Book Title: Jinabhashita 2003 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ और और इस विधा के बंधे बंधाये लक्षणों , परिभाषाओं और परम्पराओं में | रूप में परिभाषित करते हुए प्रस्तुत किया है, वहीं कवि ने अपनी पूर्णत: न बंधकर भी रचना धर्मिता के निर्वाह में पूर्ण सफलता प्राप्त | सरस्वती सम लेखनी के द्वारा शीत, वसन्तादि ऋतुओं का विवेचन की है। साथ ही अपनी आगमिक परम्पराओं के विस्मृत मूल भूत अपने विवेच्य विषय के माध्यम से बड़े ही सहज तथा मनोज्ञ भाव तत्त्वों को सहेजकर प्रतीकात्मक रूप में मूकमाटी को आधार से किया है। तीव्र शीतकाल की रात में भी एक मात्र सूत का सस्ता बनाकर समग्रता के साथ प्रस्तुत किया है। इसीलिए कवि की चादर तन-पर डालकर शिल्पी कुम्भकार कुंकुम सम मृदु माटी वाणी मुखरित हुई, कह उठती है को सानने में लगा है। तभी माटी करुणा वश शिल्पी से कह उठती माटी की शालीनता कुछ देशना देती-सी! काया तो काया है महासत्ता-माँ की गवेषणा जड की छाया-माया समीचीना एषणा लगती है जाया सी... सो.... संकीर्ण-सत्ता की विरेचना कम से कम एक कम्बल तो... अवश्य करनी है तुम्हें! काया पर ले लो ना! अर्थ यह हुआ माटी के इस कथन पर शिल्पी कुम्भकार का पुरुषार्थ पूर्ण लघुता का त्यजन ही सहज आत्म बल जाग उठता है और माटी से कहता हैगुरुता का भजन ही कम बलबाले ही शुभ का सृजन है। कम्बल वाले होते हैं खण्ड : एक 'संकर नहीं, वर्णलाभ पृष्ठ - ५१' मूकमाटी के माध्यम से कवि ने श्रम, संयम और तप : काम के दास होते हैं साधना की आध्यात्मिक त्रिवेणी के रूप में श्रमण संस्कृति हम बलवाले हैं की अमर गाथा प्रस्तुत करते हुए कहा है -- राम के दास होते हैं कंकरों की प्रार्थना सुनकर और माटी की मुस्कार मुखरित हुई राम के पास सोते हैं संयम की राह चलो कम्बल का सम्बल राह बनना ही तो आवश्यक नहीं हमें हीरा बनना है सस्ती सूती चादर का ही स्वयं राही शब्द ही आदर करते हम! विलोम रूप से कह रहा है ऋतुओं के माध्यम से प्रकृति के अंकन का भी एक हेतु रा ... ही...ही..... रा है, क्योंकि साहित्य जगत् की इतिवृत्तात्मकता से कवि किसी और विराम विश्राम स्थल की खोज किसी न किसी रूप में करता इतना कठोर बनना होगा अवश्य है। इस काव्य के योगी कवि भी एक ओर जहाँ आत्मलीनता के क्षणों में अनंत चतुष्टय रूप अपूर्व आनन्दानुभूति प्राप्त करते हैं, तन और मन को वहीं उन्हें वाहय जगत् में अनादिकाल से मानव की सहचरी तप की आग में प्रकृति के नाना दृश्य कवि के हृदय को आत्म विभोर किये बिना तपा-तपा कर कैसे रह सकते हैं? प्रकृति के इन दृश्यों की सम्पूर्ण सौम्यता, जला-जला कर विशालता, गम्भीरता, शीतलता और कोमलता आदि गुण मूक रूप राख करना होगा से निरन्तर सहृदयता और प्रेरणा प्रदान करते हैं और कवि की यतना घोर करना होगा मनोभावनायें समस्त प्रकृति को समेटकर लेखनी द्वारा प्रवाहित हो तभी कहीं चेतन-आत्मा उठती हैं। खरा उतरेगा। वस्तुतः मनुष्य की चित्तवृत्ति सदा एक सी नहीं रहती। वहीं पृष्ठ ५६ कभी तो वह सांसारिक क्षणिक सुख में अपने को इतना लीन मान इस महाकाव्य के 'शब्द सो बोध नहीं, बोध सो सोध लेता है कि कभी तो वह सर्वाधिक सुखी मनुष्यों में अपनी गणना नहीं' नामक द्वितीय खण्ड में कवि ने जहाँ काव्य रसों को सार्थक करता है, किन्तु थोडे ही समय बाद दुःख के काले बादल चारों -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 11 कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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