Book Title: Jinabhashita 2005 02 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 42
________________ भेद का असंग्रह नहीं हुआ। इन 21 भेदों में सभी औदयिक भावों | इसकी टीका करते हुये, 'अन्य वेलाकृतं शीतलान्नम्' का अन्तर्भाव हो जाता है। अर्थात् अन्य बेला में बनाया हुआ अर्थात् जो तुरंत का बनाया हुआ उपरोक्त प्रमाण से स्पष्ट होता है कि हास्य, रति, अरति, | गर्मागर्म न हो अर्थात् शीतल हो गया हो, इसतरह का आहार साधु शोक, भय, जुगुप्सा इन नो कषायों का लिंग में अन्तर्भाव मानना | के लिए करने योग्य है। चाहिए। । उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है मुनिराज के आ जाने पर उनके जिज्ञासा - क्या मुनिराज को आहार में गर्म रोटी आदि समक्ष गर्मागर्म भोजन बनाकर देना शास्त्र विरुद्ध क्रिया है। विवेकी तुरंत बनाकर देना उचित है? दाता को कभी भी ऐसा गलत कार्य नहीं करना चाहिए। मुनि को समाधान - 'श्रीवामदेव रचित संस्कृत-भाव संग्रह' में | आहार देते समय, ऐसा देखा जाता है कि मुनिराज द्वारा उनकी इसप्रकार कहा है - अंजुलि में दिए गए जल को, कम गर्म बताने पर कुछ लोग अंदर उद्दिष्टं विक्रयानीतमुद्दारस्वीकृतं तथा। चौके में जाकर चुपचाप अग्नि जलाकर पानी गर्म करके ले आते परिवत्यं समानीतं देशान्तरात्समागतम ॥८१॥ हैं। ऐसा करना नितांत अनुचित है। उस दाता को चाहिए कि वह अप्रासुकेन सम्मिश्रं मुक्तिभाजनमिश्रता। मुनिराज से निवेदन करे कि इससे अधिक गर्म पानी उसके पास अधिका पाकसंवृद्धिर्मुनिवृन्दे समागते ॥८२॥ नहीं है। आजकल कुछ ब्रह्मचारी भैया लोग या बहिनें मुनिराज अर्थ - साधु के उद्देश्य से बनाया गया, खरीदकर या कुछ को आहार देते समय चौके में आ जाते हैं कि 'महाराज गर्म रोटी वस्तु बेचकर लाया गया, किसी पात्र में से निकाला गया, दूसरे का | लेते हैं, इन्हें गर्म-गर्म सेककर दो' परंतु उनका इस प्रकार कहना दिया हुआ स्वीकृत आहार, परिवर्तन करके लाया गया, देशांतर से | एकदम आगमविरुद्ध है। उनको ऐसा कहकर गलत क्रिया को आया हुआ, अप्रासुक वस्तु से मिश्रित आहार, खाने के पात्र से प्रोत्साहन कभी नहीं देना चाहिए। सुधी श्रावक को भी उनकी मिश्रित तथा मुनिजनों के आने पर पकाई जाने वाली वस्तु को दोषों | बातों में आकर या उनसे डरकर कभी भी मुनिराज के पड़गाहन हो के समुदाय रूप होने के कारण प्रयत्न पूर्वक त्याग कर देना | जाने पर, तुरंत बनाई हुई गर्म रोटी आदि या अन्य कोई वस्तु कभी चाहिए। नहीं देना चाहिए। 2. श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ४४६ की टीका में भी शुभचन्द्राचार्य ने इस प्रकार कहा है - 1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, अरसंच अण्णवेलाकदंच सुद्धोदणंच लुक्खंच। आगरा = 282 002 आयंविलमायामोदणं च विगडोदण चेव ॥ सूरज के तथाकथित पुत्र सुरेश जैन 'सरल' सूरज को 'बाप' बनाकर /तुम सभी पर इतराते हो अनेक दुर्गुणों के बाद भी सब पर छा जाते हो अभी तुम्हारे इतराने का समय है, अत: पाँव जमीन पर कैसे धर पाओगे? कल जब समय-सम्राट करवट लेगा तब तुम एक भ्रष्टाचारी मात्र रह जाओगे, सुनो, दबिश, दबदबा और तुम्हारे महल/तब एक साथ ढह जायेंगे, और गलियों में तुम्हारे यशः पुतले धूलधूसरित पड़े रह जायेंगे, नगर में केवल 'आदमी' दिखायेंगे आदमी, जो ट्रस्टी हैं किन्तु ईमानदार, जिनके आभूषण हैं, सेवा और सदाचार।। तुम्हारा भविष्य स्पष्ट है, सूरज का सानिध्य छूट जाने के बाद/तुम अपनी काबलियत समझ जाओगे तब अपनी ही दृष्टि में एक भिखारी दिखलाओगे सच, औकात समझ जाओगे अतः अपने कारनामों से, खुद को और सूरज को बदनाम न करो, 'बबूल' के घर जन्म लेकर नामकरण'आम' न करो। 293, गढ़ाफाटक, जबलपुर 40 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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