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प्रवचनांश
देव मूढ़ता
संसार में जीव अपने विकृत राग-द्वेष, मोह आदि परिणामों द्वारा कर्मबंध किया करता है। उन विकृत भावों में से कुछ भाव शुभ होते हैं- जैसे कि वीतराग देव की भक्ति, निर्ग्रन्थ गुरु की सेवा, जिनवाणी का स्वाध्याय, तीर्थयात्रा, व्रतनियम आचरण, दया, दान, परोपकार, दीन दुःखी जीवों की सेवा आदि, ऐसे भाव शुभ कहलाते हैं। इन शुभ भावों के द्वारा, जीव अपने भविष्य के लिये कुछ सुख शांति के साधन मिलाने वाले पुण्य कर्म का उपार्जन करता है, जिससे अन्य भव में अच्छा शरीर, अच्छी आयु, अच्छा परिवार, अच्छा कुल, गुणों का विकास, सत्संगति आदि अच्छे साधन मिला करते हैं, जिनके द्वारा वह अन्य असंख्य दु:खी प्राणियों की अपेक्षा सुख शांति अनुभव करता है।
अन्य प्राणियों को दुःख देना, अभक्ष्य, माँस-मदिरा आदि खाना-पीना, असत्य बोलना, चोरी करना, व्यभिचार करना, धन संचय करके उसके द्वारा अपना तथा जनता का कुछ उपकार न करना, दान न करना, तीर्थयात्रा, भगवत् पूजा, गुरुवंदना न करना, व्रत नियम आदि न करना, सदा विषय भोगों में लगे रहना । क्रोध, अभिमान, धोखेबाजी, विश्वासघात आदि करना इत्यादि बुरे भाव हैं। ऐसे बुरे भावों के द्वारा जीव पाप कर्मों का उपार्जन करता है । पापकर्म के उदय से दुःख व्याकुलताकारक अनिष्ट सामग्री मिलती है। जैसे कि रोगी, कुरूप शरीर मिलना, नीच कुल में जन्म लेना, दुर्गुणी कलहकारक परिवार मिलना, दरिद्रता प्राप्त होना इत्यादि ।
संसारी जीवों को मध्यम दर्जे की सुख सामग्री मनुष्य गति में अच्छे कुल में जन्म लेकर मिला करती है, अधिक पुण्य कर्म के योग से जीव को देवगति प्राप्त होती है, अत्यंत अशुभ कार्य करने से जीव नरक में जाता है और मध्यम श्रेणी का पापकर्म उपार्जन करने से पशु पक्षी आदि होता है। पुण्यकर्म असंख्य तरह के होते हैं, अत: उनके फलस्वरूप सुखदायक शरीर भी असंख्य तरह के होते हैं, इसी कारण न सब देव एक समान होते हैं, अनेक मध्यम श्रेणी के सुखी हैं और अनेक निम्न श्रेणी के होते हैं । जिनका जीव दुःखमय होता है, इसी पापकर्म की असंख्य श्रेणियाँ हैं और उनके फलस्वरूप पशु पक्षियों में दुःख सुख की तरतमता तथा नारकियों में दुःख का तारतम्य प्राप्त होता है ।
यद्यपि देव, मनुष्य, पशु, नरक ये चार गतियाँ हैं और इनमें जन्म लेने के स्थान रूप योनि ८४ लाख प्रकार की हैं, परंतु शरीर असंख्य प्रकार का होता है और कुल-जाति, परिवार आदि उपलब्ध सामग्री भी असंख्य तरह की अपने-अपने उपार्जित पुण्य पाप रूप कर्मों के उदय अनुसार मिला करती है।
इनमें से हमको मनुष्य पशु पक्षी आदि तिर्यंच जीव तो यहाँ दिखाई देते हैं परंतु नारकी तथा देव दिखाई नहीं देते। उन दोनों तरह के जीवों की सत्ता अर्हन्त सर्वज्ञ की वाणी के अनुसार शास्त्रीय प्रमाण से मानी जाती है। इसके सिवाय अनेक स्त्री पुरुषों
