Book Title: Jinabhashita 2003 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
Catalog link: https://jainqq.org/explore/524280/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2580 दि. जैन सहस्रकूट चैत्यालय वानपुर मार्गशीर्ष, वि.सं. 2060 दिसम्बर 2003 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 दिसम्बर 2003 টিনাটির मासिक वर्ष 2, अङ्क 11 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 आपके पत्र धन्यवाद सम्पादकीय : जैन न्याय-दर्शन ग्रन्थों के ... । . प्रवचनांश : आ.श्री विद्यासागर जी सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ |. लेख पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर • संसार की समस्याओं का निदान :सुश्री साध्वी उमाभारती डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र : मूलचन्द्र लुहाड़िया प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ दि. जैन अतिशय क्षेत्र बानपुर : कैलाश मड़वैया डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर योग से अयोग की ओर : डॉ. फूलचन्द्र प्रेमी पंचकल्याणक ..... . : पं. सनतकुमार विनोद जैन शिरोमणि संरक्षक • भरत-बाहुबली का युद्ध : ब्र. शांतिकुमार जैन श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी • विधिपूर्वक सत्कर्म ..... : श्रीमती स्नेहलता जैन (मे. आर.के.मार्बल्स लि.) तीर्थंकर एवं चक्रवर्तियों .... : सुरेशचन्द्र बारौलिया किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर अनर्गल प्रलापं वर्जयेत : मूलचन्द्र लुहाड़िया . जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रकाशक श्री वर्णी दि. जैन : अधिष्ठाता सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, ग्रन्थ समीक्षा आगरा-282002 (उ.प्र.) . पं सदासुखदास के व्यक्तित्व... : रतनचन्द्र जैन फोन : 0562-2151428, 2152278 . बुन्देलखण्ड के जैनतीर्थ : कैलाश मड़वैया सदस्यता शुल्क . बोध कथा : डॉ. रमा जैन शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. कविता संरक्षक 5,000 रु. • आओ निज मन निर्मल करलें : डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल आजीवन 500 रु. वार्षिक 100 रु. • संस्कार कवच आवश्यक : आवरण पृष्ठ एक प्रति 10 रु. . समाचार सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। 29-32 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य वैसे 'जिनभाषित' के प्रत्येक अंक में इतनी सारगर्भित, । से सुख्यात परम तपस्वी निस्पृही साधु हैं। परम पूज्य आचार्य ज्ञानवर्द्धक और तथ्यपूर्ण सामग्री होती है कि एक-दो दिन में ही | विद्यासागर महाराज का प्रवचनांश क्षमा की आद्रता-का प्रस्तुती पढ़कर अगले अंक की प्रतीक्षा प्रारम्भ हो जाती है। परमपूज्य करण भाई वेदचन्द्र जैन गौरेला द्वारा प्रशंसनीय है। आचार्य श्री के साक्षात् प्रवचन सुनने का जिन्हें सौभाग्य प्राप्त नहीं उत्तम तप धर्म-पर 'कर्मों को क्षय करने की शक्ति उत्तम हो पाता, उन्हें उनके प्रवचन सार शीर्षक से प्रकाशित प्रवचनांशों से तप में है।' डॉ. नरेन्द्र जैन भारती का लेख विद्वता पूर्ण है। ज्ञानवर्धक प्राप्त हो जाता है। यदि उनके प्रवचनों से कुछ अमृत वचनांश | इस मायने में भी है कि तप की अनेक परिभाषायें और उनके अर्थ चुनकर १०.१२ की संख्या में प्रत्येक अंक में दिये जायें तो वे | उन्होंने इस आलेख के माध्यम से प्रस्तुत किये हैं। श्री दिगम्बर जैन सभी को प्रेरणा पद सिद्ध होंगे। अतिशय क्षेत्र बिलहरी की जो सामग्री और चित्र श्री जिनेन्द्र कुमार अक्टूबर ०३ के अंक में 'देवपूजा' सम्बन्धी डॉ. श्रेयांस | जैन द्वारा प्रस्तुत की गयी है वह क्षेत्र हित के साथ उन अपनी जी का लेख तथा 'ध्यान और सामायिक' विषयक डॉ. अग्रवाल प्राचीन धरोहरों के प्रति समाज का ध्यान आकृष्ट करने का सर्वोत्तम के लेख काफी महत्त्वपूर्ण हैं । अन्य लेखों में भी काफी ज्ञानवर्धक प्रयास है। व्यक्तिगत रुप में जाकर मैं ने भी उन मनोज्ञ भव्य प्राचीन सामग्री है। आप सभी मिलकर इस पत्रिका को अपने नाम के मूर्तियों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त किया। चित्र पत्रिका में प्रभावशाली अनुरुप पूर्ण सार्थक बनाने हेतु सजग रहते हैं। मेरी मंगल कामनायें ढंग से नहीं पाये। कुल मिलाकर अंक प्रशंसनीय है। इसके निरन्तर निखरते रहने हेतु प्रेषित हैं। सुमतचन्द्र दिवाकर, सतना फूलचन्द जैन आपके द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका 'जिनभाषित' अध्यक्ष अ.भा.दि.जैन विद्वत् । | सफलता के नये कीर्तीमान स्थापित कर रही है। आशा है इस परिषद्, वाराणसी प्रकार अपने मुखर रूप में निरन्तर उन्नति करती रहेगी। 'जिनभाषित' पत्रिका में सम्पादकीय और आचार्य श्री ___ हमारे यहाँ काफी महानुभावों ने पत्रिका मंगवाने हेतु निवेदन विद्यासागर जी महाराज के वचनामृत पाठकों को क्रमश: इहलोक किया है। अतः आप से विनम्र अनुरोध है 'जिनभाषित' इसी माह के अभ्युदय और परलौकिक निःश्रेयस की प्राप्ति में राजमार्ग हैं। से हमारी संस्था में भिजवाने का कष्ट करें। इनके पढ़ने से सन्तोष एवं शांति मिलती है। आचार्य श्री को वर्द्धमान वाचनालय, महुआ नमन्!!! आपको साधुवाद। आपकी पत्रिका का सितम्बर अंक सामने है, मुख्य पृष्ठ पर पं. रतनलाल जी बैनाड़ा के जिज्ञासा-समाधान अत्यन्त दिया गया सदलगा मंदिर का चित्र मुझे पू.आ.