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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता : पं. बसन्तकुमार जी शास्त्री शिवाड़ | बतलाया गया है कि गणधर एवं श्रुतकेवली आदि के द्वारा जिज्ञासा : संयम धारण करने की योग्यता आठ वर्ष | कहे हुये ग्रन्थों को स्वाध्याय के योग्य काल में ही पढ़ना की आयु में होती है, ये आठ वर्ष जन्म से मानने चाहिये या | चाहिये। परन्तु आराधना ग्रन्थ, मृत्यु के साधनों को सूचित गर्भ से ? करने वाले ग्रन्थ पंचसंग्रह, प्रत्याख्यान तथा स्तुति के ग्रन्थ, समाधान : मनुष्यों में गर्भ से निकलने के आठ वर्ष छह आवश्यक को कहने वाले ग्रन्थ आदि जितने अन्य ग्रन्थ उपरान्त संयम धारण की योग्यता बनती है। श्री वीरसेन | हैं, वे सभी कालों में पढ़ने के योग्य हैं। स्वामी ने धवला पु. 10 पृ. 278 पर इस सम्बन्ध में इस उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार वर्तमान में भी देखा जाता है प्रकार कहा है- गब्भादो............ णुववत्तीदो। अर्थ-गर्भ से | कि मुनिसंघों में अष्टमी, चतुर्दशी आदि स्वाध्याय के अयोग्य निकलने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जाने पर | कालों में, सिद्धान्त ग्रन्थों की (श्री कषायपाहुड, श्री षट्खण्डागम संयम ग्रहण के योग्य होता है; इसके पहले संयम ग्रहण के | एवं इनकी धवला, जयधवला एवं महाधवला टीकाओं की) योग्य नहीं होता है, यह इसका भावार्थ है। गर्भ में आने के | वाचना नहीं की जाती है, जबकि दशलक्षण पर्व में अष्टमी प्रथम समय से लेकर आठ वर्षों के बीतने पर संयम ग्रहण | और चतुर्दशी के दिन भी तत्त्वार्थसूत्र की वाचना प्रत्येक के योग्य होता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु | स्थान पर होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सिद्धान्त यह घटित नहीं होता है, क्योंकि ऐसा मानने पर योनिनिष्क्रमण | ग्रन्थों का स्वाध्याय तो स्वाध्याय के योग्य कालों में ही करना रूप जन्म से, यह सूत्र-वचन (इसी पुस्तक के सूत्र नं. 72. योग्य है। शेष ग्रन्थों का स्वाध्याय कभी भी किया जा सकता 59) नहीं बन सकता। यदि गर्भ में आने के प्रथम समय से है। यहाँ यह भी जानने योग्य है कि उपर्युक्त सिद्धान्त ग्रन्थों लेकर आठ वर्ष ग्रहण किये जाते हैं तो "गर्भपतन रूप जन्म | का पठन-पाठन गृहस्थों को नहीं करना चाहिये। से आठ वर्ष का हुआ" ऐसा सूत्रकार कहते हैं, किन्तु उन्होंने | जिज्ञासा :क्या क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्ति के लिये उत्तम ऐसा नहीं कहा है। इसीलिये सात मास अधिक आठ वर्ष | संहनन होना आवश्यक है ? का होने पर संयम को प्राप्त करता है, यही अर्थ ग्रहण करना समाधान : उपर्युक्त विषय में 'संतकम्मपज्जिया' ग्रन्थ चाहिये, क्योंकि अन्यथा सूत्र में 'सर्वलघु' पद का निर्देश | में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि वज्रवृषभनाराच प्रथम संहनन घटित नहीं होता है। के अलावा अन्य पाँच संहननों के उदय सहित जीवों के उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार संयम ग्रहण करने की सबसे | दर्शनमोह को क्षपणा करने की शक्ति नहीं है। 'संतकम्मकम आयु जन्म से आठ वर्ष बीत जाने पर माननी चाहिये। पज्जिया' पृष्ठ 79 पर इस प्रकार कहा है, "पुणोवि अंतिम जिज्ञासा : धवला पुस्तक 9/257 पर कहा है कि पंचसंहऽणाणि असंखेज गुणाणि । कुदो? दुविह संजमगुणसेढि अष्टमी, चतुर्दशी और पर्व के दिनों में शास्त्र स्वाध्याय करना -सीससएणब्भहिंयमणंताणुबंधि विसंयोजयण गुणसेढिसीसया योग्य नहीं है। इसकी क्या अपेक्षा लगानी चाहिये? -णित्ति तिण्णिवि एगटुं काऊण णामकम्मसंबंधीणं अट्ठावीसेण समाधान : स्वाध्याय के अयोग्य द्रव्य, क्षेत्र एवं काल | वा तीसेण वा भजिदमेतं होदि त्ति। किम; दंसणमोहक्खवण के ऊपर धवला पुस्तक 9 पृष्ठ 255 से 257 तक अच्छी | गुणसेढीण घेप्पदे? ण, तं खवण (तक्खवणं) सत्ती एदेसि तरह प्रकाश डाला गया है। वहाँ अयोग्य काल का वर्णन संहऽणाणं उदयसहिदजीवा-णं णत्थि त्ति अभिप्पयादो" अर्थ करते हुए अष्टमी, चतुर्दशी तथा नन्दीश्वर पर्व के दिवसों और भी अन्तिम पाँच संहनन असंख्यात गने हैं। दो प्रकार के आदि में अध्ययन करने के लिये मना किया गया है। ऐसी | संयम गुणश्रेणि शीर्ष और उनमें गुणित अनन्तानुबंधी ही चर्चा मूलाचार के पंचाचाराधिकार में गाथा नं. 80 से 82 | विसंयोजन गुण श्रेणीशीर्ष इन तीनों को एकत्र करके नामकर्म तक तथा मूलाचारप्रदीप में छठे अधिकार के 32 से 37 | | सम्बन्धी अट्ठाईस अथवा तीस प्रकृतिक स्थान से भाग देने श्लोक तक भी पढने को मिलते हैं। इन गाथा व श्लोकों में पर होता है। दर्शनमोहक्षपक गुणश्रेणि का ग्रहण क्यों नहीं किया। इन संहननों के उदय सहित जीवों के दर्शनमोह को 28/मार्च 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524305
Book TitleJinabhashita 2006 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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