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क्षपण करने की शक्ति नहीं है। इस अभिप्राय से उसका ग्रहण नहीं किया।
जिज्ञासा : सम्मूर्च्छन मनुष्य कहाँ-कहाँ उत्पन्न होते हैं? समाधान: मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- 1. गर्भज 2. सम्मूर्च्छन। इनमें गर्भज मनुष्य तो पर्याप्तक ही होते हैं तथा सम्मूर्च्छन मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं अर्थात् इनकी एक भी पर्याप्ति पूरी नहीं होती है। इनकी आयु श्वासोच्छ्वास के 18वें भाग प्रमाण अर्थात् लगभग 7 सेकेण्ड होती है। इनके औदारिक शरीर की अवगाहना घनाङ्गुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है, जिस कारण ये आँख के द्वारा दिखाई नहीं देते हैं। ये सभी मनुष्य पंचेन्द्रिय सैनी ही होते हैं। इनकी उत्पत्ति के स्थान के सम्बन्ध में भगवती आराधना गाथा 78182 में इस प्रकार कहा है
कर्मभूमिषु चक्रास्त्रहलभृद्धरि भूभूजाम् । स्कन्धाबारसमूहेषु प्रस्रवोच्चार भूमिषु ॥ शुक्र सिंघाणक श्लेष्मक र्णदन्तमलेषु च । अत्यन्ताशुचिदेशेषु सद्यः सम्मूर्च्छनेन य ॥ भूत्वाङ्मुलस्यासंख्येयभागमात्रशरीरकाः । आशु नश्यन्त्यपर्याप्तास्तेस्युः सम्मूर्च्छना नराः ॥ अर्थ-कर्मभूमि में चक्रवर्ती, बलभद्र वगैरह बड़े राजाओं सैन्य में मलमूत्रों का जहाँ क्षेपण करते हैं, ऐसे स्थानों पर वीर्य, नाक का मल, कफ, कान और दाँतों का मल और अत्यन्त अपवित्र प्रदेश इनमें तो तत्काल उत्पन्न होते हैं । जिनका शरीर अंगुल के असंख्यात भाग मात्र रहता है और जो जन्म लेने के बाद शीघ्र नष्ट होते हैं और जो लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं उनको सम्मूर्च्छन मनुष्य कहते हैं ।
गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 93 की टीका में इस प्रकार कहा है- " सम्मूर्च्छन मनुष्य स्त्री की योनि, कांख, स्तनों के मूल में तथा चक्रवर्ती की पटरानी के सिवाय मूत्र, विष्टा आदि अशुचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं।"
सम्मूर्च्छन मनुष्य केवल आर्यखण्ड में ही पाये जाते हैं । भरत क्षेत्र के म्लेच्छ खण्डों में तथा भोगभूमियाँ में नहीं पाये जाते जैसा कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 133 में कहा है-संमुच्छिया मणुस्सा अज्जव-खंडेसु होंति णियमेण ॥ अर्थ-सम्मूर्च्छन मनुष्य नियम से आर्यखण्डों में ही होते हैं।
श्लोकवार्तिक भाग - 5, पृष्ठ - 355 पर तत्त्वार्थसूत्र 3/ 31 की टीका में पं. माणिकचन्द्र जी कौन्देय ने लिखा है कि विजयार्ध पर्वतों पर भी लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य नहीं पाये
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जाते हैं।
इस प्रकार सम्मूर्च्छन मनुष्य कहाँ-कहाँ पाये जाते हैं, इसका उल्लेख किया गया।
प्रश्नकर्ता: सौ. स्मिता दोषी, बारामती
जिज्ञासा : मान कषाय के आठ भेद तो शास्त्रों में आठ मद के नाम से मिलते हैं तो क्या अन्य कषायों के भेद का उल्लेख भी शास्त्रों में है ?
समाधान: चारों कषायों में से मान कषाय के आठ भेद
तो जगत् प्रसिद्ध हैं ही। अन्य कषायों में माया और लोभ कषाय के भेद तो शास्त्रों में कहे गये हैं, परन्तु क्रोध कषाय के भेद मेरे देखने में नहीं आये। क्रोध कषाय के तो राजवार्तिक अध्याय 8/9 की टीका में अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन इस प्रकार सामान्य से चार रूप ही प्राप्त होते हैं, जिनके उदाहरण पर्वत रेखा, सदृश, पृथ्वी रेखा सदृश, बालू रेखा सदृश तथा जल रेखा सदृश कहे गये हैं।
माया एवं लोभ कषाय के भेद शास्त्रों में इस प्रकार कहे हैं- भगवती आराधना गाथा नं. 90 में माया कषाय के पाँच भेद कहे गये हैं, जो इस प्रकार हैं
1. धन आदि की अभिलाषा उत्पन्न होने पर किसी को फंसाने की चतुरता रूप माया का नाम निकृति है ।
2. अच्छे परिणाम को ढ़ककर धर्म के निमित्त से चोरी आदि दोषों में प्रवृत्ति करने को उपाधि नामक माया कहते हैं।
3. धन के विषय में झूठ बोलना, किसी की धरोहर का कुछ भाग हरण कर लेना, दूषण लगाना अथवा खुशामद करना सातिप्रयोग माया है।
4. हीनाधिक कीमत की सदृश वस्तुएं आपस में मिलाना, माप-तौल के बांट कम-बढ़ रखना, मिलावट करके माल बेचना यह प्रणिधि नामक माया है।
5. आलोचना करते समय अपने दोष छिपाना प्रतिकुंचन नामक माया है।
लोभकषाय के राजवार्तिक अध्याय 9 के छठे सूत्र में चार भेद कहे गये हैं, जो इस प्रकार है- 1. जीवन लोभ 2. आरोग्यलोभ 3. इन्द्रियलोभ 4. उपभोग लोभ । इनकी परिभाषा स्पष्ट है। ये चारों भेद भी प्रत्येक स्व-पर विशेष के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं।
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1/205, प्रोफेसर कालोनी
आगरा - 28002 मार्च 2006 जिनभाषित / 29
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