________________
मानव की विकृत सोच : ईर्ष्या
डॉ.नरेन्द्र जैन 'भारती' परमात्मा की सर्वोच्च रचना (कृति) है मानव। सम्यक् | पत्रकार अच्छा लेखक तथा संवाददाता हो सकता है, परंतु वह भी श्रद्धा, सम्यक ज्ञान और सम्यक् आचरण रूप तीन रत्नों की शक्ति | आगे बढ़ने के लिए दूसरे को पीछे धकेलना चाहता है। अपने इस स्वाभाविक रूप से उसे मिली है। परंतु कर्माधीन होने के कारण | अहं की पूर्ति के लिए वह अपने समान कार्य करने वाले लेखकों, व्यक्ति को कभी इनका लाभ मिल पाता है, कभी नहीं। मनुष्य | विद्वानों और समाचार प्रेषकों के समाचार इसलिए नहीं छापता यदि सत्कर्म करता है तो उसे श्रेष्ठ फल मिलता है। परंतु यदि क्योंकि उसके अंदर ईर्ष्या की भावना कार्य कर रही है। विद्वान विपरीत (बुरे) कार्य करता है, तो उसे अच्छा फल भी नहीं | तथा साधु भी आज एक दूसरे के अच्छे कार्यों की प्रशंसा नहीं मिलता और दुःखी भी रहता है । व्यक्ति अच्छी सोच के साथ | करते। ये सब ईर्ष्या के ही कारण हैं। ईर्ष्या का कर्म सभी जगह कार्य करें तो उसके विकृत विचार समाप्त होते हैं। इन विकृत दुखदायी है। आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज ने लिखा है-- विचारों में एक प्रमुख सोच है - ईर्ष्या। द्वेष, बैर, विरोध, हिंसा जो जैसा करता है वैसा दुःख और सुख भ ता है। की उत्पत्ति का कारण ईर्ष्या है। किसी ने कहा है -
मिश्री खाने से मुँह मीठा, जहर से तो नर मरता है। आदमियों से भरी ये भली दुनिया मगर।
अर्थात जो व्यक्ति जैसा करता है उसी के अनुसार दुःख आदमी को आदमी से ही है खतरा बहुत॥
और सुख को प्राप्त करता है। यदि व्यक्ति मिश्री को खायेगा तो उसका सम्पूर्ण सृष्टि में अनंतानंत जीवराशि भरी पड़ी है। जिन्हें | मुँह मीठा होगा लेकिन जहर खायेगा तो मनुष्य मरता ही है। ईर्ष्यालु नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के जीवों में विभक्त किया गया | व्यक्ति की कुछ विशेषताएँ होती हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति निरंतर दूसरे के कार्यों है। इन सभी गतियों में मनुष्य गति को श्रेष्ठ बताया गया है, को देखकर जलता है, घमंड करता है, कपट की भावना उसमें भरी क्योंकि मानव त्याग और तपस्या के माध्यम से शांति, समता, | रहती है। कपट की स्थिति ठीक इसतरह होती हैसद्भावना, सहिष्णुता का अनुकरण कर स्वर्ग त ! मोक्ष प्राप्त कर
तन गोरा मन सांवला, बगुले जैसा भेष। लेता है। इस दुनिया में असंख्य मानव हैं जो किसी न किसी
तो सो तो कागा भला, भीतर बाहर एक। आध्यात्मिक शक्ति या धर्म से जुड़े हुए हैं, परंतु आज भी मनुष्य ईर्ष्यालु व्यक्ति का मन काला (विकृत) होता है और शरीर को मनुष्य से ही बहुत खतरा है। इसका कारण है - ईर्ष्या । पूज्य गोरा होता है। जैसा बगुला बाहर से सफेद होता है परंतु मन मैला मुनि श्री तरुणसागर जी महाराज ने एक प्रवचन में कहा था कि होता है क्योंकि उसके विचार निरंतर मछली पकड़ने के ही होते हैं। आदमी इसलिए दुःखी नहीं है कि उसके पास भौतिक साधनों | मछली खाने पर ही उसका ध्यान केन्द्रित रहता है। जबकि कौवा की कमी है, वरन् इसलिए दुःखी है, कि उसका पड़ौसी सुखी जैसा बाहर से होता है वैसा ही अंदर (मन) से भी होता है। ईर्ष्यालु क्यों है। साम्राज्यवादी देश अमेरिका शक्ति संपन्न है, परंतु चिंतित | मानव भी बड़े स्नेह और प्रेम से मिलता है, परंतु उसका स्नेह दिखावा इसलिए है कि दूसरे देश उन साधनों की प्राप्ति हेतु क्यों प्रयास कर | ही होता है। एक स्थान पर मैं और मेरा एक साथी जिसे मैं अपना रहे हैं, जो उनके पास हैं। देश, समाज तथा व्यक्ति आज सकारात्मक अभिन्न मित्र समझता था, एक साथ गये। मेरे मित्र को मेरा परिचय सोच के साथ आगे न बढ़कर नकारात्मक सोच से आगे बढ़ रहे | देना था। उन्होंने मेरे परिचय में वह सब कुछ कहा, जो वह मेरी हैं। समाज का हर व्यक्ति चाहे वह राजनैतिक हो या सामाजिक | | प्रशंसा में कह सकता था। परंतु बाद में पता चला कि उसी व्यक्ति वह कार्य तो करना चाहता है परंतु साथ ही यह भावना भी कार्य | की विकृत सोच (ईर्ष्या) के कारण मेरा शाल और प्रशस्ति पत्र से करती है कि दूसरा व्यक्ति वह कार्य न करे। धनाढ्य ही नहीं | सम्मान न हो सका। इतना ही नहीं हमारे पूरे प्रवचन को अपने निर्धन लोगों में भी ईर्ष्या देखी जाती है। समाजसेवी, विद्वान, | विचारों में समाहित कर पेपरों में छपवा दिया। आज सभी जगह पंडित, क्रियाकाण्डी, साधु, साध्वियाँ तथा आम आदमी सभी में | कमोवेश यही स्थिति देखने को मिल रही है। ऐसे व्यक्तियों को ईर्ष्या देखी जा रही है। समाजसेवी प्रतिस्पर्धी बनकर समाजसेवा समझना चाहिए। कर रहा है , वह चाहता है कि मेरा मंच हो, मेरे साथी हों, मेरे दीप निष्ठा का जले तो आँधियाँ बाधक न होंगी। साथी ही मंच पर बैठें, मेरे ही साथी कार्यक्रमों की अध्यक्षता करें, आदमी में लगन हो तो, मजबूरियाँ बाधक नहोंगी। मेरे ही संचालक हों परंतु चंदा के लिए कार्यक्रम सामाजिक । एक
आज की स्थिति यह है कि व्यक्ति की कार्य के प्रति 26 फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org