Book Title: Jinabhashita 2003 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ अतिक्रमण और प्रतिक्रमण आचार्य श्री विद्यासागर जी स्वयं की सीमा पारकर पर सीमा में प्रवेश करना ही अतिक्रमण | अनुभूति कराते हुए आचार्य श्री ने बताया कि आत्मदृष्टा सदा संयत है। पर परिचय प्राप्त करने में पल-पल व्यतीत करने पर आत्म | और संयमित होता है। परिचय से सदा वंचित रह जाते हैं। ज्ञान वारिधि तपो निधि आचार्य संदेह के सम्बन्ध में श्रोताओं को सहज ज्ञान बोध कराते श्री विद्यासागर ने अमरकण्टक में श्रोताओं को बोध कराते हुए कहा ] हुए आचार्य श्री ने कहा कि भय अथवा अनिर्णितज्ञान से संदेह कि परस्पर आंखों में आंखें डालना कलह कारक है, संघर्ष व्याप्त हो | होता है। पूर्ण ज्ञान नहीं होना संदेह की देह है। वही डराता है जाता है। आत्म दृष्टा संघर्ष शून्य होता है, पर से परे होने पर पार | जिसके अंदर डर होता है, निजमग्न निडर होता है। पर जीव से हो जाते हैं। कलह को पूर्ण विराम देने के लिए अतिक्रमण का | भय होता है, स्वयं से कभी भयभीत नहीं होते। यह बताते हुए परित्याग कर प्रतिक्रमण अंगीकृत किया जाता है। आत्मलीन भयमुक्त आचार्य श्रीने कहा कि चलते चलते अन्य जीव से आंख मिलने के होता है पर जीव से ही भय की अनुभूति होती है। उपरान्त भय व्याप्त हो गया। बार-बार पीछे मुड़कर देखते हैं, अतिक्रमण उल्लंघन का प्रतीक है यह बताते हुए आचार्य अपनी पद चाप की ध्वनि भी डराती है। अन्य पर दृष्टि रखने श्री ने कहा कि उल्लंधित सीमा से वापस अपनी सीमा में आना ही | वाला, सोचने वाला भयभीत रहता है, पर की पहचान में संलग्न प्रतिक्रमण है। अतिक्रमण से संघर्ष छिड़ जाता है कलह व्याप्त | रहने वाले की दशा बिगड़ जाती है। पर से प्रीति और भीति नहीं होती है, किन्तु प्रतिक्रमण से संघर्ष विराम हो जाता है, शांति छा | रखना ही राग द्वेष रहित होना है। आत्म परिचित रागद्वेष विहीन जाती है। पर को देखना भी अतिक्रमण की क्रिया है बहुधा यही | होता है। राग द्वेष को भय का आधार बताते हुए आचार्य ने कहा शिकायत होती है उसने मुझे घूर कर देखा, क्यों देखा? मैंने भी कि आत्म स्वरूप का ज्ञान होते ही भीति और प्रीति की समाप्ति हो देखा विवाद व्याप्त हो गया। एक दूसरे को देखने पर संघर्ष आरंभ | जाती है। मन के ऊपर नियंत्रण रखने पर ही श्रद्धा प्रकट होती है हो जाता है। विवाद, देख लेने तक बढ़ जाता है। दोनों की दृष्टि । इसीलिए नमन में मन का निषेध किया गया है। मन भांति-भांति निज पर हो तो देखने अथवा देख लेने की स्थिति कभी नहीं होगी। | के प्रश्न उपस्थित करता है। यह बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि आत्मदृष्टा सदैव शांति के साथ रहता है। एक सहज दृश्य के द्वारा | मन के हारे हार है मन के जीते जीत । जिसने मन को जीत लिया आत्म दृष्टि की सीख देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि एक स्वान के | वही विजेता है। जीव का संघर्ष जीव से होता है, अजीव से नहीं। मुंह में रोटी देखते ही अन्य स्वान भी छुड़ाने के लिए यत्नशील हो | जिस स्थान पर बैठे हैं वहाँ सिर पर एक छोटा कंकड़ गिरा, ऊपर जाते हैं, अपनी रोटी की रक्षा के लिए स्वान दौड़ते हुए पीछे देख | देखा एक चिड़िया दीवाल पर कुटर कुटर कर रही है चिड़िया पर लेता है। पीछा करने वाले पीछे छूट गये किन्तु भय अभी समाप्त | क्रोधित हो जाते हैं । कंकड़ सिर पर गिरा था किन्तु कंकड़ पर रोष नहीं हुआ है। जैसे ही खाने के लिए नीचे रखूगा अन्य स्वान आ | नहीं हुआ। जड़ से संघर्ष नहीं करते जीव से करते हैं। जीव का जायेंगे। सामने एक छोटी नदी है यह पार कर लूं तब अपना | रुप समझ में आ जाए तो संघर्ष सदैव के लिए समाप्त हो सकता भोजन कर सकूँगा। नदी पार करते हुए देखा अरे नदी में मेरे ही | है। यह बताते हुए आचार्य श्री विद्यासागर ने कहा कि भयभीत जैसा एक अन्य स्वान भी है उसके मुंह में एक रोटी है। इधर उधर | होना अस्वस्थता का प्रतीक है। भयभीत जीव चौकन्ना रहता है। देखा वह भी ऐसा ही कर रहा है, गौर से देखा, वह भी गौर से देख चारों ओर कान होने पर चौकन्ना कहा जाता है। दो कान होते हुए रहा है, संघर्ष छिड़ गया। छाया को प्रतिद्वन्दी समझने पर द्वन्द्व हो भी भयभीत को दोगने कानों की आवश्यकता होती है। भय का गया। छाया भी पर होती है, छाया से संघर्ष करने पर रोटी मुंह से अस्तित्व होने पर भी स्वयं को भय से पृथक रख सकते हैं। जिस गिरकर प्रवाह में बह गयी, लहरों में हलचल होने से छाया नहीं प्रकार कमल जल में खिलता है किन्तु जल से पृथक रहता है। दिख रही, वह मेरी रोटी लेकर भाग गया। पर दृष्टि से भोजन मुंह | चारों ओर जल होने पर जल की कोई बूंद कमल पर नहीं होती। से छूट गया, मुंह के माध्यम से पेट में नहीं जा सका। दूसरी कक्षा आत्मदृष्टा चहुं ओर भय का वातावरण होने पर भी निर्भय रहता की कथा से सीख मिलती है किन्तु कथा पर ध्यान नहीं देने पर | है। प्रीत के शब्द एवं अपशब्द का स्मरण शयन के समय हो जाता यह दूसरी कक्षा की हो जाती है मेरी कक्षा की नहीं। पर दृष्टा है, निद्रा नहीं आती, घटना पहले घटित हुई किन्तु शब्द कानों में जीवन कलह कारी होता है। पर का परिचय ज्ञात करने में रत रहने गूंजने लगते हैं, अशान्त हो जाते हैं यही राग द्वेष है जो पर शब्दों पर आत्म परिचय कभी प्राप्त नहीं हो पाता । स्वयं से परिचित नहीं | का स्मरण होते ही अशान्त कर देता है। अपने-अपने में लीन हो गैर के विषय में जानकारी लेते रहते हैं। पर से परे होने वाला ही | तो संघर्ष कभी नहीं होगा। पर ध्यान न लगाएँ निज पर ध्यान दें। पार हो सकता है एक साधारण कथा से असाधारण दर्शन की | पहले अपनी पहचान कर लें। वेदचन्द्र जैन, गौरेला, पेण्ड्रारोड -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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