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अब कृत, कारित और अनुमोदना एवं मन, वचन, काय नवकोटि से रात्रि भोजन त्याग होता है। जब छटवीं प्रतिमा वाला रात्रि में कृत, कारित आदि से रात्रि में गृहकार्य नहीं कर सकता तब वह धार्मिक कार्य जिनमें अनेक प्रकार से समरंभ, समारंभ आदि होते हैं, कैसे कर सकता है।
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पंचकल्याणक के समय हम दिन में तोअनेक अन्य कार्यों में समय व्यतीत कर देते हैं और आवश्यक क्रियाओं को रात्रि में पूर्ण करते हैं जो आगमानुकूल प्रतीत नहीं होता है। प्रतिष्ठा पाठों में सभी क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है किन्तु उनका समय और दिशा का स्पष्ट उल्लेख श्री जयसेनाचार्य प्रणीत प्रतिष्ठा पाठ में किया गया है। अतः यहाँ सभी प्रमाण श्री जयसेनाचार्य
परम पूज्यनीय युग के आदि तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ भगवान को सादर सविनय नमस्कार करके भरत- बाहुबली के युद्ध के विषय में कुछ नवीन चिन्तन है। विद्वत वर्ग निष्पक्ष विचार करें। अच्छी लगे तो ग्रहण करें अन्यथा छोड़ देवें। मेरा कोई दृढाग्रह नहीं है। जिनवाणी एवं आचार्यों के प्रति कोई अविनय भाव भी नहीं है। भरत जी, बाहुबली जी महान तपस्वी योगीन्द्र महाराजों के चरणों में बारम्बार नमन है।
भरत बाहुबली का युद्ध
भरत - बाहुबली के मध्य युद्ध परस्पर शक्ति परीक्षण के द्वारा हार-जीत का निर्णय करना स्वीकृत हुआ था। तीनों युद्धों में भरत जी हार गए • थे। जीत बाहुबली जी की हो गई थी। अब यदि बाहुबली जी दीक्षा नहीं लेते तो क्या होता ? बाहुबली जी तो चक्रवर्ती बन नहीं सकते। भरत जी को ही चक्रवर्ती बनने का नियोग था, अब क्या हो ? साठ हजार वर्षों में जीता हुआ छह खण्ड के राजा बाहुबली हो जाते । बाहुबलीजी के राज्य सिंहासन पर रहने तक भरत जी का चक्र अयोद्धा की आयुद्यशाला में प्रवेश नहीं कर पाता। भरत जी चक्रवर्ती नहीं बन पाते ।
द्वन्द युद्धों की संख्या तीन ही क्यों रखी गई ? इसलिए कि किसी भी प्रतियोगिता में विषम संख्या से ही हार जीत का निर्णय होता है। भरत जी तीक्ष्ण बुद्धिमान, व्यवहार कुशल, नीतिवान, पराक्रमी, सातिशय पुण्यवान राजाधिराज थे। द्वन्द युद्ध में निश्चत जीत होगी यह उन्होंने सोच लिया था। तभी तो अवधिज्ञानी होते हुए भी अवधिज्ञान लगाया ही नहीं। लगाया होता तो हार का आभाष पूर्व में ही हो जाता फिर द्वन्द युद्ध के द्वारा निर्णय की स्वीकृति ही नहीं देते। उपरोक्त समस्याओं के समाधान के लिए केवली भगवान् श्री ऋषभदेव जी से पूछ लेते ।
तीनों द्वन्द युद्धों में अचन्त्यिपूर्व पराजय हो जाने पर किं कर्त्तव्य विमूढ़ होकर प्रत्युत्तपन्नमति भरतजी ने बाहुबली जी पर चक्र चला ही दिया।
भरत जी क्षायिक सम्यग्दृष्टि, तद्भव मोक्षगामी, ६ खण्ड के राजाओं को जीतने वाले बाहुबली जी पर चक्र मारने के लिये नहीं
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प्रतिष्ठा पाठ से दिये हैं ।
प्रतिष्ठाचार्य को समय का ध्यान कर अपने आप को अनुशासित / संयमित एवं जागरुक बनना पड़ेगा। प्रतिष्ठा कार्यक्रमों को आधुनिक एवं नयापन देने की लालसा ही क्रियाओं की निर्दोषता, समीचीनता एवं शुद्धता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। यद्वा तद्द्वा क्रिया कराने से समाज और धर्म दोनों का हित नहीं होता है। अतः प्रतिमाओं में अतिशयता के लिये पंचकल्याणक की क्रियाओं के समय, दिशा एवं विशुद्धि का विशेष ध्यान रखना होगा तभी निर्दोष प्रतिष्ठा हो सकेगी।
रजवाँस (सागर) म.प्र.
