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________________ है। मुरैना के बिचौलिया तथा श्री महावीर के शांतिमंदिर की | हमेशा कायर ही बने रहते। यह पार्टीबन्दी का काम नहीं है, मूर्तियों को पूर्वमंदिर नष्ट होने पर नये मंदिर में विराजमान | हमें उदारता से विचार करना चाहिए। वर्णीजी नहीं होते, तो किया गया। जिनवाणी, संस्कृत, प्राकृत के महान् ग्रंथों व विद्वानों की यह पुरातत्त्व विभाग जैनमंदिर के विरोधी, लुटेरे, मुगल | स्थिति रहती ? महात्मा गाँधी, गुरु गोविंदसिंह, आचार्य या अन्य मूर्तिनाशक आयें, तो उनसे भी रक्षा करने के लिये | शांतिसागर जी आदि के समान आचार्य श्री विद्यासागर जी के है। साधारण पाषाणमूर्ति और वास्तु स्थान को सूरिमंत्र व मंत्र | सहयोग से नये मंदिर में बड़े बाबा की प्राचीन मूर्ति (मंदिर विधान से भगवान व जिनालय का रूप देने वाले आचार्य नहीं) की स्थापना से हम गौरवान्वित हो गए। “संस्कृति के परमेष्ठी की शुद्ध भावना से कराई गई या बताई गई इस | मंच" के काम को हम अच्छा मानते हैं, पर यहाँ उन्हें श्री योजना का विरोध करना क्या उचित है? क्षेत्र के ट्रस्टियों की एन.के. सेठी (अध्यक्ष, तीर्थ रक्षा समिति) आदि के निवेदन भी इसमें कोई दुर्भावना नहीं है, किन्त गलती यही है कि | को मानकर कुण्डलपुर देखना चाहिये। जैसा कि 'दिशा अपने चुनाव में हारे विरोधी को अनुकूल नहीं रखा। यह | बोध' के सम्पादक डॉ. चिरंजीलाल जी बगडा जगह-जगह विशाल रूप से दुष्प्रचार इन्हीं का काम है। जाकर स्थिति देखते हैं और फिर छापते हैं, उन्होंने कुण्डलपुर बड़ी मूर्ति को संकुचित स्थान से सुरक्षित निकालने | की स्थिति को देखा और सन्तोष प्रकट किया। यह मैंने में जो प्राचीन नहीं था, वही टूटा। इसे शरारती तत्त्वों द्वारा भा.दि. जैन तीर्थ रक्षा समिति की पुस्तक "मध्यप्रदेश'' के विरोध के रूप में अपराध बताया गया। नये मंदिर की भी टूट-फूट सदोष बताई गई। यह जैनों की परीक्षा का अवसर 40, सर हुकमचन्द मार्ग, था। यदि नये मंदिर में मूर्ति स्थापित नहीं होती, तो जैन मोती महल, इन्दौर बोधकथा बिना विवेक की नकल एक किसान की दो पुत्रियाँ थीं। एक विधवा व दूसरी | बनीं, वे अच्छी बनती भी कैसे? सधवा थी। इन दोनों में अत्यन्त प्रेम था। एक बार छोटी | इसी समय पतिदेव भोजन करने आये। उन्होंने पत्नी की बहिन सरला (सधवा) अपनी बड़ी बहिन विमला (विधवा) | वेषभूषा को देखा और क्रोध से लाल होकर बोले- “अरी के यहाँ पहुँची। उसने उसके स्वागत में बड़े हर्ष के साथ | मूर्ख! मेरे होते हुए तू विधवा क्यों हो रही है?'' वह बोली खाने के लिए अनेक मिष्टान्नों के साथ ही | "मेरी बहिन ने तो इसी भेष में गरम पूड़ियाँ बनाई थीं, जो उन्हें खाकर छोटी बहिन बड़ी प्रसन्न हुई व उनके बनाने की अति स्वादिष्ट बनी थीं।" विधि भी दीदी से सभी प्रकार से समझ ली। पति ने कहा- "पगली ! भेष बदलने से पड़ियाँ बनाने जब वह घर वापस आई, एक दिन उसने गरम पूड़ी बनाने को सब सामान मँगाया और बनाने लगी, परन्तु वैसी न | का क्या सम्बन्ध? तू तो वैसा ही कर रही है कि जैसे कुछ बन सकी। इसका कारण उसके समझने में कोई भूल थी। लोग रत्नत्रय धर्म पाने के लिये देखा-देखी बाह्य क्रियाकाण्ड की नकल करते हैं।" किन्तु जो उसका उपाय तत्त्वज्ञान व पति ने समझाया कि तेरे बनाने में अवश्य कहीं कोई भूल रह | गई है। फिर सरला ने सोचा कि बहिन विमला ने जब बनाई तत्त्वनिर्णय है, उसे भलीभाँति समझने का यत्न नहीं करते। थी तब वे सफेद साड़ी पहने थीं, बाल भी कटे थे। तथा हाथों सच्ची विधि तो तत्त्वज्ञान और आत्मस्थिरता, रागद्वेषादि भावों में कोई भी आभूषण नहीं था। में उपेक्षा एवं मोहजन्य परिणामों में विरक्तता है। उसके बिना धर्म की प्राप्ति कैसे संभव है? तत्त्वज्ञान के बिना कितने ही अतः मुझे भी वैसा ही करके पूड़ियाँ बनानी चाहिये। भेष बदलो, उससे अनन्त संसार के एक भी भव की कमी उसने उसी भाँति सिर मुंडाया, सफेद साड़ी भी पहिन ली व होना संभव नहीं है। हाथों में पहने हए आभषण उतार दिये। पडियों को पन: प्रस्तुति - सुशीला पाटनी बनाना आरम्भ किया, फिर भी पूड़ियाँ पहले अनुसार ही मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) मार्च 2006 जिनभाषित /5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524305
Book TitleJinabhashita 2006 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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