज़ चुकाने व खर्च चलाने के लिए उसने चोरी का | धैर्य, प्रेम-विश्वास सब कुछ लील जाती है। इन व्यसनों की मार्ग चुना। उसने राजमहल में चोरी करने की योजना बनाई।। आग में कुछ भी शेष नहीं रहता, बचता है तो सिर्फ दुःख, सही है, जहाँ अथाह धन-सम्पत्ति हो वहाँ चोरी करना आसान | अपमान, क्लेश और पीड़ा-पश्चाताप-ग्लानि रूपी राख। भी है और लाभदायक भी। सागर में से सौ-पचास घड़े व्यसनों से प्रारंभ में क्षणिक भौतिक सुख मिलता है किन्तु पानी निकाल लिये जाएं तो सागर पर इसका क्या प्रभाव | उनका अन्त कितना भयावह और दुःखद होता है। पड़ेगा?
'पुराणकथा मंजरी' से साभार
मजदरा नहा करना चाहता
मार्च 2006 जिनभाषित /27
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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता : पं. बसन्तकुमार जी शास्त्री शिवाड़ | बतलाया गया है कि गणधर एवं श्रुतकेवली आदि के द्वारा जिज्ञासा : संयम धारण करने की योग्यता आठ वर्ष | कहे हुये ग्रन्थों को स्वाध्याय के योग्य काल में ही पढ़ना की आयु में होती है, ये आठ वर्ष जन्म से मानने चाहिये या | चाहिये। परन्तु आराधना ग्रन्थ, मृत्यु के साधनों को सूचित गर्भ से ?
करने वाले ग्रन्थ पंचसंग्रह, प्रत्याख्यान तथा स्तुति के ग्रन्थ, समाधान : मनुष्यों में गर्भ से निकलने के आठ वर्ष छह आवश्यक को कहने वाले ग्रन्थ आदि जितने अन्य ग्रन्थ उपरान्त संयम धारण की योग्यता बनती है। श्री वीरसेन | हैं, वे सभी कालों में पढ़ने के योग्य हैं। स्वामी ने धवला पु. 10 पृ. 278 पर इस सम्बन्ध में इस
उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार वर्तमान में भी देखा जाता है प्रकार कहा है- गब्भादो............ णुववत्तीदो। अर्थ-गर्भ से | कि मुनिसंघों में अष्टमी, चतुर्दशी आदि स्वाध्याय के अयोग्य निकलने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जाने पर | कालों में, सिद्धान्त ग्रन्थों की (श्री कषायपाहुड, श्री षट्खण्डागम संयम ग्रहण के योग्य होता है; इसके पहले संयम ग्रहण के | एवं इनकी धवला, जयधवला एवं महाधवला टीकाओं की) योग्य नहीं होता है, यह इसका भावार्थ है। गर्भ में आने के | वाचना नहीं की जाती है, जबकि दशलक्षण पर्व में अष्टमी प्रथम समय से लेकर आठ वर्षों के बीतने पर संयम ग्रहण
| और चतुर्दशी के दिन भी तत्त्वार्थसूत्र की वाचना प्रत्येक के योग्य होता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु | स्थान पर होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सिद्धान्त यह घटित नहीं होता है, क्योंकि ऐसा मानने पर योनिनिष्क्रमण | ग्रन्थों का स्वाध्याय तो स्वाध्याय के योग्य कालों में ही करना रूप जन्म से, यह सूत्र-वचन (इसी पुस्तक के सूत्र नं. 72. योग्य है। शेष ग्रन्थों का स्वाध्याय कभी भी किया जा सकता 59) नहीं बन सकता। यदि गर्भ में आने के प्रथम समय से है। यहाँ यह भी जानने योग्य है कि उपर्युक्त सिद्धान्त ग्रन्थों लेकर आठ वर्ष ग्रहण किये जाते हैं तो "गर्भपतन रूप जन्म | का पठन-पाठन गृहस्थों को नहीं करना चाहिये। से आठ वर्ष का हुआ" ऐसा सूत्रकार कहते हैं, किन्तु उन्होंने | जिज्ञासा :क्या क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्ति के लिये उत्तम ऐसा नहीं कहा है। इसीलिये सात मास अधिक आठ वर्ष | संहनन होना आवश्यक है ? का होने पर संयम को प्राप्त करता है, यही अर्थ ग्रहण करना समाधान : उपर्युक्त विषय में 'संतकम्मपज्जिया' ग्रन्थ चाहिये, क्योंकि अन्यथा सूत्र में 'सर्वलघु' पद का निर्देश | में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि वज्रवृषभनाराच प्रथम संहनन घटित नहीं होता है।