ब्र. शान्ति कुमार जैन
चलाया अपितु वैराग्य उत्पन्न कराने के लिए चलाया था। उन्हें ज्ञात था कि सगे भाई पर चक्र मार नहीं कर सकता। परन्तु इसे कुकृत्य समझ कर, साम्राज्य प्राप्ति के लिए निर्णित तीन धर्मयुद्ध में हारकर, अधर्म रीत से अस्त्र प्रयोग, निहत्थे परन्तु जीते हुए प्रति द्वन्दी पर किये जाने पर, बाहुबली के मन में राज सम्पदा से वैराग्य आ गया। बाहुबली जी महान आत्म गौरवशाली राजा थे। जीत कर भी बड़े भाई को चक्रवर्ती बनाने के लिए राज्य उनको शायद दे भी देते परन्तु चक्र के चल जाने पर उन्हें वैराग्य आ गया। उन्होंने दीक्षा लेली। यही तो एक मात्र समाधान था उस विकट अभूतपूर्व परिस्थिति
का।
। चक्रवर्ती कभी किसी से हारता ही नहीं। हार हो जाने पर क्षण भर में भरत जी ने यह उपाय खोज निकाला। द्वन्द युद्धों में हारकर भी भरत जी कूटनीति के बुद्धियुद्ध में सफल हो गये। अन्य कोई भी समाधान नहीं था ।
इस समाधान में दोनों महापुरुषों के गौरव एवं महानता को कोई आघात नहीं लगता। चक्र के द्वारा भाई को मारने की बात पूर्णतः अस्वाभाविक है, गले नहीं उतरती। वैराग्य उपजावन हेतु चक्र का प्रयोग उस परिस्थिति में स्वाभाविक लगता है।
आदि पुराण, हरिवंश पुराण, भरतेश वैभव आदि ग्रन्थों में उल्लेखित यह घटना एक सी नहीं है। तो फिर एक नया चिन्तन और आपके सम्मुख प्रस्तुत किया गया है।
दोनों महारथी क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही थे परन्तु कषायों के उद्रेक में कुछ भी हो जाना असम्भव नहीं है। फिर भी भरत जी ने जो भी कुछ किया सोचसमझकर ही किया। चक्र के द्वारा भाई को मारा तो जा ही नहीं सकता, यह उन्हें पहले से ही ज्ञात था । परन्तु युद्ध में हराया जा सकता है। तभी तो द्वन्द युद्ध स्वीकार किया ताकि व्यर्थ की हिंसा रूप जन संहार नहीं होवे। ऐसे अहिंसा के पुजारी भरत जी ने बाहुबली जी पर मारने के लिए चक्र नहीं चलाया था, बल्कि वैराग्य जगाने के लिए प्रेरणा के रूप में चलाया था। उन्हें यह भी ज्ञात होना स्वाभाविक था कि बाहुबली जी भगवान आदिनाथ जी से पहले मोक्ष जायेंगे। तीनों महापुरुषों को मन, वचन, काय से कोटिशः नमस्कार है।
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दिसम्बर 2003 जिनभाषित 15
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