श्री की जन्म स्थान उपयोगी जानकारी प्रदान करते हैं, अन्य लेख भी पठनीय होते हैं। से जुड़े अतीत की ओर ले जाता है। मंदिर में विराजमान विम्ब का छाया चित्र होता तो और भी आकर्षक रहता। पत्रिका का मुख पृष्ठ भव्य-दिव्य होता है। इस शुभ कर्म के लिये सामग्री प्रकाशन के प्रत्येक विभाग में नवाचार दृष्टिगत है आपका अभिनन्दन !! जैसे विषय सूची के परंपरागत स्थान पर अन्तस्तत्त्व। डॉ. प्रेमचन्द्र रांवका, जयपुर संम्पादकीय में श्रमणों के शिथिलाचार पर आपकी लेखनी सितम्बर २००३ का अंक आद्योपान्त पढ़ा, पूज्य समयानुकूल है, यदि अभी भी हम नहीं चेते तो कालांतर में हमें चिन्मयसागर महाराज का लेख, 'सत्संग' शाब्दिक मोतियों/रत्नों श्रमण ढूढ़ने पर भी नहीं मिलेंगे, केवल श्रमणाभास रह जायेगा। से जड़े हार की तरह है। उक्त लेख से महाराज श्री के आगम ज्ञान डॉ. रमा जी का आलेख भी जानकारियों से भरा हुआ है। के तथा चिंतन के दर्शन होते हैं। महाराज श्री ने शब्दों के प्रयोग ब्र. सोनू, डबरा प्रचलित अर्थों के आधार पर न करके अन्वय आधार पर किये हैं। "जिनभाषित' पत्रिका यथासमय बराबर आ रही है। अक्टूबर सत्य के रसातल तक पहुँचने का एक मात्र साधन सत्संग और संत २००३ का अंक मेरे सामने है। पत्रिका का रुप-रंग व छपाई व समागम ही है। असलियत को समझकर असत्य साधुजनों से भी । डिजाइन बहुत सुंदर है। देखकर यह भावना बनती है कि ऐसी ही कभी नहीं छला जाता है। स्टेंडर्ड की जैन समाज में अन्य पत्रिकाएँ प्रकाशित होती? ___इस चातुर्मास में महाराज श्री के सत्संग का लाभ बार-बार शायद इस पत्रिका को देखकर ही जैन महिलादर्श ने भी शहपुरा (भिटौनी) जाकर प्राप्त किया। जंगल वाले बाबा के नाम | अपना कलेवर बदला है। आपकी पत्रिका को देखकर श्री अखिल -दिसम्बर 2003 जिनभाषित । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंसल जयपुर वालों ने तो अपनी विचारधारा में परिवर्तन करते हुए। जन्म हुआ है। वहाँ की जनता पुण्यशाली है, जहाँ वातावरण आज समन्वय वाणी पत्रिका का आवरण बदलते हुए मुख पृष्ठ पर | भी शुद्ध है, प्रदर्शन रहित है, सबकी भावना को पवित्र करता है। वीतरागी दिगम्बर पूज्य साधुओं के चित्र प्रकाशित किए हैं। लेखक ने सदलगा का जो पूर्णरूप से वर्णन किया है, यह पढ़कर 'जिनभाषित' के लिए कुछ सुझाव हैं सदलगा जाकर, आचार्य श्री के जन्मस्थल के दर्शन करने का तथा 1. प्रत्येक अंक में सरल भाषा में दो बोध कथाएँ जरुर | धार्मिक जनता से मिलने के भाव हो गये हैं। प्रो. रतनचन्द्र जी को प्रकाशित करें जैसा कि अक्टूबर के अंक में आपने प्रकाशित | | बहुत धन्यवाद। किया है। छोटे बच्चे उन्हें बड़े चाव से पढ़ते हैं। तनसुख लाल मदन लाल जैन, सज्जनपुर (औरंगाबाद) महाराष्ट्र 2. अक्टूबर अंक में पीछे के पृष्ठ पर प्रगति के सोपान में 'जिनभाषित' (नवम्बर २००३) अंक को पढ़ा। जिसमें आपने हमारे प्रसिद्ध पूज्य दिगम्बर संतों एवं तीर्थक्षेत्रों व अतिशय संपादकीय लेख अत्यंत प्रभावोत्पादक है। जिस तरह संपादक जी क्षेत्रों के चित्र प्रकाशित किए हैं, बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। ने प.पू. आ. विद्यासागर महाराज जी को जन्म भूमि और बचपन मेरी यह हार्दिक भावना है कि पत्रिका दिनोंदिन और भी का वर्णन किया है, उसे पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया और मन उन्नति के पथ पर अग्रसर हो। श्री बैनाड़ा जी द्वारा 'जिज्ञासा मस्तिष्क में सचित्र प्रतिबिम्ब झलक गये। 'घोषित दान की समाधान' का स्तंभ बराबर जारी रहना चाहिए। अनुपलब्धि' लेख भी समाज को सचेत करने वाला है। जिनभाषित' गुलाब चंद गंगवाल पो.- रेनवाल एक उच्चस्तरीय पत्रिका है जिसके लेख अत्यंत शोधपूर्ण एवं "जिनभाषित' में 'सदलगा सदा ही अलग' यह संपादकीय | आगमानुकूल होते हैं, अतएव हमारा साधुवाद स्वीकार करें। लेख प्रो. रतनचंद जी जैन द्वारा प्रस्तुत किया गया। पढ़कर मन आनन्द विभोर हो गया। सदलंगा यह पुण्य नगरी है, जहाँ पर आशीष जैन शास्त्री शाहगढ़ (म.प्र.) आचार्य श्री विद्यासागर जी का और अन्य वीतरागी त्यागियों का | जी जैन द्वारा प्रस्ताव अलग' यह संपादक आनन्द विभाग आओ निज मन निर्मल करलें हम कर्ता अपने कर्मों के भोक्ता भी अपने कर्मों के जैसा कर्म, मिले फल वैसा यह ध्रुव सत्य हृदय में धरकें आओ निजमन निर्मल करलें। डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल विषय वासना से छूटेंगे संयम के अंकुर फूटेंगे तप का तेज करे परिशोधन समता से डर-अंतर भरलें आओ निज मन निर्मल करलें। अब तक हम पापों में डोले निश दिन अनृत ही बोले कैसे भला उबर पायें हम छोडें सब, पहले सम्बर लें आओ निज मन निर्मल करलें। । कुटिल कषायों के बंधन से विरत होय सारे क्रन्दन से लेकर शुभ संस्कार सदय से दुखियों के सारे दुख हर लें आओ निज मन निर्मल करलें। 2 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जैन न्याय-दर्शन ग्रन्थों के प्रकाशन की समस्या भारतीय दर्शन के न्याय ग्रन्थों में विशेषतौर से जैन न्याय-दर्शन के ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुये पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में विशेष प्रयत्न करके जैनदर्शन के ग्रन्थों का पाठ्यक्रम में समावेश कराया था। इसी क्रम में भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जैनदर्शन के ग्रन्थों को पढ़ाया जा रहा है। प्रो. डॉ. जगन्नाथ उपाध्याय के विशेष सत्प्रयत्नों से सम्पूर्णानन्द सं. वि.वि. वाराणसी में श्रमण विद्या संकाय का गठन कराया गया। उसी पाठ्यक्रम को देखकर राजस्थान सरकार ने जब संस्कृत वि.