के अलावा अन्य पाँच संहननों के उदय सहित जीवों के उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार संयम ग्रहण करने की सबसे | दर्शनमोह को क्षपणा करने की शक्ति नहीं है। 'संतकम्मकम आयु जन्म से आठ वर्ष बीत जाने पर माननी चाहिये। पज्जिया' पृष्ठ 79 पर इस प्रकार कहा है, "पुणोवि अंतिम
जिज्ञासा : धवला पुस्तक 9/257 पर कहा है कि पंचसंहऽणाणि असंखेज गुणाणि । कुदो? दुविह संजमगुणसेढि अष्टमी, चतुर्दशी और पर्व के दिनों में शास्त्र स्वाध्याय करना -सीससएणब्भहिंयमणंताणुबंधि विसंयोजयण गुणसेढिसीसया योग्य नहीं है। इसकी क्या अपेक्षा लगानी चाहिये? -णित्ति तिण्णिवि एगटुं काऊण णामकम्मसंबंधीणं अट्ठावीसेण समाधान : स्वाध्याय के अयोग्य द्रव्य, क्षेत्र एवं काल |
वा तीसेण वा भजिदमेतं होदि त्ति। किम; दंसणमोहक्खवण के ऊपर धवला पुस्तक 9 पृष्ठ 255 से 257 तक अच्छी
| गुणसेढीण घेप्पदे? ण, तं खवण (तक्खवणं) सत्ती एदेसि तरह प्रकाश डाला गया है। वहाँ अयोग्य काल का वर्णन
संहऽणाणं उदयसहिदजीवा-णं णत्थि त्ति अभिप्पयादो" अर्थ करते हुए अष्टमी, चतुर्दशी तथा नन्दीश्वर पर्व के दिवसों
और भी अन्तिम पाँच संहनन असंख्यात गने हैं। दो प्रकार के आदि में अध्ययन करने के लिये मना किया गया है। ऐसी |
संयम गुणश्रेणि शीर्ष और उनमें गुणित अनन्तानुबंधी ही चर्चा मूलाचार के पंचाचाराधिकार में गाथा नं. 80 से 82 |
विसंयोजन गुण श्रेणीशीर्ष इन तीनों को एकत्र करके नामकर्म तक तथा मूलाचारप्रदीप में छठे अधिकार के 32 से 37 |
| सम्बन्धी अट्ठाईस अथवा तीस प्रकृतिक स्थान से भाग देने श्लोक तक भी पढने को मिलते हैं। इन गाथा व श्लोकों में
पर होता है। दर्शनमोहक्षपक गुणश्रेणि का ग्रहण क्यों नहीं
किया। इन संहननों के उदय सहित जीवों के दर्शनमोह को 28/मार्च 2006 जिनभाषित
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क्षपण करने की शक्ति नहीं है। इस अभिप्राय से उसका ग्रहण नहीं किया।
जिज्ञासा : सम्मूर्च्छन मनुष्य कहाँ-कहाँ उत्पन्न होते हैं? समाधान: मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- 1. गर्भज 2. सम्मूर्च्छन। इनमें गर्भज मनुष्य तो पर्याप्तक ही होते हैं तथा सम्मूर्च्छन मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं अर्थात् इनकी एक भी पर्याप्ति पूरी नहीं होती है। इनकी आयु श्वासोच्छ्वास के 18वें भाग प्रमाण अर्थात् लगभग 7 सेकेण्ड होती है। इनके औदारिक शरीर की अवगाहना घनाङ्गुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है, जिस कारण ये आँख के द्वारा दिखाई नहीं देते हैं। ये सभी मनुष्य पंचेन्द्रिय सैनी ही होते हैं। इनकी उत्पत्ति के स्थान के सम्बन्ध में भगवती आराधना गाथा 78182 में इस प्रकार कहा है
कर्मभूमिषु चक्रास्त्रहलभृद्धरि भूभूजाम् । स्कन्धाबारसमूहेषु प्रस्रवोच्चार भूमिषु ॥ शुक्र सिंघाणक श्लेष्मक र्णदन्तमलेषु च । अत्यन्ताशुचिदेशेषु सद्यः सम्मूर्च्छनेन य ॥ भूत्वाङ्मुलस्यासंख्येयभागमात्रशरीरकाः । आशु नश्यन्त्यपर्याप्तास्तेस्युः सम्मूर्च्छना नराः ॥ अर्थ-कर्मभूमि में चक्रवर्ती, बलभद्र वगैरह बड़े राजाओं सैन्य में मलमूत्रों का जहाँ क्षेपण करते हैं, ऐसे स्थानों पर वीर्य, नाक का मल, कफ, कान और दाँतों का मल और अत्यन्त अपवित्र प्रदेश इनमें तो तत्काल उत्पन्न होते हैं । जिनका शरीर अंगुल के असंख्यात भाग मात्र रहता है और जो जन्म लेने के बाद शीघ्र नष्ट होते हैं और जो लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं उनको सम्मूर्च्छन मनुष्य कहते हैं ।
गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 93 की टीका में इस प्रकार कहा है- " सम्मूर्च्छन मनुष्य स्त्री की योनि, कांख, स्तनों के मूल में तथा चक्रवर्ती की पटरानी के सिवाय मूत्र, विष्टा आदि अशुचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं।"
सम्मूर्च्छन मनुष्य केवल आर्यखण्ड में ही पाये जाते हैं । भरत क्षेत्र के म्लेच्छ खण्डों में तथा भोगभूमियाँ में नहीं पाये जाते जैसा कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 133 में कहा है-संमुच्छिया मणुस्सा अज्जव-खंडेसु होंति णियमेण ॥ अर्थ-सम्मूर्च्छन मनुष्य नियम से आर्यखण्डों में ही होते हैं।
श्लोकवार्तिक भाग - 5, पृष्ठ - 355 पर तत्त्वार्थसूत्र 3/ 31 की टीका में पं. माणिकचन्द्र जी कौन्देय ने लिखा है कि विजयार्ध पर्वतों पर भी लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य नहीं पाये
जाते हैं।
इस प्रकार सम्मूर्च्छन मनुष्य कहाँ-कहाँ पाये जाते हैं, इसका उल्लेख किया गया।
प्रश्नकर्ता: सौ. स्मिता दोषी, बारामती
जिज्ञासा : मान कषाय के आठ भेद तो शास्त्रों में आठ मद के नाम से मिलते हैं तो क्या अन्य कषायों के भेद का उल्लेख भी शास्त्रों में है ?
समाधान: चारों कषायों में से मान कषाय के आठ भेद
तो जगत् प्रसिद्ध हैं ही। अन्य कषायों में माया और लोभ कषाय के भेद तो शास्त्रों में कहे गये हैं, परन्तु क्रोध कषाय के भेद मेरे देखने में नहीं आये। क्रोध कषाय के तो राजवार्तिक अध्याय 8/9 की टीका में अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन इस प्रकार सामान्य से चार रूप ही प्राप्त होते हैं, जिनके उदाहरण पर्वत रेखा, सदृश, पृथ्वी रेखा सदृश, बालू रेखा सदृश तथा जल रेखा सदृश कहे गये हैं।
माया एवं लोभ कषाय के भेद शास्त्रों में इस प्रकार कहे हैं- भगवती आराधना गाथा नं. 90 में माया कषाय के पाँच भेद कहे गये हैं, जो इस प्रकार हैं
1. धन आदि की अभिलाषा उत्पन्न होने पर किसी को फंसाने की चतुरता रूप माया का नाम निकृति है ।
2. अच्छे परिणाम को ढ़ककर धर्म के निमित्त से चोरी आदि दोषों में प्रवृत्ति करने को उपाधि नामक माया कहते हैं।
3. धन के विषय में झूठ बोलना, किसी की धरोहर का कुछ भाग हरण कर लेना, दूषण लगाना अथवा खुशामद करना सातिप्रयोग माया है।
4. हीनाधिक कीमत की सदृश वस्तुएं आपस में मिलाना, माप-तौल के बांट कम-बढ़ रखना, मिलावट करके माल बेचना यह प्रणिधि नामक माया है।
5. आलोचना करते समय अपने दोष छिपाना प्रतिकुंचन नामक माया है।
लोभकषाय के राजवार्तिक अध्याय 9 के छठे सूत्र में चार भेद कहे गये हैं, जो इस प्रकार है- 1. जीवन लोभ 2. आरोग्यलोभ 3. इन्द्रियलोभ 4. उपभोग लोभ । इनकी परिभाषा स्पष्ट है। ये चारों भेद भी प्रत्येक स्व-पर विशेष के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं।
1/205, प्रोफेसर कालोनी
आगरा - 28002 मार्च 2006 जिनभाषित / 29
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समाचार
परमपूज्य मुनि श्री 108 प्रमाणसागर जी के । योग का प्रशिक्षण क्षेत्र में स्थित गुरुकुल के बच्चों को प्रदान कोलकाता आगमन पर अभूतपूर्व धर्म प्रभावना किया गया। इस शिविर में गुरुकुल के अधिष्ठाता एवं क्षेत्र
कोलकाता काकुड़गाछी क्षेत्र में नवनिर्मित मंदिर जी के | प्रमुख ब्र. विनोद भैय्या का सान्निध्य प्राप्त हुआ। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर कोलकाता एलोरा गुरुकुल में प. पू. आर्यनंदी महाराज श्री दिगम्बर जैन समाज के निवेदन पर परमपूज्य आचार्य श्री
