Book Title: Jinabhashita 2005 02 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ लगन और निष्ठा नहीं है वह तो सिर्फ नाम के लिए ही कार्य करना | निकालने के लिए हम सभी को ऐसा सोचना चाहिए - चाहते हैं । यदि कार्य सच्चे मन से किया जाये तो कोई मजबूरी कोई किसी से क्या ले जाता है। बाधक नहीं बन सकती। ईर्ष्या को समाप्त करने के लिए हमें सिर्फ कोई किसी को क्या देजाता है। यही ध्यान रखना चाहिए। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के दो पल धीरज के बोल दो। शब्दों में तुम्हारी जेब से क्या जाता है। स्वार्थ प्रतिसभी कोई किसी का नहीं। इसीलिए हम सभी का यह कर्त्तव्य है कि जितना भी समय मैं हूँ तुम्हा:। और मेरे तुम यहाँ हैं क्यों नहीं॥ हमें मिला है इसका उपयोग समाज कल्याण, लोगों की भलाई, दया तुम सोचकर खो कि दुनिया सहज दुःखों से है भरी। धर्म के पालन तथा धैर्य धारण करने में लगायें। जब हम किसी को जाता नहीं है साथ में यह देह भी इस जीव का। कुछ भी नहीं दे सकते, तो फिर तुम्हारी, ईर्ष्या की सोच से भी आत्मा इस संसार में सभी व्यक्ति स्वार्थी हैं कोई किसी का नहीं का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। संसार में आप किसी का कुछ है। यह दुनियाँ तो दुःखों से ही भरी हुई है, यहाँ कोई किसी के नुकसान भी कर सकते हैं परंतु आपका अशुभ कर्म आपको दुःख ही साथ नहीं जाता है , यहाँ तक कि यह शरीर भी जीव के साथ पहुँचायेगा। आप किसी से ईर्ष्या करें और आपको सुख भी मिलता नहीं जाता है। अतः विचार करो कि ईर्ष्या के भाव से हमें सुख | रहेगा, ऐसा किसी भी स्थिति में संभव नहीं है। इसलिए ईर्ष्या के कहाँ मिल सकता है? ईर्ष्या तो दुःखों की जननी है द्वेष, बैर, विकृत विचार को मन से निकालने का निरंतर प्रयास करते रहना विरोध, डाह आदि सब ईर्ष्या के परिणाम मानना चाहिए। शांति, चाहिए। यह विचार निरंतर रखना चाहिए कि ईर्ष्या दु:ख का.मूल, सदाचार और सदभावना को ईर्ष्या नष्ट कर देती है। जबकि इनके | पतन का कारण तथा लक्ष्य प्राप्ति में बाधक है। बिना सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईर्ष्या को मन से सनावद (मध्य प्रदेश) कृपया ध्यान से पढ़िए कृपया ध्यान से पढ़िए नींबू का सत ( टांटरी) मांसाहारी है नींबू का सत-फूल - CITRIC ACID नींबू सत, नींबू से नहीं बनता। यूँ कहो तो चलेगा कि नींबू और खट्टे फल से भी इसका दूर-दूर तक वास्ता नहीं। बल्कि कई रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा प्राप्त होने वाला यह पदार्थ असंख्य जीवों की हिंसा से बनता है। शक्कर बनाते समय शीरा अर्थात् एक प्रकार का मीठा प्रवाही बचता है। उस मीठे प्रवाही को एक बड़े धातु के बर्तन में लिया जाता है, फिर २५० ग्राम (पाव किलो) जितने, विशेष प्रकार के जीवाणु उसमें डाले जाते हैं। जिनका हलन-चलन माइक्रोस्कोप से देखा जा सकता है। पलक झपकते ही इन जीवाणुओं की संख्या बढ़ती चली जाती है। ये जीवाणु आहार (भोजन) में मीठा प्रवाही लेते हैं और निहार द्वारा खट्टा प्रवाही बाहर निकालते हैं। यह प्रक्रिया निरंतर सात दिन तक चलती रहती है। सात दिनों के बाद प्रवाही खट्टा हो जाने पर उसे गर्म भाप से निकाला जाता है, जिससे उसमें रहे हुए सभी जीवाणुओं का नाश हो जाता है। फिर उस प्रवाही को बारीक छलनी (फिल्टर) से छाना जाता है। छलनी में मरे हुए जीवाणुओं का आठ से दस किलो लोंदा निकलता है, जिसे थोड़े ही समय में जमीन में गाड़ दिया जाता है। फिर से उबाला जाता है, जिससे प्रवाही मोटा बन जाता है। जिसमें से मशीन से छोटे-छोटे पारदर्शी क्रीस्टल बनाये जाते हैं। ये क्रिस्टल अर्थात् नींबू सत या नींबू के फूल के नाम से पहचाना जाता है। इसका उपयोग शीतल पेय. पीपरमेंट, चॉकलेट, शरबत, दवाई, नमकीन एवं रसोई में किया जाता है। इतनी हिंसक प्रक्रिया को जानने के बाद अहिंसा प्रेमी एवं साधु-संत, समाज इसका प्रचार कर इसके उपयोग को बंद करने का निश्चय करें और इसके विकल्प से काम करने की आदत डालें। संभावित विकल्प नींबू का ताजा रस, टमाटर का सिरका, इमली का पानी, आँवले का रस, खट्टे फलों का रस, खट्टे शाक-सब्जी जड़ी बूटी आदि....... संकलन : सौ. सरिता जैन, नंदुरवार -फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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