वि. की स्थापना की तो उसमें भी श्रमण विद्या संकाय का गठन हुआ जिसमें पांच विभाग सम्बद्ध किये गये। उन विभागों में प्रमुख रुप से जैनदर्शन विभाग कार्यरत है। सौभाग्य से छात्रसंख्या भी पर्याप्त है परन्तु पाठ्यक्रम में रखे गये जैन न्याय एवं दर्शन के ग्रन्थों का अभाव होने के कारण कई बार ऐसी परिस्थिति सामने आई कि पाठ्यक्रम से ग्रन्थों को हटाने की नौबत आ गई। इस समस्या को अखिल भारतीय स्तर की विभिन्न संस्थाओं के अधिवेशनों एवं मंचों की विभिन्न संस्थाओं के अधिवेशन एवं मंचों पर रखा गया परन्तु स्थायी समाधान अभी तक नहीं निकल सका। न्याय के प्रमुख ग्रन्थों में न्यायदीपिका को प्राय: कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्थान प्राप्त है परन्तु दस-बारह वर्ष से इस ग्रन्थ के प्रकाशन में किसी संस्था ने रुचि नहीं दिखाई। इसी प्रकार प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिकालंकार, प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासन परीक्षा, आप्तपरीक्षा, अष्टसहस्त्री आदि अनेक जैनन्याय दर्शन के ग्रन्थ हैं जो अनुपलब्ध हैं। फिरोजाबाद के विद्वत् परिषद अधिवेशन में स्व. साहू अशोक जी जैन का इस समस्या के प्रति ध्यान आकर्षित कराया गया था तब उन्होंने इस समस्या के तत्काल निदान के लिये भारतीय ज्ञानपीठ से कुछ ग्रन्थों की फोटोस्टेट कापी कराकर भिजवाई थी। इस समस्या का निदान स्थायी नहीं होने के कारण आज भी यह समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। ___ ज्ञातव्य है राज. सं. वि. वि. के श्रमण विद्या संकाय के जैनदर्शन विभाग में एवं माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर, सम्पूर्णानन्द सं. वि. वि. वाराणसी, केन्द्रीय सं. विद्यापीठ दिल्ली, लखनऊ, जयपुर एवं अवेधश प्रतापसिंह विश्व विद्यालय, रीवा आदि विश्वविद्यालयों में छात्रसंख्या पर्याप्त मात्रा में है। अतः प्रतिवर्ष लगभग २०० न्यायदीपिका एवं विश्वविद्यालय में अध्ययनरत शास्त्री एवं आचार्य के छात्रों को क्रमशः आप्त परीक्षा, प्रमेयरत्नमाला एवं अष्टसहस्री ग्रन्थों की लगभग १५० (एक सौ पचास) प्रतियों की अपेक्षा रहती है जिसकी पूर्ति प्रकाशन के अभाव में असंभव जैसी है। विद्वान प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन करते हैं परन्तु प्रकाशन की व्यवस्था नहीं होने के कारण वह ग्रन्थ अलमारियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इसी प्रकार लगभग दो सौ शोध ग्रन्थ विभिन्न शोधार्थियों के घरों में पड़े हैं जिनके प्रकाशन की कोई व्यवस्था नहीं है। अभी दो सप्ताह पूर्व एक विद्वान मित्र ने वेदना व्यक्त करते हुये कहा था कि मैंने दस वर्षों के अथक परिश्रम से एक ग्रन्थ तैयार किया और हजारों रु. उसकी तैयारी में खर्च किये। जब प्रकाशन की बात आई तो किसी भी संस्था ने रुचि नहीं दिखाई। येन केन प्रकारेण प्रथम भाग एक संस्था ने प्रकाशित कर दिया है परन्तु अब मैं दूसरा भाग तैयार नहीं करूंगा। तब मैंने कहा कि आप दूसरा भाग तैयार तो करें हतोत्साहित न हों, प्रथम भाग की तरह किसी प्रकार - दिसम्बर 2003 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भाग भी प्रकाशित हो जायेगा। आज समाज की ओर से बड़ी संख्या में जैन पत्र पत्रिकाएँ एवं विभिन्न प्रकार का जैन साहित्य प्रकाशित हो रहा है। पर उसमें ५० प्रतिशत अनुपयोगी एवं अप्रमाणिक प्रकाशित हो रहा है। जैन पत्रिकाओं में सम्पादाकों द्वारा ग्रन्थों की समीक्षा की जाती है परन्तु पूर्वापर ग्रन्थ पढ़कर नहीं की जाती है। यह कारण है कि कुछ लेखक शतक बनाने की तैयारी में हैं। अत: साहित्य प्रकाशन में उपयोगिता एवं गुणवत्ता की ओर दृष्टि जाना चाहिये। इस समस्या का निदान अत्यंत आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है। इस दिशा में विद्वानों एवं पूज्य मुनिराजों के द्वारा समाज को प्रेरणा दी जानी चाहिये कि पंचकल्याणक एवं विधानों आदि समारोहों से प्राप्त कुछ धन राशि का । उपयोग प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशन पर व्यय हो। साथ में जो प्रकाशन संस्थायें इस दिशा में कार्य कर रही हैं उन्हें चाहिये कि बोर्ड एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में जो ग्रन्थ पढ़ाये जा रहे हैं उन्हें विशेषता से प्रकाशित करें। इसी प्रकार ऐसे अवसरों पर रात्रि पाठशालाओं एवं रविवासरीय पाठशालाओं को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से प्रत्येक ग्राम अथवा शहर कॉलोनी में पाठशाला ध्रुवफंड' बनाना चाहिये। इस फंड से पाठशाला में पढ़ाने वाले विद्वान को न्यूनतम ५०००/प्रतिमाह वेतन की व्यवस्था करना समाज का कर्तव्य है। आज बच्चे संस्कार विहीन होते जा रहे हैं उनके मस्तिष्क पर पाश्चात्त्य संस्कृति का प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे समय जैन पाठशालाओं का संचालन अनिवार्य है अन्यथा आने वाली पीढ़ी धर्म से बिल्कुल विमुख हो जायेगी। समाज को इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिये अन्यथा इसके दुष्परिणाम समाज को ही भुगतने पड़ेंगे। मेरे पास प्राय: समाज से पाठशालाओं में पढ़ाने के लिये विद्वानों की मांग की जाती है परन्तु जब वेतन की बात आती है तो समाज की ओर से दो हजार रु. प्रतिमाह देने की बात ठहराई जाती है। मुझे खेद है कि कुछ महानुभाव तो यह कहते भी संकोच नहीं करते हैं कि विद्वान पूजन प्रक्षाल का कार्य भी देखले तो ढाई-तीन हजार रु. दे देंगे। जब मैंने कहा कि आज के समय में मिस्त्री को एक सौ पचास रु. प्रतिदिन देते हैं तो विद्वान की कीमत आप क्या करते हैं। तब कोई जबाव प्राप्त नहीं हुआ। किसी ने कहा है कि फूटी आँख विवेक की क्या करे जगदीश। कंचनिया को तीन सौ और मनिराम को तीस। वस्तुत: पंचकल्याणकों एवं विधानों में ऐसी ही स्थिति है। संगीतकारों को मुहमांगी विदाई और आरती वगैरह में निछावर देखते ही बनती है। मैंने स्वयं देखा है कि संगीतकारों को आरती की निछावर राशि आठ दिन में उन्नीस हजार रु. प्राप्त हुई इसके अतिरिक्त विदाई