की पुण्यतिथि सम्पन्न 108 विद्यासागर जी महाराज के युवा शिष्य प्रखरवक्ता मुनि | ___एलोरा के पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल में 7 फरवरी श्री 108 प्रमाण सागर जी महाराज के आगमन से यहाँ अभूतपूर्व | को तीर्थरक्षा शिरोमणि आचार्य परम पूज्य आर्यनंदी महाराज धर्मप्रभावना हो रही है।
की 6 वीं पुण्यतिथि बड़ी धूमधाम से मनाई गई। आर्यनंदी विगत दिनों पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज का महाराज ने ही इस गुरुकुल की नींव डाली थी और अब यह प्रवास बेलगछिया उपवन मंदिर जी में हुआ। वहाँ श्यामबाजार | गुरुकुल निरंतर फलफूल रहा है। स्थित देशबन्धु पार्क में पूज्य मुनि श्री के सार्वजनिक प्रवचनों
प्रदीप कुमार से जैन जैनेतर समाज ने धर्म लाभ प्राप्त किया। अनेकान्त ज्ञान मंदिर बीना का 14 वाँ वार्षिकोत्सव सम्पन्न ___बेलगछिया उपवन मंदिर जी से विहार कर हावड़ा | बीना, 20 फरवरी 1992 को स्थापित अनेकान्त ज्ञान डबसन रोड में पूज्य मुनि श्री का प्रवास लगभग एक महीने | मंदिर शोध संस्थान बीना ने अपनी सफलतम यात्रा के 14 रहा। इनके यहाँ प्रवास के अवसर पर जितनी धर्म प्रभावना | वर्ष पूर्ण कर 15 वें वर्ष में प्रवेश किया। इस पुनीत अवसर हुई आज तक नहीं देखी गई। बच्चे, युवा, आबालवृद्ध स्त्री- | पर श्रुत महोत्सव का कार्यक्रम एक आध्यात्मिक वातावरण पुरुषों ने पूज्य महाराज जी के प्रवचनों का लाभ उठाया। में श्रताराधना के रूप में सम्पन्न हुआ। पूज्य प्रमाणसागर जी महाराज जब आहारचर्या के लिये बाहर
सचिन जैन जाते तो सैकड़ों नर-नारी अभूतपूर्व चर्या को देखकर
प्रो. डॉ. भागचन्द्र जैन राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित नतमस्तक हो जाते थे। यहाँ तो जैन-अजैन का भेद ही मिट गया। स्थानीय गलमोहर पार्क के विशाल प्रांगण में आयोजित
प्रो. भागचन्द्र जैन पूर्व विभागाध्यक्ष, पालि-प्राकृत विभाग,
नागपुर विश्वविद्यालय को पालि-प्राकृत साहित्य में विशिष्ट नव दिवसीय प्रवचन श्रृंखला में सैकड़ों जैनेतर श्रद्धालु प्रतिदिन
योगदान के लिये दिनांक 6 दिसम्बर 05 को राष्ट्रपति भवन महाराज जी के प्रवचनों में आते देखे गये।
में महामहिम राष्ट्रपति के करकमलों से राष्ट्रपति एवार्ड से विगत 9 फरवरी को पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी
सम्मानित किया गया है। हावड़ा डबसन रोड से विहार कर बंगवासी मंदिर जी के
___ लगभग 67 वर्षीय प्रो. जैन का जन्म बम्हौरी छतरपुर दर्शन करते हुए कोलकाता की हृदयस्थली बड़ा बाजार में
(म.प्र.) में हुआ। आपने संस्कृत साहित्य में आचार्य, प्राकृत विराजमान हैं। स्थानीय श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर जी में
एवं जैनशास्त्र में शास्त्राचार्य, संस्कृत, पाली एवं प्राचीन भारतीय पूज्य मुनि श्री का मंगल प्रवचन प्रतिदिन प्रातः 8:15 बजे से आयोजित है। प्रातः 7 बजे से धार्मिक शिक्षण शिविर प्रारम्भ
इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व में एम.ए., पाली एवं प्राकृत
में पीएच.डी, हिन्दी,पाली एवं प्राकृत तथा संस्कृत में डी. होता है। जिसमें लगभग दो सौ भाई-बहिन भाग लेकर धर्म
लिट्. की उपाधियां प्राप्त की। आपने अध्यापन कार्य के लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
अंतराल में लगभग 30 वर्षों तक नागपुर, जयपुर, वाराणसी अजीत पाटनी
आदि विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष योग प्रशिक्षण शिविर सम्पन्न
