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साहित्याचार्य जी की साहित्य-साधना
डॉ. राजेश जैन भाषाओं की जननी संस्कृत के तपोनिष्ठ साहित्य मनीषी | देखकर भारत के नवरत्न-पारखी, भारतरत्न राष्ट्रपति डॉ. डॉ. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य का लेखन जैनधर्म पर आधारित | राजेन्द्रप्रसाद जी आश्चर्यचकित रह गये थे। न केवल संस्कृत धार्मिक ग्रन्थों एवं पुस्तकों के रूप में ही मुख्यतः रहा, परन्तु | साहित्य, विविध दार्शनिक चिन्तन, विचारधारा का तुलनात्मक पंडित जी का साहित्य सृजन ही समूचे संस्कृत साहित्य के | अध्येता इतना सीधा-सादा और प्रचार की दुनियाँ से दूर लिये अमूल्य धरोहर है। पंडित जी के समृद्ध रचना संसार | कैसे ? अपने करकमलों में समर्पित ग्रन्थों के ढेर को देखकर से संस्कृत की सत्ता स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है। उनमें से एक को छांटकर विद्या-विशारद डॉ. राजेन्द्रप्रसाद आज जब संस्कृत के साधकों की निरंतर कमी हो रही है तो | जी ने धड़ाघड़ प्रश्नों की बौछार लगा दी। जैसे मानस राजहंस पंडित जी का संस्कृत साहित्य ऐसे में और भी उपयोगी है। नीर-क्षीर-विवेक की शक्ति सार्थक कर रहा हो और पंडित संस्कृत भाषा के ज्ञान एवं प्रचार-प्रसार के लिहाज से तो | साहित्याचार्य जी ने तड़ातड़ प्रश्नोत्तर देना प्रारम्भ कर दिया पंडित जी का साहित्य लेखन मील का पत्थर साबित हो | जैसे कोई डी.लिट कराने वाला निर्देशक बोल रहा है। राष्ट्रपति सकता है। संस्कृत के लिये काम करने वालों को चाहिये । महोदय ने अपने गले लगाकर संस्कृत के प्रति, संस्कृत कि वे पंडित जी द्वारा रचित साहित्य का अध्ययन अवश्य करें। | साहित्य के प्रति, संस्कृत साहित्य सेवा मनीषी के प्रति __सरस्वती आराधक, कुशल लेखक, प्रभावी प्रवक्ता, विवाद | अपने सौजन्य का परिचय दिया। रहित विद्वत्ता के संगम स्व. साहित्याचार्य जी(05.03.1911- | साहित्याचार्य डॉ. पन्नालाल जी विरचित 'चिन्तामणि-त्रय 09.03.2001) मध्यप्रदेश सागर जिले के पारगुवां ग्राम के | का समीक्षात्मक अध्ययन' शीर्षक विषय पर डॉ. हरीसिंह स्व. श्री गल्लीलाल-स्व.श्रीमती जानकी बाई की संतान एक | गौर विश्वविद्यालय सागर के द्वारा पीएच.डी. की उपाधि के ऐसे दैदीप्यमान रत्न थे जिन्होंने अपनी लेखनी विद्वत्ता से | अतिरिक्त देश में अनेक जगह पंडितजी को सम्मानित किया। जैनागम को सरल भाषा में जन-जन पहँचाने में महती भूमिका | सन् 19960 में जीवन्धर चम्पू पर मध्यप्रदेश शासन साहित्य का निर्वाह किया।
परिषद् की ओर से मित्र पुरस्कार, 1974 में गद्यचिन्तामणि __पूज्य संत गणेश प्रसाद जी वर्णी की प्रेरणा से सन् 1931 | पर अखिल भारतीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् के तत्त्वावधान में जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर में साहित्य अध्यापक के | में भारतीयज्ञानपीठ द्वारा गणेशप्रसादवर्णी पुरस्कार, 1974 में रूप में कार्य प्रारंभ कर दिया तब से अनवरत शिक्षक एवं | श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति इन्दौर ने पुरुदेव चम्पू सन् 1977 से 1983 तक प्राचार्य रहे। अपनी वृद्धावस्था के | ग्रन्थ पर आपको सम्मानित एवं पुरस्कृत किया। जैनविद्या कारण प्राचार्य पद से मुक्त होकर शेष जीवन पर्यन्त अपनी | संस्थान ने 1983 के महावरी पुरस्कार के लिये सम्यक्त्व सेवाएं वर्णी गुरुकुल जबलपुर को देते रहे।
चिन्तामणि को चुना है। इस प्रकार पंडित जी द्वारा सम्पादित ___पंडित जी ने अपने जीवन में जितनी साहित्यिक सेवा | साहित्य का समादर हुआ। पंडित जी की विद्वत्ता से प्रभावित की और उनकी सेवाओं का जितना सम्मान सामाजिक और | होकर भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री बी.बी.गिरि ने सन् राष्ट्रीय स्तर पर किया गया उनकी क्षमता का कोई व्यक्ति ] 1969 में आदर्श शिक्षक के रूप में राष्ट्रीय पुरस्कार से दशाब्दियों में दृष्टिगोचर नहीं होता है। पंडित जी की मौलिक सम्मानित किया है। 1973 में विद्वत् परिषद् ने पंडित जी की रचनाओं में सम्यक्त्वचिंतामणि, सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, सम्यक् सेवाओं के फलस्वरूप सम्मानित कर रजत पट्ट पर प्रशस्ति चारित्रगद्यचिन्तामणि, जीवन्धर चम्पू, वर्णीग्रन्थमाला, | प्रदान की है। इसके अतिरिक्त प्रदेश स्तर पर सार्वजनिक क्षत्रचूड़ालंकार, अनुवादित ग्रन्थ आदिपुराण, उत्तरपुराण, | संस्थाओं-संगठनों तथा सामाजिक अखिल भारतीय स्तर तक पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, स्नकरण्डकश्रावकाचार इत्यादि प्रमुख हैं। की संस्थाओं ने पंडित जी की सेवाओं का मूल्यांकन कर संस्कृत साहित्य की सेवा एवं संस्कृत शिक्षा के क्षेत्र में | उन्हें सम्मानित किया है।
स से भी अधिक वर्षों से संलग्न, संस्कृत के | अपनी अंतिम इच्छा के अनुरूप आचार्य श्री विद्यासागर उद्भट विद्वान् तथा साहित्य-मनीषी पंडित जी, संस्कृत ] जी महाराज के (कुण्डलपुर गजरथ के समय) चरणों में देह जगत् के वह दैदीप्यमान रत्न हैं। जिनकी साहित्य सेवा को | त्यागी। 22 / मार्च 2006 जिनभाषित
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