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ये हैं तथ्य और प्रमाण
चिंता पुरातत्त्व से बढ़कर पूरे तत्त्व की कीजिये
"जहाँ आकर सात्त्विक भाव जागृत हों, व्यक्ति परमार्थ की ओर मुड़े, आत्म कल्याण की ओर उन्मुख हो, वह क्षेत्र तीर्थ होता है। कोई क्षेत्र तीर्थ बनता है तब, जब अनेक भव्य जीवों ने वहाँ साधना की होती है, तो उनकी तप-प्रभावना का आरोप उस क्षेत्र पर हो जाता है। यह कुण्डलपुर में और अत्यधिक मात्रा में विद्यमान है। बड़े बाबा की महिमा को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता, शब्दातीत हैं 'वे' ।" यह मत कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र के बारे में आचार्य श्री विद्यासागर जी का है।
भारत के हृदयस्थल मध्यप्रदेश के सागर संभाग का एक जिला दमोह है। इस जिला मुख्यालय से लगभग 35 कि.मी. दूर पटेरा तहसील में, बुन्देलखण्ड का 'तीर्थराज ' कुण्डलपुर है, प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान का चमत्कारिक स्थान । प्राकृतिक सुषमा की आनंदमयी गोद में कुण्डलाकार पर्वत श्रेणियों के मध्य स्थित ऊँचे-ऊँचे जिनालयों वाला यह सिद्धक्षेत्र जैनधर्म की कीर्ति पताका फहरा रहा है ।
भारत की 6वीं शती की प्राचीनतम तथा विशालतम लाल बलुआ पत्थर की पद्मासन, 15 फुट ऊँची, इस भव्य आदिनाथ भगवान की प्रतिमा के दर्शन को श्रद्धा से भरपूर जैन- अजैन, बाल-अबाल, स्त्री-पुरुष, भक्तजन खिंचे चले आते हैं। दर्शन करके जयकारा करने से, भाव-विभोर भक्तों की भक्ति साकार हो जाती है। मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। बड़े बाबा की मनोहारी मूर्ति के कारण कुण्डलगिरि ख्यात है। सत्रहवीं शती के अंतिम वर्षों में इस क्षेत्र के किसी ग्रामीण को इस प्रतिमा के धड़ और शिर दिखाई दिये थे । उस समय दिगम्बर जैन परम्परा के भट्टारक मुनि श्री सुरेन्द्र कीर्ति जी अपने शिष्यों व संघ सहित विहार करते हुए इस क्षेत्र में ठहरे थे । आहार से पूर्व देवदर्शन का भट्टारक जी का नियम था। दो दिन दो रात तक भगवान के दर्शन बिना वे निराहार रहे। तब किसी ने इस प्रतिमा की जानकारी भट्टारक जी को दी थी और वे देवदर्शन हेतु भगवान की प्रतिमा स्थल तक पहुँच कर दर्शन का संकल्प पूर्ण कर सके तथा आहार ग्रहण कर पाये। जीर्णोद्धार के लिए भट्टारकजी ने वहीं चतुर्मास किया। यह विवरण मंदिर के जीर्णोद्धार - सम्बन्धी देवनागरी लिपि तथा संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण 1700 ई. के यहाँ स्थित शिलालेख में है ।
12 / मार्च 2006 जिनभाषित
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निर्मल कुमार पाटोदी कुण्डलपुर के बड़े बाबा की वेदी के बाहर अंतिम केवली श्रीधर स्वामी की निर्वाण स्थली होने के कारण यह स्थान सिद्धक्षेत्र है। ईसा से छह शताब्दियों पूर्व भगवान महावीर का समवशरण इस स्थान पर आया था। संभवतः बड़े बाबा के मूल मंदिर का निर्माण लगभग छठवीं शती में हुआ होगा । कुण्डलपुर के विषय में प्रथम विधिवत् जानकारी कुण्डलपुर नामक पुस्तक (1949) में लिपिबद्ध की गयी है। इस पुस्तक के वर्ष 1963 के संस्करण में प्रथम बार बड़े बाबा की पहचान भगवान आदिनाथ के रूप में की गयी। इसके पहले तक कुण्डलपुर के बड़े बाबा की प्रतिमा को भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा के रूप में पहचाना गया था।
सन् 1997-98 में विशेषज्ञों के दल ने मंदिर की जीर्णशीर्ण अवस्था को देखते हुए जो खतरा उत्पन्न हो गया था उसके आधार पर सुझाव दिया था कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग करते हुए पहाड़ में ग्राउटिंग करके, मंदिर का स्थान परिवर्तित करके, पीछे की ओर अन्यत्र मजबूत स्थान पर ऐसा मंदिर बनाया जाए जो रिक्टर पैमाने पर 8 तीव्रता तक के भूकम्प को सह सके। वास्तुविद् सी.वी. सोमपुरा ने वर्तमान में वायव्यमुखी प्रतिमा को पूर्व या उत्तरमुखी करके वास्तुदोष को दूर करने की अनिवार्यता पर बल दिया, जिससे प्रतिमा की स्थायी सुरक्षा की व्यवस्था की जा सके। विशेषज्ञों के सुझाव अनुसार प्रबन्धसमिति ने आचार्य श्री विद्यासागर जी का आशीर्वाद प्राप्त कर प्राचीन भारतीय पंचायतन शैली के अनुरूप पाषाण निर्मित बिना सीमेंट और लोहे के उपयोग के भव्य मंदिर निर्माण का प्रस्ताव किया। आचार्य श्री के फरवरी 1999 में कुण्डलपुर आगमन पर उनके तथा समाज के गणमान्य व्यक्तियों के समक्ष 14 फरवरी 1999 को विद्या भवन कुण्डलपुर में, विशाल धर्मसभा में यह प्रस्ताव रखा गया, जो निर्विरोध स्वीकार हुआ। 3 मार्च 1999 को देश के मान्य प्रतिष्ठाचार्य संहितासूरी पण्डित नाथूलाल जी शास्त्री, इन्दौर से विधि-विधान तथा शास्त्र सम्मत जानकारी हेतु परामर्श करके नव मंदिर का शिलान्यास किया गया।
'पुरातत्त्व विभाग को पुरातत्त्व की चिंता है। हमें पूरे तत्त्व की " यह आचार्य श्री विद्यासागर जी का मत है। इतना कुछ हो जाने पर भी निरर्थक प्रश्न हवा में उछले हैं, निराधार शंकाएँ लोगों के मन में उत्पन्न की गयी हैं और जो अकारण
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