एवं संस्थानों में लगभग 5 वर्षों तक निदेशक के रूप में कार्य सम्मेदगिरि अतिशय क्षेत्र गोसलपुर (जबलपुर) में | किया। दिनांक 5 फरवरी से 10 फरवरी 2006 तक छतरपुर से
सुनील जैन पधारे मध्यप्रदेश योगकिंग डॉ. फूलचन्द्र जी योगीराज द्वारा | 30/मार्च 2006 जिनभाषित
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मुनि श्री प्रशान्तसागर जी कृत ग्रन्थ का विमोचन | संचालित 'भुजबली श्राविकाश्रम' मातुश्री रत्नम्मा हैगड़े की
15 फरवरी को बीना में हो रहे पंचकल्याणक महोत्सव | उदारता का एक प्रेरक स्मारक कहा जा सकता है। में ज्ञानकल्याणक के पावन दिवस पर संत शिरोमणि आचार्य | महामस्तकाभिषेक के लिये श्रवणबेलगोला जाने के पूर्व उसी श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के शिष्य मुनि श्री प्रशान्तसागर | श्राविका श्रम की व्यवस्था देखने वे धर्मस्थल से कारकल के जी महाराज कृत जिनसरस्वती ग्रन्थ का विमोचन हुआ। इस | मार्ग पर चली थीं, पर होनी की अटल ने उनकी इस छोटी ग्रन्थ में 56 अध्याय हैं, जो चार अनुयोगों में विभक्त हैं। | सी यात्रा को 'महायात्रा' में बदल दिया। प्रश्नोत्तर शैली के इस ग्रन्थ की सभी ने भूरिभूरि प्रशंसा की। रत्नम्मा जी अपने पीछे एक सुपुत्री तथा चार सुपुत्रों का ग्रन्थ का विमोचन पंचकल्याणक में बने भगवान के माता- 1 भरा-परा परिवार छोड गई हैं परन्त वास्तविकता यह है कि पिता एवं सौधर्म इन्द्र दिनेश चक्रवर्ती एवं डॉ. ऋषभ बरया | उनके जाने से लाखों लोगों ने मातृ-वियोग की वेदना का ने किया।
अनुभव किया है। लेखक : पू. मुनि श्री प्रशान्त सागर जी महाराज
हैगडे परिवार के शोक में सहभागी होने के लिये चारों निर्देशन : पू. मुनि श्री निर्वेग सागर जी महाराज
ओर से उनके परिचितों, शुभचिंतकों और भक्तों का ताँता संपादन : ब्र. भरत, स्लीमनाबाद
लगा है। हर कोई शोक से संतप्त है, फिर भी दूसरों को प्रकाशक : धर्मोदय साहित्य प्रकाशन, स्लीमनाबाद ।
| संवेदना देने में संलग्न दिखाई दे रहा है। आनंद जैन
नीरज जैन रत्नम्मा हैगड़े का चिर वियोग
शिक्षाविद् पन्नालाल जी गंगवाल का सत्कार 21 जनवरी 2006 की शाम को
एलोरा (औरंगाबाद) स्थित श्री गहरा अंधेरा कुछ जल्दी छा गया,
पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन ब्रह्मचर्याश्रम धर्मस्थल के धर्माधिकारी राजर्षि डॉ. वीरेन्द्र हैगड़े की माता जी मातुश्री
गुरुकुल के महामंत्री, ज्येष्ठ सामाजिक रत्नम्मा हैगड़े के आकस्मिक वियोग
कार्यकर्ता श्रीमान् पन्नालाल जी गंगवाल
को श्री चिंतामणि दिगम्बर जैन अतिशय का समाचार जिसने जहाँ सुना वहीं
क्षेत्र कचनेर (औरंगाबाद) द्वारा वार्षिक शोक में डूब गया।
यात्रा महोत्सव के उपलक्ष्य में समाज रत्नम्मा जी की वात्सल्य और ममता भरी छवि सहसा
के दीपस्तंभ सम्मानपत्र प्रदान कर गौरवान्वित किया गया। आँखों में छा गई और इनके विछोह की पीड़ा हर आँख से
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के प्रणेता परमपूज्य आचार्य श्री टपक पड़ी। क्षण भर में समाचार सर्वत्र फैल गया कि सड़क
समंतभद्र महाराज के आदेशानुसार तीर्थरक्षा शिरोमणि परमपूज्य दुर्घटना ने रत्नम्मा जी को हम से सदा के लिये छीन लिया
108 आचार्य श्री आर्यनंदी महाराज द्वारा विश्वविख्यात प्राचीन
गफाओं के कारण जिसे पर्यटनस्थल का महत्त्व प्राप्त ऐसे जन-कल्याण और साधु-संतों की सेवा 78 वर्षीय रत्नम्मा
एलोरा ग्राम में सन् 1962 में श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन जी के जीवन का व्रत बन चुका था। उनकी प्रेरणा से कर्नाटक
ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल की स्थापना की और आचार्य समंतभद्र में अनेक जनसेवी संस्थाओं की स्थापना हुई थी। कुछ संस्थाएँ
जी और आर्यनंदी जी ने इस गुरुकुल संस्था के सूत्र श्री तो उनकी सहायता से ही चल रही थीं। कर्नाटक की जनता
पन्नालाल जी गंगवाल के हाथ सौंपे और तब से अब तक 42 ने “दानचिंतामणि अत्तिमव्वे प्रशस्ति" समर्पित करके उनकी
वर्ष श्री गंगवाल संस्था के महामंत्री पद पर कार्यरत हैं। परोपकारी प्रवृत्ति को रेखांकित किया था। आठों याम पर -
श्री पन्नालालजी गंगवाल ने अपनी युवावस्था में हैदराबाद हित की कामना में डूबी रहने वाली उन जैसी ममतामयी
मुक्ति संग्राम में अपना सक्रिय योगदान दिया। जिसके महिला कर्नाटक में आज दूसरी दिखाई नहीं देती।
फलस्वरूप भारतसरकार की ओर से स्वातंत्र्य सैनिक के धर्मस्थल में भगवान बाहुबली की 39 फुट उत्तुंग विशाल |
रूप में आपका गौरव किया गया। स्वातंत्र्य पूर्व काल में मूर्ति रत्नम्मा जी की अटल भक्ति और अडिग संकल्प शक्ति
आपने हिन्दी एम.ए. की पदवी संपादन की। आप इस संस्था का जीवन्त प्रतीक बनकर प्रतिष्ठित हुई थी। कारकल में
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में महामंत्री पद पर कार्यरत रहते आपने संस्था का संचालन 23 जनवरी, 2006 को प्रातः 9 बजे स्वजनों एवं स्नेहीजनों के सुचारू रूप से निर्वेध हो, इसलिये दूरदृष्टि रखकर युवा बीच सम्पन्न हुआ। कार्यकर्ताओं की समर्पित नई पीढ़ी तैयार की, संस्था के
ग्रीष्मकालीन शिक्षणशिविरों में अवश्य पधारें आर्थिक व्यवहार को अत्यन्त स्पष्ट, पारदर्शी रखना, विद्यार्थीअध्यापक-कर्मचारी-सेवक आदि की सुविधा का ध्यान
___ श्रमणसंस्कृति संस्थान सांगानेर (जयपुर) के अधिष्ठाता रखना और अध्ययन-अध्यापन का स्तर ऊँचा रहे इस पर
पं. रतनलाल बैनाडा एवं अन्य विद्वानों के सान्निध्य में आपका विशेष ध्यान रहता है।
दिनांक 24 अप्रैल 2006 से 3 मई 2006 तक बारामती रा. व. अंबरकर एलोरा
(महाराष्ट्र), 6 मई से 16 मई तक बेलगाँव तथा 17 मई से
28 मई तक कोपरगाँव (महाराष्ट्र) में सर्वोदय ज्ञानसंस्कार धन्नालाल जी बज किशनगढ़ वालों की सल्लेखना
शिक्षण-शिविर आयोजित हो रहे हैं। इनमें बालबोध, छहढाला, संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज
तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार, समयसार एवं कर्मकाण्ड के परम भक्त श्री धन्नालाल जी बज
का अध्ययन कराया जायेगा। इच्छुक जन अवश्य पधारें। उम्र 83 वर्ष का दिनांक 17.12.05
आवास एवं भोजन की उचित व्यवस्था है। शिविर में 8 वर्ष को रात्रि 2 बजे चारों प्रकार के आहार
से ऊपर के बालक-बालिकाएँ एवं वयस्क स्त्री-पुरुष भाग का त्याग श्री मती प्रतिभा जी जैन,
ले सकते हैं। शिविरों में प्रतिदिन प्रातःकाल पं. फूलचन्द्र जी प्रवचनकर्ता (श्री दिग. श्रमण संस्कृति
योगाचार्य द्वारा योग और प्राणायाम भी सिखाया जायेगा। संस्थान, सांगानेर) द्वारा रात्रि के 11
रतनलाल बैनाडा बजे करवा दी थी, धीरे-धीरे प्राण निकलते गये, कहीं भी संक्लेश परिणाम चेहरे पर दिखाई तत्त्वार्थसूत्र पर राष्ट्रीय युवा विद्वत् संगोष्ठी सम्पन्न नहीं दिये। श्री बज साहब ने स्वयं त्याग करके 9 बार पलवल (फरीदाबाद) हरियाणा की धर्मप्राण नगरी णमोकार मंत्र बोलकर प्राणांत किया।
