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________________ सूतक एवं मरणसूतक : शास्त्रीय चर्चा मानवजीवन में घटनाओं का क्रम चलता रहता है। कभी चाही घटना घटित होती है, तो कभी अनचाही घटना घटित होती है। चाही घटना घटित होने पर हर्ष उत्पन्न होता है और अनचाही घटना घटित होने पर शोक बढ़ता है। हर्ष के बढ़ने और शोक के बढ़ने से रागद्वेष की अधिकता मन में उत्पन्न हो जाती है। राग-द्वेष का अतिरेक ही अशौच की उत्पत्ति और वृद्धि करने वाला होता है। तात्कालिक घटनाओं से वह मानसिक अस्थिरता और अपवित्रता शीघ्र दूर नहीं होती, उसे दूर होने में/ शान्त करने में समय लगता है, वही कालशुद्धि है, उसी को सूतक और मरणसूतक कहा गया है। अर्थात् परिवार में बालक-बालिका के जन्म से होने वाली अशुद्धि को सूतक कहते हैं, यही सुआ कहा जाता है। परिवार में व्यक्ति के मरण के पश्चात् उत्पन्न हुई अशुद्धि को मरणसूतक कहते हैं। मरणसूतक को पातक भी कहा जाता है । सूतक व मरणसूतक (पातक) का विवेक भोजनशुद्धि के प्रकरण में शास्त्रों में विशेष रूप से बताया गया है किन्तु वर्तमान में कुछ लोग इसको बिल्कुल भी नहीं मानना चाहते हैं, उन्हीं की मान्यता अज्ञानता के निवारण हेतु शास्त्रीय प्रमाणों के साथ लौकिक / व्यवहारिक रूप से मान्य विधान की प्रस्तुति की जा रही है। भगवती आराधना की विजयोदयाटीका में लिखा गया है"मृतजातसूतकयुक्तगृहिजनेन दीयमाना वसतिर्दायकदुष्टा (230/444/20) जिसको मरणाशौच अथवा जननाशौच कहते हैं। यदि उसके द्वारा वसतिका दी गई हो तो वह दायक दोष से दुष्ट है। अशौच वाले व्यक्ति को वसतिका प्रदान करने का भी निषेध किया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि जो साधु गृहस्थों के निवास स्थान/ मकान कोठी में निवास/ विश्राम/ चतुर्मास करते हैं, वे दायक दोष से कैसे बच सकते हैं। उनकी मानसिक शुद्धि कैसे रहे? हाँ प्रायश्चित्तसंग्रह में जिनका सूतक नहीं लगता उनके विषय में भी कहा गया है। बालत्रयशूरत्वाज्वलनादि प्रदेशे दीक्षितैः । • अनशनप्रदेशेषु च मृतकानां खलु सूतकं नास्ति ॥1353 ॥ तीन दिन का बालक, युद्ध में मरण को प्राप्त, अग्नि आदि के द्वारा मरण को प्राप्त, जिनदीक्षित, अनशन करके Jain Education International डॉ. श्रेयांसकुमार जैन मरण को प्राप्त व्यक्तियों का मरणसूतक नहीं लगता । यहाँ अग्नि आदि के द्वारा मरण को प्राप्त व्यक्ति से अर्थ उसका है, जो किसी अग्निकाण्ड में फंस गया हो अचानक बिजली गिरने से जिसकी मौत हो गई हो उसका मरणसूतक नहीं लगेगा किन्तु जिसने अग्नि में जलकर आत्मघात किया हो, उसका मरणसूतक अवश्य लगेगा। अशौच वाले व्यक्ति को वसतिका प्रदान करने का भी निषेध किया गया है। सूतक न लगने के प्रकरण में जयसेन प्रतिष्ठापाठ से लिया गया है कि - यद्वंश्यतीर्थंरबिम्बमुदीर्य संस्था मुख्या तदीयकुलगोत्रजनिप्रवेशात् । संवृत्तगोत्रचरण प्रतिपातयोगादाशौचमावहतुनोद्यभवप्रशस्तम्।। 258 ।। जिस वंश वाला यजमान बिम्ब प्रतिष्ठा करा रहा हो, उसके वंश, कुल, गोत्र में उस दिवस से अशौच नहीं माना से यजमान के कुल में अशौच (सूतक-पातक) नहीं होता। जाता अर्थात् जिस दिन नान्दी अभिषेक हो गया हो उस दिन प्रतिष्ठापाठ के इस कथन के आधार पर यजमान के परिवार को नान्दी अभिषेक के बाद सूतक, मरणसूतक (पातक) होने पर भी पूजा-विधान करने का अधिकार है। वर्तमान में जो प्रतिष्ठाचार्य अथवा साधुजन सूतक की संभावना वाले परिवार को नाला बांधकर परिवार या निजघर से बाहर रहने की आज्ञा (सलाह) देते हैं, उसकी आवश्यकता नहीं है । यहाँ जयसेन स्वामी का यह आशय रहा होगा कि नान्दी विधान के अनन्तर यजमान के अन्तर में रागद्वेष का शमन हो जाता है, जिससे मानसिक अशौच उत्पन्न नहीं होता। सांसारिक घटनाओं के कारण से धार्मिक क्रियाओं से वंचित नहीं करना चाहिए। भरत चक्रवर्ती पुत्रोत्पत्ति होने पर भी समवशरण में आदिनाथ महाप्रभु की पूजा करने जाता है, जिसका समाधान दिया जाता है कि तिरेसठ शलाका पुरुषों को सूतक एवं मरणसूतक (पातक) का दोष नहीं लगता। उक्त व्यक्तियों से भिन्न जो गृहस्थ हैं, उन्हें सूतक मरणसूतक (पातक) का दोष अवश्य लगता है, क्योंकि मुनियों के आहारदान के प्रकरण में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मरणसूतक अथवा सूतक की अवस्था वाले यदि आहारदान देते हैं तो उसका क्या फल है? सूतक वालों को इसी के साथ जिनार्चा, देव-शास्त्र-गुरु के स्पर्श का भी मार्च 2006 जिनभाषित / 17 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524305
Book TitleJinabhashita 2006 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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