अलग। जब जिनवाणी के प्रकाशन एवं उसके उपासकों के सम्मान की बात आती है तो समाज प्रश्न खड़े करती है। इस पर सभी को गंभीरता एवं दूरदर्शिता से विचार करना चाहिए। शीतलचन्द्र जैन 4 दिसम्बर 2003 जिनभाषित - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिक्रमण और प्रतिक्रमण आचार्य श्री विद्यासागर जी स्वयं की सीमा पारकर पर सीमा में प्रवेश करना ही अतिक्रमण | अनुभूति कराते हुए आचार्य श्री ने बताया कि आत्मदृष्टा सदा संयत है। पर परिचय प्राप्त करने में पल-पल व्यतीत करने पर आत्म | और संयमित होता है। परिचय से सदा वंचित रह जाते हैं। ज्ञान वारिधि तपो निधि आचार्य संदेह के सम्बन्ध में श्रोताओं को सहज ज्ञान बोध कराते श्री विद्यासागर ने अमरकण्टक में श्रोताओं को बोध कराते हुए कहा ] हुए आचार्य श्री ने कहा कि भय अथवा अनिर्णितज्ञान से संदेह कि परस्पर आंखों में आंखें डालना कलह कारक है, संघर्ष व्याप्त हो | होता है। पूर्ण ज्ञान नहीं होना संदेह की देह है। वही डराता है जाता है। आत्म दृष्टा संघर्ष शून्य होता है, पर से परे होने पर पार | जिसके अंदर डर होता है, निजमग्न निडर होता है। पर जीव से हो जाते हैं। कलह को पूर्ण विराम देने के लिए अतिक्रमण का | भय होता है, स्वयं से कभी भयभीत नहीं होते। यह बताते हुए परित्याग कर प्रतिक्रमण अंगीकृत किया जाता है। आत्मलीन भयमुक्त आचार्य श्रीने कहा कि चलते चलते अन्य जीव से आंख मिलने के होता है पर जीव से ही भय की अनुभूति होती है। उपरान्त भय व्याप्त हो गया। बार-बार पीछे मुड़कर देखते हैं, अतिक्रमण उल्लंघन का प्रतीक है यह बताते हुए आचार्य अपनी पद चाप की ध्वनि भी डराती है। अन्य पर दृष्टि रखने श्री ने कहा कि उल्लंधित सीमा से वापस अपनी सीमा में आना ही | वाला, सोचने वाला भयभीत रहता है, पर की पहचान में संलग्न प्रतिक्रमण है। अतिक्रमण से संघर्ष छिड़ जाता है कलह व्याप्त | रहने वाले की दशा बिगड़ जाती है। पर से प्रीति और भीति नहीं होती है, किन्तु प्रतिक्रमण से संघर्ष विराम हो जाता है, शांति छा | रखना ही राग द्वेष रहित होना है। आत्म परिचित रागद्वेष विहीन जाती है। पर को देखना भी अतिक्रमण की क्रिया है बहुधा यही | होता है। राग द्वेष को भय का आधार बताते हुए आचार्य ने कहा शिकायत होती है उसने मुझे घूर कर देखा, क्यों देखा? मैंने भी कि आत्म स्वरूप का ज्ञान होते ही भीति और प्रीति की समाप्ति हो देखा विवाद व्याप्त हो गया। एक दूसरे को देखने पर संघर्ष आरंभ | जाती है। मन के ऊपर नियंत्रण रखने पर ही श्रद्धा प्रकट होती है हो जाता है। विवाद, देख लेने तक बढ़ जाता है। दोनों की दृष्टि । इसीलिए नमन में मन का निषेध किया गया है। मन भांति-भांति निज पर हो तो देखने अथवा देख लेने की स्थिति कभी नहीं होगी। | के प्रश्न उपस्थित करता है। यह बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि आत्मदृष्टा सदैव शांति के साथ रहता है। एक सहज दृश्य के द्वारा | मन के हारे हार है मन के जीते जीत । जिसने मन को जीत लिया आत्म दृष्टि की सीख देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि एक स्वान के | वही विजेता है। जीव का संघर्ष जीव से होता है, अजीव से नहीं। मुंह में रोटी देखते ही अन्य स्वान भी छुड़ाने के लिए यत्नशील हो | जिस स्थान पर बैठे हैं वहाँ सिर पर एक छोटा कंकड़ गिरा, ऊपर जाते हैं, अपनी रोटी की रक्षा के लिए स्वान दौड़ते हुए पीछे देख | देखा एक चिड़िया दीवाल पर कुटर कुटर कर रही है चिड़िया पर लेता है। पीछा करने वाले पीछे छूट गये किन्तु भय अभी समाप्त | क्रोधित हो जाते हैं । कंकड़ सिर पर गिरा था किन्तु कंकड़ पर रोष नहीं हुआ है। जैसे ही खाने के लिए नीचे रखूगा अन्य स्वान आ | नहीं हुआ। जड़ से संघर्ष नहीं करते जीव से करते हैं। जीव का जायेंगे। सामने एक छोटी नदी है यह पार कर लूं तब अपना | रुप समझ में आ जाए तो संघर्ष सदैव के लिए समाप्त हो सकता भोजन कर सकूँगा। नदी पार करते हुए देखा अरे नदी में मेरे ही | है। यह बताते हुए आचार्य श्री विद्यासागर ने कहा कि भयभीत जैसा एक अन्य स्वान भी है उसके मुंह में एक रोटी है। इधर उधर | होना अस्वस्थता का प्रतीक है। भयभीत जीव चौकन्ना रहता है। देखा वह भी ऐसा ही कर रहा है, गौर से देखा, वह भी गौर से देख चारों ओर कान होने पर चौकन्ना कहा जाता है। दो कान होते हुए रहा है, संघर्ष छिड़ गया। छाया को प्रतिद्वन्दी समझने पर द्वन्द्व हो भी भयभीत को दोगने कानों की आवश्यकता होती है। भय का गया। छाया भी पर होती है, छाया से संघर्ष करने पर रोटी मुंह से अस्तित्व होने पर भी स्वयं को भय से पृथक रख सकते हैं। जिस गिरकर प्रवाह में बह गयी, लहरों में हलचल होने से छाया नहीं प्रकार कमल जल में खिलता है किन्तु जल से पृथक रहता है। दिख रही, वह मेरी रोटी लेकर भाग गया। पर दृष्टि से भोजन मुंह | चारों ओर जल होने पर जल की कोई बूंद कमल पर नहीं होती। से छूट गया, मुंह के माध्यम से पेट में नहीं जा सका। दूसरी कक्षा आत्मदृष्टा चहुं ओर भय का वातावरण होने पर भी निर्भय रहता की कथा से सीख मिलती है किन्तु कथा पर ध्यान नहीं देने पर | है। प्रीत के शब्द एवं अपशब्द का स्मरण शयन के समय हो जाता यह दूसरी कक्षा की हो जाती है मेरी कक्षा की नहीं। पर दृष्टा है, निद्रा नहीं आती, घटना पहले घटित हुई किन्तु शब्द कानों में जीवन कलह कारी होता है। पर का परिचय ज्ञात करने में रत रहने गूंजने लगते हैं, अशान्त हो जाते हैं यही राग द्वेष है जो पर शब्दों पर आत्म परिचय कभी प्राप्त नहीं हो पाता । स्वयं से परिचित नहीं | का स्मरण होते ही अशान्त कर देता है। अपने-अपने में लीन हो गैर के विषय में जानकारी लेते रहते हैं। पर से परे होने वाला ही | तो संघर्ष कभी नहीं होगा। पर ध्यान न लगाएँ निज पर ध्यान दें। पार हो सकता है एक साधारण कथा से असाधारण दर्शन की | पहले अपनी पहचान कर लें। वेदचन्द्र जैन, गौरेला, पेण्ड्रारोड -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार की समस्याओं का निदान : अहिंसा, संयम और तप श्री मज्जिनेन्द्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं त्रयगजरथ महोत्सव, भाग्योदय तीर्थ, सागर म.