पलपल के नवनिर्मित सर्वोदय जैन तीर्थ क्षेत्र में परम पूज्य श्री बज साहब पिछले 50 वर्ष से किशनगढ़ में रह रहे थे, आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य पूज्य उन्होंने 1960 तक के. डी. जैन विद्यालय में अध्यापक पद उपाध्याय श्री 108 गुप्तिसागर जी महाराज के मङ्गल सान्निध्य पर कार्य किया। पश्चात् 1961 से अपनी स्वयं की पुस्तकों में शान्तिनाथ जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के की दुकान अनिल बुक हाऊस प्रारम्भ की थी। उन्होंने इस अवसर पर दिनांक 27 जनवरी से 29 जनवरी 2006 तक उम्र में भी नियमित रूप से देवदर्शन करना, रात्रि भोजन नहीं पूज्य उमास्वामी रचित 'तत्त्वार्थसूत्र' पर राष्ट्रीय युवा विद्वत् करना तथा साधु संघों की सेवा, वैय्यावृत्ति आदि करते थे। संगोष्ठी शास्त्री परिषद् के अध्यक्ष डॉ. श्रेयांसकुमार जैन
श्री बज साहब अपने पीछे 3 पुत्र तथा 2 पुत्रियां का भरा- बड़ौत एवं जैन जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. शीतलचन्द्र पूरा परिवार छोड़ गये हैं।
जैन प्राचार्य, जयपुर के निर्देशन में तथा युवा विद्वान् पं. भारतीय रस्म रिवाजों से विवाह सम्पन्न
सुनील जैन संचय जैनदर्शनाचार्य नरवॉ तथा पं. आशीष जैन
शास्त्री, शाहगढ़ के संयोजकत्व में सफलता पूर्वक सम्पन्न (जयपुर) दिगम्बर जैन महासमिति के राष्टीय हुई। उल्लेखनीय है पहली बार युवा विद्वत संगोष्ठी का
आयोजन परम पूज्य उपाध्याय श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज अध्यक्ष और विद्या विकास योजना श्रवणबेलगोला के के मङ्गल सान्निध्य में सोनागिर में दो वर्ष पूर्व हआ था। अध्यक्ष काला ज्वैलरी के
परम पूज्य उपाध्याय श्री गुप्तिसागर जी महाराज को भी यह प्रवर्तक और प्रमख जौहरी पसद आया और उन्होंने युवा विद्वानों को उचित मंच व आगे श्री विवेक काला की सुपुत्री श्रद्धा का शुभ विवाह श्रीमान्
बढ़ाने के उद्देश्य से इस संगोष्ठी हेतु मङ्गल आशीर्वाद प्रदान
किया। सुरेश जी पाटनी (आर. के मार्बल किशनगढ़) के पुत्र चि. विकास के साथ उनके निवास स्थान रूबी लाईट हाऊस में
सुनील जैन संचय
32/मार्च 2006 जिनभाषित
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बारह भावना (द्रुतविलम्बित छन्द)
1.
जल तरंग समान पदार्थ हैं। सुख अहो तुम खोज कहाँ रहे ॥ यह अनादि अनन्त भ्रमीत है। इसलिये दुख ही दुख साथ है ॥
2.
शरण तो धन दौलत ही रहे। सतत ही शरणागत जा रहे ॥ मतलबी दिखते परिवार के । मरण से कब कौन बचा सके ॥
3.
मनुज नारक औ पशु देव ये। यह चतुर्गति आर्त सहीत ये॥ निज स्वरूप नहीं पहचानते । भटकते सदियों दुख भोगते ॥
4.
विविध हैं गुनरल निजात्म में । विकलता फिर क्यों किस बात में ॥ अखिल विश्व पदार्थ स्वतन्त्र हैं । सहज ही निज में रममान हैं ॥
5.
सुखदता जड़ पुद्गल में नहीं । इस प्रकार विवेक जगा नहीं ॥ पृथकता निज से सब वस्तु हैं। विमल चेतन नन्दन धाम है ॥
6.
मलमयी यह देह घृनीत है। जनक है मल का गुण धर्म है ॥ किसलिये इससे अनुराग है। भटकते इस संसृति में रहे ॥
● मुनि श्री योगसागर जी
7.
विषयभोग अरे विष से भरे । करम बन्ध महा भयकार रे ॥ अशुभवर्धक आस्रव है घना । इस प्रकार जिनेश्वर देशना ॥
8.
परम पंच महाव्रत पूज्य हैं। अशुभ कर्म निरोधक हेतु हैं ॥ विपुल पुण्य महा शुभ वर्धता । भव विनाशक संवर तत्त्वता ॥
9.
मनुज जीवन संयम के लिये । तप करो विधि-बन्ध निवारिये ॥ भव भवान्तर की अघनिर्जरा । यह वही वरता भव से डरा ॥
10.
यह त्रिलोक निसर्ग अनादि से। छह प्रकार सु द्रव्य यहाँ बसे ॥ करम चेतन नाटक को रचे । मिट गये इसमें रच ओ पचे ॥
11.
मनुज दुर्लभ योनि महान है। स्वरग देव सदा तरसे रहे॥ सकल संयम तो नर साधता । भव समुद्र तरे पर तारता ॥
12.
