Book Title: Jinabhashita 2005 02 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ जो कि यहाँ के प्राचीन निवासी थे सामान्यतः स्थूल रूप से हिन्दू या अहले हनूद और उनके धर्म को हिन्दू मजहब कहते रहे हैं, वैसे उनके कोष में काफिर, जिम्मी, बुतपरस्त, दोजखी आदि अन्य अनेक सुशब्द भी थे जिन्हें वे भारतीयों के लिए बहुधा प्रयुक्त करते थे, हिन्दू शब्द का एक अर्थ वे 'चोर' भी करते थे। ये कथित हिन्दू एक ही धर्म के अनुयायी हैं। या एकाधिक परस्पर में स्वतंत्र धार्मिक परंपराओं के अनुयायी हैं । इसमें औसत मुसलमान की कोई दिलचस्पी नहीं थी, उसके लिए तो वे सब समान रूप से काफिर, बुतपरस्त, जाहिल और बेईमान थे। स्वयं भारतीयों को भी उन्हें यह तथ्य जानने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उनके लिए प्रायः सभी मुसलमान विधर्मी थे। किन्तु मुसलमानों में जो उदार विद्वान और जिज्ञासु थे यदि उन्होंने भारतीय समाज का कुछ गहरा अध्ययन किया था प्रशासकीय संयोगों से किन्हीं ऐसे तथ्यों के संपर्क में आए, तो उन्होंने सहज ही यह भी लक्ष्य कर लिया कि इन कथित हिन्दुओं में एक-दूसरे से स्वतंत्र कई धार्मिक परंपराएँ हैं और अनुयायियों की पृथक-पृथक सुसंगठित समाजें हैं। ऐसे विद्वानों ने या दर्शकों ने कथित हिन्दू समूह के बीच में जैनों की स्पष्ट सत्ता को बहुधा पहचान लिया। मुसलमान लेखकों के समानी, तायसी, सयूरगान, सराओगान, सेवड़े आदि जिन्हें उन्होंने ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों से पृथक-पृथक सूचित किया है जैन ही थे। अबुलफ़जल ने तो आईने अकबरी में जैन धर्म और उसके अनुयायियों का हिन्दू धर्म एवं उसके अनुयायियों से सर्वथा स्वतंत्र एक प्राचीन परंपरा के रूप में विस्तृत वर्णन किया है। जब अंग्रेज भारत में आये तो उन्होंने भी प्रारंभिक मुसलमानों की भाँति स्वभावतः तथा उन्हीं का अनुकरण करते हुए, समस्त मुसलमानेतर भारतीयों (इण्डियन्स) को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दूइज्म समझा और कहा। किन्तु 18 वीं शती के अंतिमपाद में ही उन्होंने भारतीय संस्कृति का गंभीर अध्ययन एवं अन्वेषण भी प्रारंभ कर दिया था। और शीघ्र ही उन्हें यह स्पष्ट हो गया है कि हिन्दुओं और उनके धर्म से स्वतंत्र भी कुछ धर्म और उनके अनुयायी इस देश में है और वे भी प्राय: उतने ही प्राचीन एवं महत्वपूर्ण हैं। भले ही वर्तमान में वे अत्यधिक अल्पसंख्यक हों । 19 वीं शती के आरंभ में ही कोलबुक, डुबाय, टाड, फर्लांग, मेकेन्जी, विल्सन आदि प्राच्य विदों ने इस तथ्य को भली प्रकार समझ लिया था और प्रकाशित कर दिया था। फिर तो जैसे-जैसे अध्ययन बढ़ता चला गया यह बात स्पष्ट से स्पष्टतर होती चली गई। इन प्रारंभिक प्राच्यविदों ने कई प्रसंगों में ब्राह्मणादि कथित हिंदुओं के तीव्र जैन विद्वेष को भी लक्षित किया। 