प्र. २१ फरवरी २००३ को पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं सांसद साध्वी उमाभारती (वर्तमान मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश) के उद्बोधन का संपादित अंश जब मैं राजनीति में नहीं थी तब इनसे पहली बार मिलने । और सोच रहा है, बाणी में कुछ और बोल रहा है और कर्म से के लिए गई थी और तब से लेकर आज तक जहाँ भी आचार्य श्री | कुछ और कर रहा है। ये तीनों ही सुर बिगड़े हुए हैं। ऐसे बिगड़े होते हैं, मैं कोशिश करती हूँ कि दो घड़ी के लिए अनके दर्शन | हुए सुरों के लोग करोड़ों की संख्या में भूमण्डल पर विचरण कर करने जरुर जाऊँ। और यदि बताऊँ कि इसके पीछे मेरी राजनीतिक | रहे हैं, ऐसे समय में ये धरती अगर पाताल में नहीं जा रही है और आकांक्षा कभी नहीं होती, ये उनको भी मालूम है। राजनीति तो कलिकाल का भयानक विस्फोट अगर नहीं हो रहा है तो उसका जनता जनार्दन की कृपा से चलती है, महाराज श्री की कृपा से तो कारण एक मात्र है कि महाराज श्री जैसे लोग अभी इस धरती पर हम भगवत प्राप्ति का मार्ग खोजने के लिए आते हैं और इसलिए | मौजूद हैं। और इसलिए मैंने तो अपनी जिंदगी का भार ही उन पर यदि चित्त में अवसाद हो तो मैं महाराज श्री का ही स्मरण करती सौंप रखा है। और में आपको बताऊँ मेरे जीवन के कुछ मंत्र हैं, हूँ। .... अगर मैं लड़ती हूँ तो महाराज श्री से ही लड़ती हूँ, ये । | खास तौर पर मुझे जो जिम्मेदारी अभी तक मिली है तो उसके तीन उनको पता है। ऐसा कई बार हुआ है जब उनसे लड़ने पहुँच गई | मंत्र बनाए हैं और मैं उन्हीं पर चल रही हूँ- निर्विकार, निष्काम और मैंने उनसे अपने मन की बात रखी मैं उन्हें कुछ जिम्मेदारी और निर्भय। मैं किसी से विकार नहीं रखूगी, कोई कामना नहीं सौंप कर आई थी कि आपकी जिम्मेदारी है कि मेरी समस्या का रखंगी और किसी से भयभीत नहीं होऊंगी। लेकिन इन तीनों मंत्रों निदान होना चाहिए। मैंने कभी राजनीतिक समस्या उनके सामने | के पीछे कोई शक्ति प्राप्त होती है मुझे, तो आप विश्वास करिए वह नहीं रखी, साधना से संबंधित समस्या ही उनके सामने रखी है। | महाराज श्री ही हैं। मैं महाराज श्री की चमचागिरी नहीं कर रही हूँ इसलिए महाराज श्री को मैं एक सामान्य पंचतत्वों से भरे हुए | क्योंकि मुझे महाराज श्री की चमचागिरी करने की बिल्कुल जरुरत शरीर के अन्दर विचरण करने वाली चेतना के रूप में नहीं देखती नहीं है। मैं उनके स्नेह की पात्र हूँ। मैं हृदय की बात कह रही हूँ हूँ। इसलिए मैं इनको एक राष्ट्रीय संत नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय | कि मैं कभी किसी से भी भयभीत नहीं होती हूँ, लेकिन अगर मुझे स्तर की विभूति मानती हूँ। और उनको राष्ट्रीय संत की पदवी से किसी से डर लगता है और किसी के सामने दिल खोलकर बात बाँध देने से वह एक देश की सीमाओं में बँध जायेंगे। वह एक | कहती हूँ तो महाराज श्री के सामने ही कहती हूँ। देश की सीमाओं बँधने के योग्य व्यक्ति नहीं हैं। महाराजश्री के दर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ, मुनिजनों आज संसार की सारी समस्याओं का निदान जो है वह | के दर्शन प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ, ये साधारण बात नहीं अहिंसा, संयम और तप के अलावा कुछ भी नहीं है। इसलिए | है। आप लोग जो देख रहे हो वो साधारण नहीं है। बिना वस्त्र के अहिंसा, संयम और तप की जीवंत प्रतिमा यदि आज इस भूमण्डल | रहना, भोजन नहीं के बराबर होना, फिर भी आँखों में इतनी पर कोई विचरण कर रही है तो वह सिर्फ आचार्य विद्यासागर चमक और चेहरे पर इतनी प्रसन्नता है। मैंने महाराज श्री से कई महाराज ही हैं। इसलिए मैं लोगों से कहती हूँ कि बद्रीनाथ, बार पूछा है कि मुझे ये भेद बताओ कि अन्तर्मुख क्या चीज केदारनाथ जाने में कठिनाई होती है, बहुत चढ़ाईयाँ चढ़ना पड़ती आपको मिल गई है कि संसार के सारे के सारे आनंद फीके पड़ हैं। केदारनाथ जब जाते हैं तो वहाँ आक्सीजन की बहुत कमी | गये हैं। वह क्या चीज है जो आप अन्तर्मुखी हैं, क्योंकि कोई तो होती है अत: वहाँ बहुत कठिनाई होती है। मैं वहाँ जाकर रही हूँ | चीज आपको मिलती ही होगी। जब १०० रुपया मिलेगा तो एक महीने, डेढ महीने । मुझे पता है कि वह कितनी बड़ी तपस्या है। | रूपया अपने आप छूट जाएगा। १रूपया मिलेगा तो दस पैसा लेकिन मैं आपको यह बतलाती हूँ भले ही आप तिरुपति बालाजी | अपने आप छूट जाएगा। उन्हें अंदर किसी परमानंद की प्राप्ति हो जायें, द्वारकाधीश जायें, बद्रीनाथ जायें, केदारनाथ जायें लेकिन | गई है। इसलिए तो जगत के सारे आनंद हैं, वे छूट गये हैं। अतः जब महाराज जी को देखती हूँ तो लगता है सारे देवता उनके वह अंदर क्या चीज है जो उन्हें मिल गई है? मैं आपसे भी अन्दर आ गये हैं। अनुरोध करुंगी कि आप जब महाराजश्री के पास आते हैं तो पैसे आज व्यक्ति के मन, वचन और कर्म में संगति नहीं रही। | के लिए मत आइए। आप किसी अन्य आकांक्षा से भी मत आइये। वह मन में क्या सोच रहा है, वाणी से क्या बोल रहा है और कर्म | आप उनसे वो वस्तु तलाशने के लिये आइये जो उनको अन्दर से क्या कर रहा है- तीनों के सुर बिगड़े हुए हैं। यह मन में कुछ । मिल गई है और जिसके कारण संसार के सारे आनन्द उनसे कब 6 दिसम्बर 2003 जिनभाषित . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छूट गये हैं, पता ही नहीं लगा था, संसार कब छूट गया? अरे! । है। मैं महाराज श्री के सुर पर ही चल रही हूँ और भविष्य में जिस माँ ने ९ महिने पेट में रखा उस माँ का मोह कब छूट गया | महाराज श्री के सुर ही मेरे द्वारा आपको सुनाई देंगे। पता ही नहीं लगा, घर परिवार का मोह कब छूट गया ये भी पता मैं पुनः आपको आगाह करती हूँ कि महाराज श्री को नहीं लगा, हजारों किलोमीटर दूर दक्षिण में कहीं किसी धरती पर | राष्ट्रीय संत न कहा जाए , अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का उनका व्यक्तित्व जन्म हुआ वो धरती कब छूट गई यो भी पता नहीं लगा! हजारों है। और उनकी छत्रछाया में ही संसार चल रहा है, मैं तो ये मानती किलोमीटर दूर पैदल चलकर चलता हुआ ये भगवान जैसा महापुरुष हूँ। एक बार फिर से उनके चरणों की वंदना करती हूँ। और उनके धरती पर पैदल चलता हुआ इस धरती को पवित्र करने जो आया | आशीर्वाद की हमेशा आकांक्षी रहूँगी, उनकी बांसुरी रहूँगी। वो है, उनके चरणों की वंदना कीजिए ये महाराज श्री तो विद्या और जो चाहे वह सुर मेरे द्वारा बजाएँ, बस इन्हीं शब्दों के साथ अपनी बुद्धि के सागर हैं। और मैं महाराज जी का बालक हूँ। मैं तो | बात समाप्त करती हूँ। महाराज श्री के हाथ की बांसुरीहूँ। बांसुरी का कोई अपना सुर कैसेट से आलेखन - सुरेन्द्र जैन मालथौन वाले, सागर नहीं होता, बजाने वाले का ही सुर होता है जो बांसुरी में सुनाई देता । प्रेषक - महेश कुमार जैन बिलहरा वाले, सागर सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र शाश्वत् महातीर्थ सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र पर गत कुछ वर्षों में चौपड़ा कुंड पर श्री दि. जैन सम्मेदाचल विकास समिति द्वारा दि. जैन मंदिर एवं धर्मशाला का निर्माण किया गया था। जिससे पहाड़ पर ठहरना चाहने वाले मुनिराजों, आर्यिका माताओं, त्यागी व्रतियों तथा श्रावक बंधुओं के लिए दिगम्बर जैन समाज के स्वामित्व का एक स्थान उपलब्ध हुआ था। इस स्थान के निर्माण के पूर्व दिगम्बर जैन समाज का अपना पहाड़ पर कोई स्थान नहीं था जो एक बहुत बड़ी कमी थी। इस कमी की पीड़ा को दिगम्बर जैन समाज अनेक वर्षों से अनुभव कर रही थी। चौपड़ा कुंड पर दि. जैन मंदिर और धर्मशाला के निर्माण होने से दि. जैन साधुओं व त्यागी व्रतियों के लिए पहाड़ पर ठहरने एवं आहार आदि की व्यवस्था हो गई। यात्रियों को भी रात्रि विश्राम, पाठ पूजा, स्नान, भोजन आदिकी सुविधाएँ प्राप्त हो गईं। इस स्थल के साथ दिगम्बर जैन समाज के अस्तित्व व अस्मिता का प्रश्न एवं प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। किंतु खेद की बात है कि प्रारंभ से ही सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र पर दि. जैन समाज द्वारा किया गया यह निर्माण अनेकों की आंखों की किर किरी बना हुआ था। समय पाकर उन दि. जैनों के द्वेषी लोगों ने वन विभाग को झूठी शिकायतें कर इस मंदिर व धर्मशाला के निर्माण कार्य को तुड़वाने का षडयंत्र रचा। उन्होंने वन विभाग में पहाड़ पर अतिक्रमण एवं बिना आज्ञा निर्माण कार्य कर देने की शिकायत की। वन विभाग वालों से सांठगांठ कर दि. जैन समाज के विरूद्ध दो केस लगा दिए। एक वन संपदा को हानि पहुंचाने का और दूसरा वन भूमि पर अतिक्रमण कर मंदिर धर्मशाला का अवैध निर्माण करने का । तुरत फुरत में वन विभाग ने उस मंदिर और धर्मशाला के निर्माण कार्य को तोड़े जाने के आदेश दे दिए। ये समाचार जैसे ही मिले सभी दि. जैन धर्म श्रद्धालु बंधुओं को भारी चिंता हुई। श्री दि. जैन सम्मेदाचल विकास समिति के यशस्वी मंत्री श्री अशोक कुमार दोषी से वन विभाग के आदेश के विरूद्ध जिला कलेक्टर गिरीडीह के यहाँ अपील प्रस्तुत की और दूसरे वन संपति को हानि पहुचाने वाले केस में, जो गिरीडीह न्यायालय में दायर हुआ था, अपना लिखित उत्तर प्रस्तुत किया। यह अत्यंत प्रसन्नता की बात है कि वन संपदा को हानि पहुँचाने के अपराध वाला केस न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया। जिलाधीश के यहाँ की गई अपील में समिति ने यह तर्क दिया कि चौपड़ा कुंड की भूमि जहाँ मंदिर व धर्मशाला का निर्माण किया गया है वह वन भूमि नहीं है। वह गैर मजरूबा (राज्य सरकार की) भूमि है। समिति ने राज्य सरकार द्वारा लिखित स्वीकृति के आधार पर ही मंदिर व धर्मशाला का निर्माण कार्य कराया था। जिलाधीश महोदय ने समिति के तर्क को स्वीकार करते हुए वन विभाग के निर्माण कार्य को तोड़ने के आदेश पर स्थगनादेश दे दिया। इन दोनों समाचारों से दि. जैन समाज के प्रबुद्ध लोगों को बहुत प्रसन्नता हुई। श्री अशोक कुमार जी दोसी के द्वारा किए गए मंदिर व धर्मशाला के निर्माण कार्य से जो दिगम्बर जैन समाज का पहाड़ पर अपना वर्चस्व स्थापित हुआ उससे श्वेताम्बर समाज तो अप्रसन्न था ही परंतु दुर्भाग्य से दिगम्बर जैन बंधुओं में से भी कुछ लोग, जो इस निर्माण कार्य से अपनी ईगो और प्रतिष्ठा आहत हुई अनुभव कर रहे थे, वे भी नाराज थे। दिगम्बर जैन समाज का यह ऐसा दोष है जो उसको संगठित होकर अपनी वांछित प्रतिष्ठा प्राप्त करने से वंचित रखता है। विचारभेद होने पर भी हमें यह स्वीकार करने में उदार होना चाहिए कि चौपड़ा कुंड पर दि. जैन मंदिर और धर्मशाला का निर्माण '. कार्य दि. जैन समाज के अपने अस्तित्व की घोषणा करने वाला एक प्रतिष्ठा चिन्ह है। ऐसे समयों पर जब बाहर के लोगों की और से हमारी अस्मिता के प्रतीक आयतनों पर आक्रमण हो तो हम सब संगठित होकर उसका सामना करें और अपने आयतनों की सुरक्षा के लिए पूरी शक्ति से प्रयत्नशील हों। मूलचंद लुहाड़िया -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बानपुर कैलाश मड़बैया मध्य-देश के बुन्देलखड में जैन तीर्थ-क्षेत्रों की न केवल । कलात्मक होने के कारण दर्शनीय भी है। संख्या अधिक है वरन् शिल्प की गुणवत्ता भी उच्च स्तरीय है। एक | अतिशय तरफ जहाँ खजुराहो जैसा अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का कला-तीर्थ है । बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक यहाँ स्थित जैन क्षेत्रपाल वहीं देवगढ़ जैसा आध्यात्मिक, शिल्पगढ़ और कलात्मक दृष्टि से | निर्जन होने के कारण चोरों के छिपने का अड्डा बन गया था। तभी भी सम्पन्न तीर्थ विद्यमान है। यहाँ एक जिन छुल्लक महाराज श्रुतिसागर जी पधारे और कुछ ऐसा उ.