परम पावन धर्म जिनेश का । स्वपर-बोध सुधा उपदेश का ॥ पतित पावन जो जग को करे । यह दयामय धर्म सभी बरें ॥
प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन
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________________ रजि नं. UP/HIN/34497/24/1/2005-TC गुरु चरणों में समाधिमरण श्रीमती कुसुम देवी जैन, जिन्हें हम सब बड़ी बाई के नाम से जानते हैं, वास्तव में पूरी समाज में अग्रणी और बड़ी ही थीं। 13-14 वर्ष की उम्र में सुसंस्कारित परिवार बीना से सतना के धर्मज्ञ एवं संस्कारित श्री पं. केवलचंद जी के बड़े सुपुत्र कैलाश चन्द्र जी सर्राफकीधर्मपत्नी के रूप में आई थीं। बुजुर्गों के आशीष से उनके गुण जो यहां आकर विशेष रूप से पल्लवित हुए, वे अपने आप में एक उदाहरण हैं। आपकी सहज प्रवृत्ति - सरलता - मिलनसारिता और धर्म के प्रति आस्था, देव-शास्त्र-गुरू के प्रति असीम श्रद्धा, स्वाध्यायशीलता, समाज के उत्थान के विषय में चिंतन के साथ ही पारिवारिक दायित्वों का भी समुचित निर्वहन उनके अद्वितीय गुण थे। परम पूज्य 1008 बड़े बाबा कुंडलपुर सिद्ध क्षेत्र में विराजित परमपूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के संघ के दर्शनार्थ एवं चौका लेकर भीषण ठण्ड में भी सतना से कुण्डलपुर गई थीं। विगत 7 दिनों से धर्म ध्यान में रत थीं। इस पुण्य कार्य में आपके साथ समाज की अन्य धर्मानुरागी महिलायें भीगई थीं। दिनांक 14 जनवरी की सुबह अनमोलथी आपने नियमित देव दर्शन पूजन, भक्ति की और पूज्य मुनि श्री 108 समयसागर जी का पड़गाहन किया, परिक्रमा की और नवधा भक्ति के अनुसार महाराज श्री की पूजन की एवं अर्घ्य चढ़ाया और वही आपके जीवन का अंतिम अर्घ्य बन गया। आपने अपनी नश्वर देह का त्याग संयमपूर्वक गुरु चरणों के सान्निध्य में पावन सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर की धरा पर किया , जो जैन धर्मानुसार बड़े पुण्य की बात है। कितने - कितने जन्मों का पुण्य फलीभूत होता है जब इस प्रकार का मरण प्राप्त होता है। हम सभी उनके द्वारा पालन किए गए उत्कृष्ट श्रावक धर्म की अनुमोदना करते हुए कुण्डलपुर के बड़े बाबा से विनय करते हैं कि बड़ी बाई शीघ्र अतिशीघ्र अपनी संसार यात्रा पूरी कर सिद्धालय की ओर प्रयाण करें, हम सभी ऐसी भावनाभाते हैं। मृत्यु महोत्सव श्रावकरत्न श्री रतीलाल चुनीलाल का निर्मल परिणामों के साथ दिनांक 6.1.06शुक्रवार को समाधिमरण हुआ।क्षपक की साधना आठ दिन पूर्व में प्रारम्भ हो गई थी।आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य ब्र.संजीव भैय्या कटंगी के निर्देशन में वीतराग भगवान के समक्ष क्षपक ने सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये। 10 दिन पूर्व अन्न भोजन का आजीवन त्याग, क्रमश: घटते-घटते दो दिन पूर्व चारों प्रकार के आहार त्याग कर यम सल्लेखना ग्रहण की / अंतिम दिवस उत्साह पूर्वक 500 लोगों ने सम्मिलित कर्मदहन विधान किया। इस अवसर पर क्षपक का उत्साह देखते ही बनता है। विधान के ही बीच गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माता जी माता जी का सान्निध्य, सम्बोधन क्षपकके वैराग्य वृद्धि में सहायक बना।क्षपक के उत्साह साहस और सजगता ने समूची बम्बई समाज को एक अनुकरणीय दिव्य उपदेश दिया। अंत में मत्य-महोत्सव शोभा यात्रा का भव्य आयोजन हआ।समाज का श्री रतीलाल जी का यह समाधिमरण महोत्सव नगर के श्रावक-श्राविकाओं को समाधिमरण करने के लिये प्रेरित कर गया।क्षपक ने पूर्व में दसलक्षण व्रत, सोलहकारण व्रत करके अपनी आत्म को संस्कारित किया था। दिनांक 8.1.06 रविवार, पारेख हॉल में दोपहर 2 बजे क्षपक श्री रतीभाई दोशी की अमृतभाई शाह एवं अशोकभाई शाह की अध्यक्षता में विनयांजली अर्पित की।सभाका संचालनमंत्री श्रीसरेश भाई मेहता ने किया। स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / sonarse Only