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पावन-स्मृति
परम पूज्य गुरुदेव 108 श्री समन्तभद्र जी महाराज
डॉ. ज्योति जैन 'खतौली'
जैनधर्म, साहित्य और संस्कृति के विकास में संपूर्ण | पथ पर चलते हुए 1952 में मुनि दीक्षा ली। वे जीवन भर दक्षिण भारत की गौरवशाली परम्परा रही है। राजवंशों, मंदिरों, | अपने पद के प्रति सावधान रहे और मुनि पद के अनुकूल मंदिर निर्माताओं, आगम ग्रंथों, आगम ग्रंथों के लेखकों | चर्या में संलग्न रहे। ज्ञान, ध्यान, तप में लीन महाराज जी ने लिपिकारों,श्रेष्ठियों और श्रावकों ने जो योगदान दिया वह | लगभग सभी प्रमुख आगम ग्रंथों का पठन-पाठन स्वाध्याय स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। भगवान बाहुबली की | एवं चिंतन-मनन किया, स्वयं पढ़ते और दूसरों को भी पढ़ने विश्व प्रसिद्ध प्रतिमा, श्रवणबेलगोला एवं दक्षिणभारत के | की प्रेरणा देते थे। जैन ग्रंथों के साथ उन्होंने स्वामी विवेकानंद, अन्य शिलालेख दक्षिणापथ के इतिहास को सुरक्षित/संजोए | स्वामी रामतीर्थ के वाङ्गमय का अध्ययन भी किया। जैन रखे है। प्राकृत एवं संस्कृत भाषा को साथ लिये स्थानीय | धर्म के सिद्धान्तों की प्रभावना एवं संरक्षण में अपना सारा भाषा को जो संरक्षण यहाँ मिला वह बेजोड़ है। मूल दिगम्बर | जीवन लगा दिया। अच्छा वक्ता बनने या भाषणबाजी की जैन आगम सुरक्षित रखने में दक्षिण का विशिष्ट योगदान | निपुणता या श्रेष्ठ प्रवचनकार बनने की लालसा उन्हें कभी रहा है। इन सभी धरोहरों के साथ 20 वीं शताब्दी में गुरुकुल नहीं रही। ख्याति नाम से दूर रहकर त्याग-संयम के नियम परम्परा को दक्षिण में एक सुदृढ़ आधार प्रदान करने वाले | को साथ लिये स्वपर कल्याण में लगे रहे ऐसे निस्पृही साधु पूज्य मुनि श्री समन्तभद्र महाराज का भी विशेष योगदान है। | आज के समय में दुर्लभ हैं। गुरुकुलों के माध्यम से दक्षिण भारत में ज्ञान का जो आलोक | पूज्य समन्तभद्र जी महाराज ने जब समाज की ओर फैलाया उससे आज भी संपूर्ण दक्षिण भारत प्रकाशवान है। | दृष्टि डाली तो उनके सामने मुख्य समस्या थी कि जैनों को
एक कुशल शिल्पी की भांति अपनी योजनाओं को | जैन' कैसे बनाये रखें। दक्षिणभारत में जैनधर्म एवं संस्कृति मर्तरूप देने वाले. बहमखी प्रतिभा के धनी, देवचंद से | में विसंगतियां आती जा रही थीं. संस्कारों का लोप होता जा समन्दभद्र महाराज तक की यात्रा करने वाले पूज्य समन्त | रहा था। इन सबको कैसे फिर से जीवित करें ? कैसे अपने भद्र जी महाराज की कर्मठता उनकी जैनधर्म संस्कृति के | गौरवशाली इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को बचायें ? प्रति गहन निष्ठा को व्यक्त करती है। उन्होंने अपनी योजनाओं | व्यक्तियों और संस्थाओं को कैसे जोडें ? भोगवादी संस्कृति को एक लघ बीज के रूप में बोकर विशाल वटवृक्ष के रूप | से यवा पीढी धर्म-संस्कृति से दर होती जा रही है, कैसे उसे में साकार किया।
दिशा दें ? खानपान प्रदूषण से लेकर वैचारिक प्रदूषण तक विद्यार्थी जीवन से ही उनके मन में देशसेवा व समाज | कैसे बचें ? जीवनचर्या कैसे व्यवस्थित बने ? आदि प्रश्न सेवा के भाव उभरते रहते थे। आजादी के आंदोलन के | उनके मन में सदैव घुमडते रहते थे और इन सबका समाधान समय उनकी राष्ट्रीयता की भावना बलवती हो गयी। वे | उन्हें गुरुकुल परम्परा में दिखा। फलतः उन्होंने कार्यकारी सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी पं.अर्जुनलाल सेठी के विद्यालय में | योजना बनाकर गुरुकुलों की स्थापना का महनीय कार्य किया पढने जयपुर आये पर उनका विचार था कि देश की सेवा | और धर्म एवं संस्कृति के मूल्यों को गुरुकुलों के द्वारा ही हिंसात्मक तरीके से नहीं वरन् अहिंसात्मक ढंग से करनी | स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने इस बात पर सदैव चाहिए। उनके क्रांतिकारी साथियों में से एक मोतीचंद को | बल दिया कि अध्यात्म तो मुख्य है पर व्यवहारिक धर्मएक केस में फांसी की सजा भी हुई थी। वे जयपुर से अपनी | क्रिया, संस्कार भी जीवन में बहुत आवश्यक हैं। सामान्य पढ़ाई पूरी कर आगे की पढ़ाई के लिये अपने मित्र बालचंद | जन सिद्धान्तों के कथन को नहीं पकड़ पाते हैं। व्यवहारिक के साथ बंबई आ गये। शिक्षा पूरी करके उन्होंने समाज सेवा | नियमों के माध्यम से, चर्चा के माध्यम से इन्हें आसानी से का मार्ग चुना और सच्चरित्र नागरिकों के निर्माण में लग गये। समझाया जा सकता है।
आत्मस्वातंत्र्य की भावना भाते हुए उन्होंने ब्रह्मचर्य | उत्तरभारत में लगभग उन्हीं दिनों वर्णी जी के प्रभाव व्रत धारण किया। 1934 में क्षुल्लक दीक्षा ली और संयम | से अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई थी। वाराणसी में 20/मार्च 2006 जिनभाषित
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