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आचार्य श्री देशभूषण जी
पर भूत प्रेतों की बाधा होते भी देखी जाती है, इसलिये देवों का अस्तित्व अनुमान से भी सिद्ध होता है।
दिव् धातु से देव शब्द बना है। दिव धातु के क्रीड़ा करना, जीतने की इच्छा करना आदि अनेक अर्थ हैं। देवों के वैक्रियिक शरीर होता है, हमारी तरह हड्डी, माँस आदि सात धातुओं वाला औदारिक शरीर नहीं होता। इसी कारण वे अनेक तरह की विक्रिया (रूप) कर सकते हैं। यह विक्रिया ऋद्धि अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अन्तर्धान, अप्रतिघात, कामरूपित्व आदि अनेक प्रकार की हैं।
अपना शरीर परमाणु जैसा छोटा बना लेने की शक्ति अणिमा है। पहाड़ जैसा तथा उससे भी बड़ा अपना शरीर बनाने की शक्ति महिमा है। रूई की तरह अपना शरीर हल्का बना लेने की शक्ति लघिमा है। लोहे पत्थर की तरह अपना बहुत भारी शरीर बना लेने की शक्ति गरिमा है। पृथ्वी पर बैठे अपनी उंगली से सूर्य चन्द्र आदि छू लेने की शक्ति प्राप्ति है। पृथ्वी पर जल में डुबकी सी लगाते हुए और जल में पृथ्वी की तरह चल सकने की शक्ति प्राकाम्य है । अपना खूब अच्छा राजा महाराजाओं से भी अधिक ठाट-बाट बना लेने की शक्ति ईशित्व है।
अन्य जीवों को अपने वश में कर लेने की शक्ति वशित्व है। तत्काल अपना शरीर अदृश्य (न दिखने वाला) बना लेने की शक्ति अंतर्धान है। पर्वत आदि में से बिना रूकावट के आने वाले निकल जाने की शक्ति अप्रतिघात है । अनेक प्रकार के रूप और अनेक शरीर बना लेने की शक्ति कामरूपित्व है 1
इस प्रकार विक्रिया ऋद्धि के कारण देवों के शरीर में मनुष्य की अपेक्षा अनेक महत्वपूर्ण विशेषताएँ पाई जाती हैं, उनमें बल भी मनुष्य की अपेक्षा अधिक होता है, इसी कारण वे अनेक चमत्कार पूर्ण कार्य कर डालते हैं। देव स्वर्गों में, मध्यलोक तथा पाताल में भी रहते हैं उनकी अनेक जातियाँ हैं । वैमानिक देव । स्वर्गों में रहते हैं। ज्योतिषी देव मध्यलोक में रहते हैं। भवनवासी अधोलोक में रहते हैं और व्यन्तर देवों में कुछ अधोलोक में और कुछ मध्यलोक में ही रहते हैं। भूत पिशाच आदि व्यंतर देवों के ही भेद हैं।
विक्रिया ऋद्धि के कारण देवों में यद्यपि साधारण मनुष्यों से अधिक बल विक्रम तथा विशेषता होती है, उन्हें जन्म भर कोई रोग नहीं होता, बुढ़ापा नहीं आता, भूख प्यास लगते ही उनके गले से स्वयं अमृत झरकर उनकी भूख-प्यास को शांत कर देता है। उनको जन्म भर कोई शारीरिक कष्ट नहीं हुआ करता, इस दृष्टि से देवों का जीवन मनुष्यों की अपेक्षा अधिक सुखी समझा जाता है। परंतु मनुष्य शरीर में आध्यात्मिक गुणों का विकास देवों की अपेक्षा भी अधिक हो सकता है।
मनुष्य ही उन शुभ कर्मों का उपार्जन कर सकता है जिनके
• फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित
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