Book Title: Jinabhashita 2006 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 23
________________ श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, सागर, मुरैना आदि जगहों पर | प्रायः सभी ब्रह्मचारी थे। विद्वान्, संस्कारवान एवं कार्यदक्ष विद्यालयों की स्थापना हुई। इनके माध्यम से धर्म के प्रति | लोगों की एक ऐसी टीम तैयार की जिन्होंने धर्म एवं संस्कृति जागरूकता तो आयी ही जैन पण्डित परम्परा को भी एक | को जीवंतता प्रदान की और गुरुकुलों को विकास की ऊँचाईयों दिशा मिली। दक्षिण भारत के विद्यार्थी भी इन्हीं विद्यालयों में | तक पहुँचाया। आज अनेक विद्यार्थी इन गुरुकुलों में शिक्षा ज्ञान अर्जन करने आते रहे। गुरुवर समन्तभद्र जी महाराज ने प्राप्त कर अपने व्यवसाय के साथ-साथ जैनधर्म संस्कृति के दक्षिण भारत में ज्ञान की अलख जगा दी। सन् 1918 में संरक्षण का महान् कार्य कर रहे हैं। दक्षिणभारत में एक कारंजा में गुरुकुल की स्थापना की। इसके बाद तो प्रकाश प्रबुद्ध वर्ग स्थापित करने में इन गुरुकुलों का बड़ा योगदान स्तम्भ के रूप में एक के बाद एक गुरुकुल खुलते गये। रहा है। किसी ने सच ही कहा था कि 'महाराज जी को कारंजा श्राविकाश्रम, बाहबली कम्भोज,स्तवनिधि,शोलापुर, गुरुकुलों का गुरुकुल कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।' कारकल, खुरई, वेल्लाद, वागेवाड़ी, तरदेल, एलोरा आदि| दक्षिणभारत में फैले जैन मंदिरों के संरक्षण एवं सुरक्षा प्रमुख हैं। उन्होंने कुम्भोज बाहुबली को केन्द्र बनाकर दक्षिण | की परम आवश्यकता है। इस कार्य के लिये भी महाराज जी भारत के सभी गुरुकुलों में जैनधर्म एवं संस्कृति की अलख ने समाज का एवं विभिन्न संगठनों का ध्यान आकर्षित जगा दी। महाराज जी की दृढ़ संकल्प शक्ति और अद्भुत | किया, उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि दिगम्बर कार्यशैली से गुरुकुलों की स्थापना एवं विकास में सफलता | संस्कृति की धरोहर, इन तीर्थों की सुरक्षा में ही हमारी धर्म मिली। समाज ने भी उदारत र्ण सहयोग दिया। सभी संस्कृति जीवित रहेगी। तीर्थक्षेत्रों की सुरक्षा एवं विकास हेतु वर्गों का समर्थन मिला। गुरुकुल विकास पथ पर चल पडे| चलाया अभियान उन्होंने जीवन के अंत तक निभाया और और चल पड़ी जैनधर्म संस्कृति के संरक्षण की योजनायें। | अनेक विवादास्पद तीर्थों को बचाया। पूज्य महाराज जी जहाँ अपनी निर्दोष व नियमपूर्वक आपसी लड़ाई और गुटबाजी से धर्म-संस्कृति कमजोर चर्या के लिये विख्यात थे वहीं बच्चों के संस्कार निर्माण में | पडती है। महाराज जी सदैव इस बात पर बल देते थे कि एक कुशल शिल्पी के रूप में भी विख्यात रहे। बच्चों की | जैन समाज को परस्पर मतभेदों को भुलाना चाहिए। धार्मिक कक्षा स्वयं लेते थे। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक योजनाओं पूज्य गुरुवर के व्यक्तित्व व कृतित्व को देखें तो को उन्होंने साकार किया। महाराज जी में कार्य करने की | प्रतीत होता है कि नियम-संयम के पथ पर चलते हुए उन्होंने अद्भुत क्षमता थी स्वयं शिक्षित होने के कारण कभी रूढ़ियों | एक ऊर्जापूर्ण ढंग से न केवल अपनी योजनाओं पर कार्य में नहीं जकड़े। उन्होंने नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक किया बल्कि समाज को भी एक दिशा दी। विचारणीय है मूल्यों को गुरुकुलों के माध्यम से स्थापित करने का भागीरथी | कि आज हम सब इस दिशा में कितना चल पा रहे हैं। कुछ प्रयत्न किया। महाराज जी ने इस बात पर भी चिंतन किया | गुरुकुलों को छोड़ दें तो अन्य के प्रति समाज की उदासीनता कि समाज सेवा के क्षेत्र में समर्पित कार्य-कर्ताओं का अभाव | देखी जा सकती है। संस्कारों, तीर्थरक्षा, संस्कृति-संरक्षण सा रहता है और जहाँ कहीं भी समर्पित लोगों ने कार्य हाथ में | की बात करें तो योजनायें, भाषण व लेख आदि ही दिखाई दे लिया उन्हें सफलता मिली है। अतः उन्होंने व्यक्तियों और रहे हैं। अतः आवश्यकता है आज पुनः चिन्तन मनन और संस्थाओं को जोडा और समर्पित कार्यकर्ता तैयार किये, जो | विचार की ताकि समाज को एक दिशा मिले। मुनि को आहार में देने योग्य शुद्ध गुड़ बनाने की विधि गन्ने के रस को एक पतीली या कडाई में उबालने रखें। उबलने पर एक चम्मच दूध डालकर, ऊपर से मैल निकालकर गुड़ को साफ कर लें। इसके बाद उसमें दो चम्मच शुद्ध घी डाल दें। जब गुड़ की चासनी खूब गाढी हो जाये तब कढाही नीचे उतारकर उसे ठण्डा होने तक चम्मच से चलाते रहें। इस तरह शुद्ध गुड बन जायेगा। प्रस्तुति - सरिता जैन, नन्दुरवार शाहपुरा, भोपाल में कलशारोहण परमपूज्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शुभाशीष एवं पूज्य मुनि श्री चिन्मयसागर जी महाराज के पावन सानिध्य में प्रतिष्ठाचार्य बा. ब्र. अनिल जी भोपाल के | निर्देशन में दिनांक 11 एवं 12 फरवरी 2006 को श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मंदिर, शाहपुरा, भोपाल के शिखर पर कलशारोहण महोत्सव सानंद सम्पन्न हुआ। सन्तोष कुमार जैन, सचिव मार्च 2006 जिनभाषित /21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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