प्र. में स्थित देवगढ़ और म.प्र. में स्थित खजुराहो के अतिशय हुआ कि वे इसी क्षेत्र पर ठहर गये और जैन धर्मावलम्बियों बीच फैले बृहद बुन्देलखण्ड में जैन तीर्थ क्षेत्रों की विशद श्रृंखला को प्रेरित कर इसे जैन तीर्थं के रूप में पुनर्स्थापित कर जीर्णोद्धार है। इनमें सेरोन, पवा, द्रोणगिरि, मदनपुर, बानपुर, पपौरा, अहार कराते हुय आबाद करा दिया। एक नागराज और एक बंजारे की आदि उल्लेखनीय हैं । इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से इनमें बानपुर किंवदंतियाँ भी यहाँ थी पर उन्हें प्रमाणिकता नहीं मिल सकी । क्षेत्र विशेष रुप से रेखांकित किये जाने बाला जैन तीर्थ है। की मुख्य मूर्ति शांतिनाथ तीर्थंकर प्रतिमा के अपने आप बढ़ते रहने बानपुर क्षेत्र का वर्तमान, अतीत की तुलना में अत्यन्त | की जन श्रुतियाँ भी सुनने को पहले मिल जाती थीं जो अब चुक उपेक्षित है। उ.प्र. के ललितपुर जिले का यह कस्बा, टीकमगढ़ गई हैं। मार्ग पर पड़ता है। ललितपुर से बानपुर मात्र ३५ किलोमीटर और पुरातत्व बानपुर से टीकमगढ़ केवल दस किलोमीटर प्रशासनिक एवं बानपुर में स्थित दो प्राचीन जैन मंदिरों के अतिरिक्त महरौनी राजनैतिक दृष्टि से यह उत्तर प्रदेश और व्यापारिक एवं व्यावहारिक मार्ग पर २८०४२०० फुट के प्रांगण में प्राचीन जैन मंदिरों का एक रुप से यह मध्यप्रदेश से जुड़ा हुआ है। परिणामतः दोनों सरकारों समूह स्थित है। इस तीर्थ क्षेत्र को पहले यहाँ क्षेत्रपाल ही कहते थे। की दृष्टि से ओझल है। मंदिर संख्या-एक एवं दो । उपरोक्त के बावजूद बानपुर देश की स्वतंत्रता में राजा मर्दन नागर शैली शिखर युक्त इस संयुक्त जिनालय के प्रथम सिंह की कुर्वानी, जैन क्षेत्र स्थित दसवीं सदी के कलात्मक सहस्रकूट बाह्य भाग में ५'४" उतुंग खड़गासन तीर्थंकर एवं अन्दर की चैत्यालय और अद्वितीय गणेश जी की बाइस भुजाओं वाली प्रतिमा वेदिका पर सं. ११४२ की पद्मासन प्रतिमा तीर्थंकर ऋषभनाथ की के कारण जागरुक सामान्य जन की दृष्टि से ओझल नहीं है। तो है। लगे हुये दूसरे मंदिर के बाह्य भाग में ८ फुट उत्तुंग शान्तिनाथ आइये, क्रमशः संक्षेप में बानपुर जैन तीर्थ के दर्शन करें एवं अन्दर के भाग में ८ फुट ६ इंच ऊँची तीर्थंकर की मूर्ति इतिहास खड़गासन में दर्शनीय है। भारत के १८५७ कालीन प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बानपुर | मंदिर संख्या-तीन . के राजा मर्दन सिंह ने उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम इस मध्य-मंदिर की मण्डपाकार संरचना में मुख्य द्वार के कर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को न केवल सहयोग किया वरन् ऊपरी तोरण पर क्षेत्रपाल प्रतिमा जड़ी हुई है और बाह्य दीवालों पर स्वराज्य की स्थापना हेतु समूचे बुन्देलखण्ड में विदेशी सत्ता के तीनों ओर पौराणिक प्रतिमाओं का खजुराहो-शिल्प सा उत्कीर्णन है, विरुद्ध संगठन तैयार कर नींव शिला का कार्य किया था। मर्दन सिंह जिनमें शासन देवी-देवता, शिव पार्वती आदि के कलात्मक दृश्य हैं। ओरछा गद्दी की वंश परम्परा में ही राज्य के विभाजन उपरांत अन्त: वेदिका पर सं. १५४१ की धवल श्वेत संगमरमर से बानपुर में सिंहासनारुढ़ हुये और अपने साहस एवं शौर्य से खोये निर्मित पद्मासन तीर्थंकर की प्रतिमा और श्री चरण जी विराजमान हैं। हुये क्षेत्रों को प्राप्त कर, चंदेरी तालबेहट क्षेत्र भी बानपुर में सम्मिलित कर लिया था। अंततोगत्वा संघर्ष करते करते अंग्रेजों ने उन्हें 'बड़े बाबा' का मंदिर नजरबंद कर लिया और स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करते हुए वे २२ यह एक विशिष्ट जिनालय है जिसमें सं. १००१ की १८ जुलाई १८७९ को गौ-लोकवासी हुये। फुट उत्तुंग तीर्थंकर शांतिनाथ की विशाल और भव्य खड़गासन बानपुर अपनी वर्तमान ऐतिहासिक धरोहर के साथ ही मूर्ति के दोनों ओर तीर्थंकर कुन्थनाथ एवं अरहनाथ की सात सात अतिशय जैन तीर्थ की कलात्मक धरोहर के लिये भी दर्शनीय है। फुट खड़गासन प्रतिमायें अवस्थित हैं। यह त्रिमूर्ति अत्यंत आकर्षक यहाँ का सहस्रकूट चैत्यालय सचमुच अद्वितीय है । अत्यंत प्राचीन और चमत्कारिक है। यद्यपि इस तरह की त्रिमूर्ति की संरचनायें शिल्प और तीर्थंकर-मूर्तियाँ तो उल्लेखनीय हैं ही। पार्वती नंदन बुन्देलखण्ड के अन्य कतिपय तीर्थों में भी दर्शनीय हैं पर बानपुर गणेश की भी भारत प्रसिद्ध पाषाण प्रतिमा बानपुर के गणेश गंज में के इस तीर्थ की त्रिमूर्ति पर स्थित शिलालेख से जहाँ इसके निर्माण दर्शनीय है। कस्बे का बडा जैन मंदिर न केवल प्राचीन है वरन । सम्बत् १००१ को प्राचीनता सम्बन्धी पुष्टि होती है वहीं मूर्ति पर 8 दिसम्बर 2003 जिनभाषित . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकित घुटनों तक बिखरी तीर्थकर की केश राशियाँ यह परिलक्षित ग्रहपतिवंशसरोरुहसहस्ररश्मिः सहस्रकूटैर्यः। करती हैं कि इसकी रचना तीर्थंकर के तप: कला की है। इसलिये वाणपुरे व्यधितासीत् श्रीमानि। ह देवपाल इति ॥