Book Title: Jinabhashita 2005 02 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 27
________________ तथा आधुनिक विज्ञान आदि के ज्ञान का अभाव, बहुविज्ञता का | मनमोहक और रमणीय आकाश में वह खो जाता है और अपने अभाव भी उन्हें दकियानूसी और पिछड़ा जैसा बना देता है। लक्ष्यों तथा उसके प्रति किये जाने वाले कार्यों के लिए अथक सारांश यह है कि एक होनहार प्रशिक्षित शास्त्री युवा वर्ग यह तय | कठिन परिश्रम हेतु आधारभूमि ही तैयार नहीं कर पाता है। नहीं कर पा रहा है कि वह किस तलाश में है और हम हैं कि | आज हम धीरे धीरे ही सही पर युवा पीढ़ी के बहुप्रतीक्षित उसे दिशा नहीं दे पा रहे हैं और उनका और उनके ज्ञान का सही | उस उभार को देख रहे हैं जिस पर सभी की आशा भरी नज़रें उपयोग नहीं कर पा रहे है। यह सब कुछ विगत कई वर्षों से | टिकी हैं। दुःख सिर्फ इस बात का हो रहा है कि हम जिन्हें बहुत विद्यार्थी विद्वानों से हुयी बातचीत तथा उनके द्वारा पूछे जाने वाले | मुश्किल से पा रहे हैं, मगर उनका सही उपयोग न कर सक पाने प्रश्नों के आधार पर ही लिख पा रहा हूँ। . की वजह से उनके होते हुए भी उन्हें खो रहे हैं। वे आखिर जायें कहाँ? एक निवेदन वास्तव में यह बहुत बड़ी समस्या है। मात्र शास्त्र ज्ञान आज जरूरत है कि हम राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय स्तर के प्राप्तकर वे जायें कहाँ? शुक्र है समाज में भी कुछ छोटी-छोटी | कुछ ऐसे बड़े संस्थानों की स्थापना करें जिनमें हम शास्त्रीय पद्धति नौकरियाँ हैं जो इन्हें दो तीन या अधिक से अधिक चार-पाँच से तैयार हुए इन प्रतिभाशाली युवा विद्वानों का सही नियोजन कर हजार रू. महीने का काम दे देते हैं। मगर क्या काम देते हैं? | उनकी प्रतिभा का सदुपयोग कर सकें। एक ऐसी संस्था जो संस्थाएँ सम्भालना, व्यवस्थापक बना देना और विद्वान् होने के | साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर सोचे। जहाँ उच्च स्तर की मानसिकता नाते ज्यादा से ज्यादा एक समय पूजा और प्रवचन करवा देना। मेरे | वाले लोग ट्रस्टी हों न कि मात्र पैसे वाले। इन युवाओं को जहाँ मन में प्रश्न उठता है कि यह उनका सहयोग है या उस प्रतिभा | व्यवस्थित ट्रेनिंग दी जा सके। जिस क्षेत्र में उनकी प्रतिभा है का दुरूपयोग? दिनरात छोटी-छोटी व्यवस्थाओं को सम्भालते हुए उसका स्वतंत्र विकास करने का उसे जहाँ अवसर मिल सके। हम वह कितना अध्ययन, चिन्तन-मनन, लेखन, सम्पादन, शोध कर | तो समाज से नहीं वरन् भारत सरकार से यह अपेक्षा रखेंगे कि पायेगा? वह भी मजबूर है, अपनी आजीविका के लिए वह सब | जिस प्रकार वो वैदिक ज्ञान विज्ञान और संस्कृत, उर्दू भाषा के कुछ करने को तैयार है? एक उच्च शिक्षा से शिक्षित, शास्त्र ज्ञान में | लिए करोड़ों-अरबों रूपये भारतीय संस्कृति की सुरक्षा के आधार पारंगत युवा महज आजीविका के लिए उस काम में खप जाता है पर खर्च करती है। उसी प्रकार भारत की सर्वाधिक अति जो काम दसवीं बारहवीं फेल युवा भी बखूबी कर सकते हैं और अल्पसंख्यक किन्तु सर्वाधिक प्राचीन तथा वास्तव में भारतवर्ष की कई स्थलों पर कहीं अधिक सफलतापूर्वक कर भी रहे हैं। हमारे | मूल जैन समाज, जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति, कला तथा प्राकृतभाषा पास ऐसे प्रशिक्षित तथा समर्पित युवाओं को नियोजित करने के | वैभव के संरक्षण, संवर्धन के लिए भी कुछ स्थायी बजट बनायें लिए चिरकालिक बृहद् योजनाओं का नितान्त अभाव है। कामचलाऊ । तभी सच्चे लोकतंत्र का सम्मान भी रह सकेगा। इस आलेख के और अल्पकालिक योजनाओं से जिनका खुद का कोई भविष्य माध्यम से मेरा निवेदन है सभी आदरणीय विद्वानों, जिनवाणी के नहीं है, कुछ नहीं होता। सेवक विद्यार्थियों, सभी सामाजिक विचारकों तथा मुनिराज एवं विचार बिन्दु आर्यिका माताओं से कि वे इस विचार श्रृंखला को यहीं विराम न बात साफ है ऊँचे-ऊँचे आदर्शों को लेकर अपनी शिक्षा | दें, बल्कि खुले रूप से इन विचारों में परिष्कार, बहस, सहमति, की शुरुआत करने वाली ये पीढ़ी, शिक्षा पूरी करने के उपरान्त जब असहमति को अभिव्यक्त करें और उन्हें मुझे लिखें अथव पत्रखुद को जीवन के वास्तविक धरातल पर पाती है तब उसे एक पत्रिकाओं में प्रकाशित करवायें। ताकि इस विषय पर सार्वजनिक ऐसे ही विरोधी जीवन से गुजरना पड़ता है। उसे पहली बार | रूप से गहन विचार-विमर्श चले। उससे हो सकता है कि हम महसूस होता है कि बहुत अल्पावस्था और अल्पज्ञान में मिल | किसी स्थायी निष्कर्ष पर पहुँच जायें। चुके मंचीय मायावी फूलमालाओं का सम्मान और प्रतिष्ठा ने उसे | रही बात स्याद्वाद महाविद्यालय के शताब्दी समारोह की, वास्तविक जीवन और ठोस बुनियादी सरोकारों से कितना दूर कर मैंने कहीं एक पंक्ति पढ़ी थी- 'देश हमें देता है सब कुछ, हम भी दिया था। जिसके छद्म दायरे में रहकर वह अपनी ज्ञानाराधना को तो कुछ देना सीखें'। इसी तर्ज पर बस इतना हीविद्यातप की उस भट्टी में तपाकर निखार नहीं पाया जिससे 'स्याद्वाद' ने दिया बहुत कुछ निखरकर वास्तविक अर्थों में शास्त्रीय सैद्धान्तिक गहनता आती है हम भी तो कुछ देना सीखें। और व्यक्तित्व तेज होता है तथा वाणी में गम्भीर वाक्चातुर्य सामने बनें कृतज्ञ कृतघ्न नहीं। आता है। रूढ़िग्रस्त और अर्ध शिक्षित समाज द्वारा प्रवचनादि के अर्जन के साथ विसर्जन सीखें। लिए अल्पावस्था में मिले सम्मानित सामाजिक उपाधियों के अध्यक्ष - जैन दर्शन विभाग अलंकार, मन को बहकाने वाले अभिनन्दन और सम्मानपत्रों के श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय) नई दिल्ली - ११००१६ -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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