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पंचकल्याणक की क्रियाओं में दिशा और समय
पं. सनत कुमार विनोद कुमार जैन जिन बिम्ब प्रतिष्ठा अत्यन्त महत्वपूर्ण क्रिया है। इसे जितनी । होमार्थ कुण्डानि पुरोत्तरस्याः क्रियान्नवोत्कृष्ट तया च पंच। शुद्धिपूर्वक, संयम, साधना/आराधना एवं आगमोक्त अनुशासन के
मध्याद्विधेर्वात्रयमेव तत्र वृत्तं त्रिकोणं चतुरस्त्र मेव ॥३५॥ साथ किया जावेगा वह उतनी ही प्रभावक ऋद्धि सिद्धि कारक अर्थात्- वेदी की उत्तर दिशा में नव पाँच या तीन हवन एवं अतिशयता को प्रकट करने वाली होगी। पूर्वाचार्यों ने जिन | कुण्ड के निर्माण में तीन कटनी पाँच, चार और तीन अंगुल चौड़ी बिम्ब प्रतिष्ठा को सुव्यवस्थित बनाने के लिये अनेक ग्रन्थों की | होना चाहिये। और एक अरनि लम्बे, चौड़े और गहरे होना श्रेष्ठ रचना कर हमारा मार्गदर्शन किया है। पंचकल्याणक की प्रत्येक | होते हैं। पाण्डुक शिला मुख्य वेदी से उत्तर में होना चाहिये। क्रिया का सविस्तार, सूक्ष्मता पूर्वक वर्णन कर उन क्रियाओं का | पाण्डुक शिला सुमेरु पर्वत के चौथे वन में स्थित है अतः तीन काल एवं दिशा का भी उल्लेख किया है, किन्तु आधुनिकता की | कटनी युक्त बनाने का मुख्य आधार सुमेरु पर्वत के चार वन हैं। आंधी में जगह एवं समय के अभाव में मान एवं धन के लोभ में | सुमेरु पर्वत भरत क्षेत्र स्थित अयोध्या के उत्तर में स्थित है अत: हम आचार्यों के निर्देशों का उल्लंघन करके मनमानी कर रहे हैं। पाण्डुकशिला मुख्य वेदी के उत्तर में होना चाहिये। जिसके कारण प्रतिमाओं में अतिशय प्रकट नहीं हो पा रहा है।
आचार्यशक्र स्थिरस्य पृष्ठे स्त्रनासना दीनि त दंतिके च। बल्कि दुर्घटनायें, अरुचि एवं कलह आदि अनेक विकृतियाँ प्रकट
तथोत्तरस्यां जननोत्सवादिदीक्षा वनं ज्ञान विभूति सद्म। दिखाई देती हैं। अतः आगम के गवाक्ष से देखकर दिशा और अर्थात्- वेदी केपृष्ठ भाग में आचार्य और इन्द्र की स्थिति समय का निर्धारण करना चाहिए।
करनी चाहिये। और समीप ही स्नान सामायिक आदि की सभा पंचकल्याणक की वेदी चौकोर बनाना चाहिये यदि इन्द्र और ताके उत्तर में जन्मोत्सव सूचक सुमेरु की रचना और वेदी के इन्द्राणियों की संख्या अधिक हो तो वेदी चौड़ाई से डेढ़ गुनी/दुगनी | अग्रभाग में दीक्षावन और समवशरण करना चाहिये। दीक्षा वन लम्बाई में बनाई जा सकती है। इस वेदी की पवित्रता का विशेष वेदी से पूर्व में होना चाहिये। ध्यान रखना चाहिये। इसे गोबर से लीपना नहीं चाहिये। सांस्कृतिक
तत्रैव पूर्वत्र दिशासुदीक्षा वनं विशालांगण कल्प शाखं। कार्यक्रमों से वेदी की अशुद्धि संभव है अतः सांस्कृतिक कार्यक्रमों
दीक्षा तरुस्तत्र शिला प्रदेश संस्कार वाटीकृत गूढ मध्या॥३६७॥ का मंच अलग होना चाहिये। वेदी, मंच पर टेन्ट हाऊस के कालीन, अर्थात् - वेदी की पूर्व दिशा में विशाल अनेक शाखा जाजम, पट्टी आदि नहीं बिछाना चाहिए। इससे अशुद्धि हो जाती | युक्त दीक्षावन स्थापन करना। वहाँ दीक्षा वृक्ष मुख्य स्थापना, है। मंडप का मुख्य द्वार पूर्व या उत्तर में होना श्रेष्ठ है। वेदी दो | तिसका अधोभाग शिला स्फटिकमयी संस्कार करने के पात्र अरु प्रकार की कही गई है।
वाटिका कहिये आच्छादन की कनात करि मध्यभाग है गूढ जामे अथोत्तरस्मैकृतिकर्मणे कृतींवेदी द्वितीयां विनिवर्त्यपावनी। | ऐसी स्थापना करना। दीक्षा की क्रियायें पर्दा लगाकर करने का
यागीय मंत्राणि तथोत्तरंपृथक कमीरंभता यजन क्रियोचितं॥३४२॥ | निर्देश दिया गया है। ___ अर्थात्- यागमण्डल के वास्ते मुख्य वेदी और दूजी उत्तर भगवान का समवशरण मुख्य वेदी के पूर्व में होना चाहिये। कर्म जाप, ध्यान, मंत्र, यज्ञ क्रिया के योग्य उत्तर वेदी कही गई। | ताण्डव नृत्य वादित्र आदि का स्थान बड़ा विशाल और वेदी के अत: दोनों वेदी नियमानुसार बनाना चाहिये। मुख्य वेदी के सामने सामने करना चाहिये। औषधिशाला दानशाला के पास होना श्रेष्ठ है। ध्वज स्थापन करना चाहिये। ध्वज दण्ड की ऊँचाई मण्डप की अहारग्रह मुख्य वेदी के दक्षिण में होना चाहिये। इसमें ऊँचाई से दुगनी या डेढ़ गुनी होना चाहिये।
| विधि नायक के आहार की विधि कराई जावें। आहार के समय गर्भगृह मुख्य वेदी से दक्षिण दिशा में होना चाहिए। । भगवान का मुख पूर्व या उत्तर में होना चाहिये। अनुशासन और ___ दक्षिण दिशि जिन वेद्या राज गृहं प्रसृत चत्वरा कीर्णम्।। शुद्धि का पूरा ध्यान रखना चाहिये। आहार चर्या के समय मात्र
दंश पंचक त्रिकधरिणा भाग मने का दवा सयुतं॥३६०॥ | आगम में वर्णित सामग्री ही रहना चाहिए। अर्थात् - राजगृह, वेदी से दक्षिण दिशा में दशखण्ड,
जैसे - श्री आदिनाथ के पंचकल्याणक में इक्षुरस और पाँच खण्ड, तीन खण्ड एवं अनेक अटारी संयुक्त होना चाहिये। | शेष तीर्थंकरों की आहार चर्या में दूध ही होना चाहिए अन्य राजगृह, सुन्दर सुसज्जित संगीत वादित्र एवं मंगलगान से सहित | सामान तो अतिरेक है- जिसका आहार लिया है वही वस्तु श्रेष्ठ होना चाहिये। हवन कुण्ड मुख्य वेदी के उत्तर में होना चाहिये। । होती है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा की क्रियाओं में दिशा और समय
दिसम्बर 2003 जिनभाषित 13
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