19 वीं शती के उत्तरार्ध में उत्तर भारत के अनेक नगरों में जैनों के रथ यात्रा आदि Jain Education International धर्मोत्सवों का जो तीव्र विरोध कथित हिंदुओं द्वारा हुआ वह भी सर्वविदित है। गत दर्शकों में यह गाँव, जबलपुर आदि में जैनों पर जो साम्प्रदायिक अत्याचार हुए और वर्तमान में बिजोलिया में जो उत्पात चल रहे हैं उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दू महासभा में जैनों के स्वत्त्वों की सुरक्षा की व्यवस्था होती तो जैन महासभा की स्थापना की कदाचित आवश्यकता न होती। आर्यसमाज संस्थापक स्वामी दयानंद ने जैन धर्म और जैनों का उन्हें हिन्दू विरोधी कहकर खंडन किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या जनसंघ में भी वही संकीर्ण हिन्दू साम्प्रदायिक मनोवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। स्वामी करपात्री जो आदि वर्तमान कालीन हिन्दूधर्म नेता भी हिन्दू धर्म का अर्थ वैदिक धर्म अथवा उससे निसृत शैव वैष्णवादि सम्प्रदाय ही करते हैं। अंग्रेजी कोष ग्रंथों में भी हिन्दूइज़्म (हिन्दू धर्म) का अर्थ ब्रह्मनिज़्म (ब्राह्मण धर्म) ही किया गया है। इस प्रकार मूल वैदिक धर्म तथा वैदिक परंपरा में ही समय-समय पर उत्पन्न होते रहने वाले अनगिनत अवांतर भेद प्रभेद, यथा याज्ञिक कर्मकाण्ड और औपनिषदिक अध्यात्मवाद, श्रौत और स्मार्त, सांख्य-योग-वैशेषिक-न्याय-मीमांसा-वेदांत आदि तथाकथित आस्तिक दर्शन और बार्हस्पत्य-लोकायत वा चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन, भागवत एवं पाशुपत जैसे प्रारंभिक पौराणिक सम्प्रदाय और शैव-शाक्त-वैष्णवादि उत्तरकालीन पौराणिक सम्प्रदाय, इन सम्प्रदायों के भी अनेक उपसम्प्रदाय, पूर्व मध्यकालीन सिद्धों और जोगियों के पंथ जिनमें तांत्रिक, अघोरी और वाममार्गी भी सम्मिलित हैं, मध्यकालीन निर्गुण एवं सगुण संत परंपराएँ, आधुनिकयुगीन आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज, राधास्वामी मत आदि तथा असंख्य देवी-देवताओं की पूजा भक्ति जिनमें नाग, वृक्ष, ग्राम्यदेवता, वनदेवता आदि भी सम्मिलित हैं, नाना प्रकार के अंधविश्वास, जादू टोना, इत्यादि में से प्रत्येक भी और ये सब मिलकर भी 'हिन्दूधर्म' संज्ञा से सूचित होते हैं । इस हिन्दू धर्म की प्रमुख विशेषताएँ हैं ऋग्वेदादि ब्राह्मणीय वेदों को प्रमाण मानना, ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता, पालनकर्त्ता और हर्त्ता मानना, अवतारवाद में आस्था रखना, वर्णाश्रम धर्म को मान्य करना, गो एवं ब्राह्मण का देवता तुल्य पूजा करना, मनुस्मृति आदि स्मृतियों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन-व्यापार का नियामक विधान स्वीकार करना, महाभारत, रामायण एवं ब्राह्मणीय पुराणों को धर्मशास्त्र मानना, मृत पित्रों का श्राद्धतर्पण पिण्डदानादि करना, तीर्थस्नान को पुण्य मानना, विशिष्ट देवताओं को हिंसक पशुबलि, कभी नरबलि भी देना इत्यादि । For Private & Personal Use Only क्रमशः श्री तनसुखराय स्मृतिग्रन्थ से साभार फरवरी-मार्च 2005 जिनभाषित 17 www.jainelibrary.org

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