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निषेध समझना चाहिए।
करनी पड़ती है। उनके कारण उसके अत्यधिक जगप्सा आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने त्रिलोकसार में
होती है। मन मलिन होता है जिससे अशौच की उत्पत्ति होती कहा है
है। मूलाराधना की 646 गाथा टीका में जुगुप्सा दो प्रकार की
कही है। लौकिकी व लोकोत्तर/लोक व्यवहार शोधनार्थ सूतक दुब्भाव असुचिसूदगपुष्फवई जाइ संकरादीहिं।
आदि का निवारण करने के लिए जो लौकिकी जुगुप्सा की कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायते ॥924।।
जाती है वह छोड़ने योग्य है और परमार्थ या लोकोत्तर जुगुप्सा अर्थात् सूतककरि जो अपवित्र है। यदि ऐसा मनुष्य आहार
करने योग्य है। परमार्थ जुगुप्सा में विरक्ति का भाव रहता है। दान करे है तो वह कुमनुष्य विषै उपजे है।
अतः उसे करणीय बतलाया है। मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में दायक के दोषों का
| अशौच समय के साथ ही दर होता है अतः जन्म का कथन करते हुए कहा गया है-"मृतकं सूतकेन श्मशाने
सूतक और मरण का सूतक (पातक) दोष का निवारण परिक्षिप्यागतो यः स मृतक इत्युच्यते"।
सभी को करना चाहिए। जो परिवार के सदस्य के मरण के __ अर्थात् जो मृतक को श्मशान में जलाकर आया है, ऐसा | बाद तेरहवीं की प्रथा को एक-दो दिन में ही पूर्ण कर लिया मरणसूतक वाला आहार दान देने योग्य नहीं है। यही बात
| जाता है वह ठीक नहीं है क्योंकि उससे संवेदनाएँ भी शून्य पण्डित आशाधर जी ने भी लिखी है कि शव को श्मशान में | होती जाती हैं। हाँ तेरहवीं तक रोना/शोक करना आदि न छोड़कर आये हुये मरण सूतक से युक्त पुरुषों द्वारा दत्त | कर धार्मिक चर्चाएँ होना चाहिए। रिश्तेदार और कुटुम्बी आहारदायक दोष से दूषित समझना चाहिए। और जिसके जनों के आवागमन काल में संसार की असारता का वातावरण सन्तान उत्पन्न हुई हो उससे भी आहार ग्रहण नहीं करना बनाया जाए, जो पापभीरू बनाएगा। इससे आंतरिक विशुद्धि चाहिए। मोक्षपाहड की टीका में कहा गया है कि दरिद्री और | बढ़ती है। एक-दो-तीन दिन में तेरहवीं पर संसार के रागसतकवाली स्त्री के घर का विशेष रूप से आहार ग्रहण न | रंग में पर्ववत ही फंस जाते हैं। यदि काल की मर्यादा का करें। श्रावकों के लिए भी कहा गया है कि अणुव्रती श्रावकों | लाभ न होता तो आचार्यों को लिखने की क्या आवश्यकता को अपने भोजन की शुद्धि बनाये रखने के लिए सूतक | थी? इन शास्त्रों में शद्धि का जो काल बताया है उसे भी अब मरणसूतक (पातक) वाले व्यक्ति के घर का भोजन त्याग
दर्शाया जा रहा है। श्रावक की तिरेपन क्रियाओं में भी शुद्धि करना चाहिए। अर्थात् सूतक-पातक वाले व्यक्तियों के घर
के घर के काल का प्रसंग आ जाता है। आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए।
आचार्य जिनसेन ने गर्भान्वय क्रियाओं के वर्णन प्रसंग में ___ उक्त उल्लेखों/शास्त्रीय प्रमाणों को पढ़कर/सुनकर भी | बहिर्यान क्रिया को बताते हुए लिखा हैकुछ लोग सूतक,मरणसूतक (पातक) काल की अशुद्धि
बहिर्यानं ततो द्वित्रैः मासैस्त्रिचतुरैरुत। को न मानकर धार्मिक क्रियाएं करते हैं अथवा शास्त्रोक्त
यथानुकूल मिष्टऽह्वि कार्यतूर्यादिमंगलैः ।।१०।। वार्ता का निषेध करते हैं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि निम्न तथ्य अवश्य समझें कि जिस मकान/घर में
ततः प्रमृत्यभीष्टं हि शिशोः प्रसववेश्मनः। किसी का जन्म या मृत्यु होती है, वहाँ रोग, शोक की उत्पत्ति
बहिः प्रणयनं माता धात्र्युत्सड्गगस्य वा॥91।। निश्चित होती है और उसके कारण, अपवित्रता व्याप्त हो | तदनंतर (प्रसूति के) दो-तीन अथवा तीन-चार माह के जाती है जो स्नान, वस्त्र/मकान धोने से दूर न होकर यथाकाल | बाद किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजों के साथदूर होती है। बालक जब जन्मता है तो उसके साथ माता के | साथ अपनी अनुकूलता के अनुसार बहिर्यान क्रिया करनी उदर से जेर की जो उत्पत्ति होती है, उसमें अनंत जीवों का | चाहिए। जिस दिन यह क्रिया की जाए उसी दिन से माता वास होता है, उसे भूमि में गड़वाने से असंख्यात जीवों की | अथवा धाय की गोद में बैठे हुए बालक का प्रसूति गृह से हिंसा का दोष लगता है। उस पाप के कारण भी विशेष | बाहर ले जाना सम्मत है। अशौच होता है। इसी प्रकार मृतक के शरीर को अग्निदाह वर्ण भेद की अपेक्षा सूतक, मरणसूतक (पातक) की कराने से उस शरीराश्रित अनंत जीवों की हिंसा का भी दोष | अवधि पर विचार किया गया है। ब्राह्मण पाँच दिन में, लगता है। श्रावक को उक्त दोनों क्रियाएँ आवश्यक रूप से क्षत्रिय दस दिन में, वैश्य बारह दिन में और शूद्र पंद्रह दिनों
18/मार्च 2006 जिनभाषित
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