१॥ बाँयी मूर्ति कुन्थनाथ की न होकर आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ की श्री रत्नपाल इति तत्तनयो वरेण्यः पुण्यैकमूर्तिरहोना ज्यादा पुष्ट होता है। मंदिर के पृष्ट भाग में एक पदासन अत्यंत भवद्वसुहाटिकायां । कीर्तिर्जगत्रय भव्य प्रतिमा महावीर स्वामी की शीर्ष रहित विराजमान थी। जो परिभ्रमणश्रमा यस्यस्थिराजनि जिनायतनच्छलेन॥२॥ स्थानांतरित हो चुकी है। वर्तमान में इस मंदिर का शिखर युक्त एकस्तावदनूनबुद्धिनिधिना श्री शान्तिचैत्याल। नवनिर्माण किया जा चुका है। यो दिष्टयानन्दपुरे परः परतरानन्दप्रदः श्रीमता। सहस्रकूट चैत्यालय येन श्रीमदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निर्मिमे। क्षेत्र के पूर्वी भाग में भारतीय स्थापत्य कला का अद्भुत सोऽयं श्रेष्ठिवरिष्ठगल्हण ईति श्रीरल्हणाख्याद । भूत् ॥३॥ प्रतीक सहस्रकूट चैत्यालय एक दर्शनीय सृजन है। उत्कृष्ट नागर तस्मादजायत कुलाम्बरपूर्णचन्द्रः शैली का सुगढ़ शिल्प, दसवीं सदी के इस जिनालय के प्रत्येक श्रीजाहडस्तदनुजोदयचन्द्रनामा। पाषाण में परिलक्षित होता है। २२ फुट चौड़े आसन पर ५० फुट एकः परोपकृतिहेतुकृतावतारो धर्मात्मकः पुनरमो उत्तुंग चैत्यालय के चारों ओर द्वार हैं, अन्तः भाग के बीच में तीन घसुदानसारः ॥४॥ फुट ऊँचे अधिष्ठान पर एक शिखरनुमा आठ फुट गुणा चार फुट के ताभ्यामशेषदुरितौघशमैकहेतुं निर्मापितं शिलाखण्ड में चारों ओर एक हजार आठ जिनेन्द्र भगवान की भुवनभूषणभूतमेतद् । श्रीशांतिचैत्यमतिनित्यसुखप्रदा मूर्तियाँ नगीने की तरह जड़ी हुई हैं। तृ मुक्तिश्रियो वदनवीक्षणलोलुपाभ्याम्।।5।। बाह्य भाग में दरवाजों से लगे हुये स्तम्भों पर आधारित संवत् १२३७ मार्ग सुदी ३ शुक्रे चारों ओर चार मण्डप आच्छादित हैं.। चारों दरवाजों पर द्वारपाल श्रीमत्परमर्द्धिदेव-विजयराज्ये। दिकपाल हैं । तोरणों पर नवग्रह, ऊपर-नीचे मदमस्त हाथी ओर शेर चन्द्रभास्करसमुद्रतारका यावदत्र जनचित्तहारकः। के साथ कलशवाहिनी शासन देव-देवियों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। धर्मकारिकृतशुद्धकीर्तनंतावदेव जयतात्सुकीर्त्तनम्॥६॥ यक्ष यक्षिणियाँ, नृत्यरत युगल और विभिन्न मुद्राओं में शासन वाल्हणस्य सुतः श्रीमान् रुपकारो महामतिः । देवियाँ अलंकृत हैं। शिखर, बारह पटलों के माध्यम से वर्तताकार पापटो वास्तुशास्त्रज्ञस्तेन बिम्बं सुनिर्मितम्॥७॥ उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होते हुये अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होता है। शिखर के उक्त शिलालेख के प्रथम श्लोक से ही पुष्ट हो जाता है कि अन्त में आमलक, घट पल्लव और कम्भ-कलश शोभायमान हैं। ग्रहपति वंश रुपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये सर्य के समान शिखर पर मध्य भाग से ऊपर पर्व तथा पश्चिम में दो देवियों का श्रीमान देवपाल ने बानपुर में सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण निर्माण झरोखों में शिल्प-सज्जा के साथ वातायन बनाते हुये इस कराया था। यह भी कि इसके सृजनकर्ता वास्तुशिल्पी पापट रहे हैं तरह सामंजस्य पूर्ण निर्माण किया है कि हवा और रोशनी का अन्दर देवपाल, अहार-प्रतिमा के निर्माता के तीन पीढ़ी पूर्व के थे अर्थात् प्रवेश गहराई तक संभव हो सके। आसन से शिखर तक की सम्पूर्ण दसवीं सदी का काल बानपुर के सहस्रकूट निर्माण का अनुमानित रचना का शिल्प-अलंकरण अद्वितीय है। पौराणिक गाथाओं पर है। अनेकान्त' पत्र ने १९६३ में एक लेख में इस निर्माण का उल्लेख आधारित दृष्य मकरवाहिनी गंगा, कर्मवाहिनी यमुना और दिगम्बर कर रचना काल ईस्वी सन् ९४५ माना है। मूर्ति भी तलवार एवं नरमुण्ड कर में लिये हुये जैसी मूर्तियाँ यों भी गुप्तोत्तर काल में ही मूर्ति रचना की विविधता मिलती उपलब्ध हैं। अहिंसा और हिंसा का यह समन्वय दर्शनीय है। है और सहस्रकूट की रचना इसी किस्म की है। कूट का अर्थ होता यद्यपि सहस्रकूट चैत्यालय की रचना बहुत कम क्षेत्रों पर है चोटी (जिसका प्रयोग जिनालय के रूप में कर लिया गया) और उपलब्ध है। देवगढ़, पटनागंज, कोनी आदि कुछ क्षेत्रों में अवश्य सहस्र अर्थात् एक हजार। जबकि सहस्रकूट चैत्यालय में एक निर्माण हुआ है। परन्तु बानपुर का सहस्रकूट चैत्यालय देश में अपनी | हजार मूर्तियों की स्थापना केवल श्वेताम्बर जैन समाज में होती है। तरह का सुन्दर सृजन है। दिगम्बर क्षेत्र के सहस्रकूटों में मूर्तियों की संख्या एक हजार आठ एक हजार वर्ष से अधिक प्राचीन इस कलाकृति के रचना निर्मित की गई है। आदि पुराण पर्व २५ श्लोक २२४ में प्रथम काल के बारे में प्राचीनता के सूत्र म.प्र. के टीकमगढ़ जिले में अहार तीर्थंकर आदिनाथ की स्तुति इन्द्र द्वारा एक हजार नामों से की गई जैन क्षेत्र के एक शिलालेख में मिलते हैं। थी। संभवतः इसी आधार पर सहस्रकूटों का कुछ क्षेत्रों में यथा बानपुर से लगभग ३५ किलोमीटर दूर अहार जैन क्षेत्र के सम्मेद शिखर, दिल्ली आदि में भी निर्माण हुआ था परन्तु जैन धर्म मूलनायक तीर्थंकर शान्तिनाथ की उत्तुंग मूर्ति के पादमूल में वि. | में बहुदेवतावाद की परिकल्पना मान्य नहीं हो सकी। इसलिये संवत् १२३७ का उक्त शिलालेख देवनागरी लिपि का संस्कृत में | सहस्रकूट चैत्यालय दसवीं-ग्यारहवीं सदी के बाद शायद अन्यत्र अंकित है निर्मित नहीं हुये। ७५, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल -३ -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूकमाटी : योग से अयोग की ओर प्रस्थान का एक अनुपम महाकाव्य डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी जैन संस्कृति और धर्म-दर्शन की अजस्र धारा भारत में | अपनी रचना धर्मिता रूप मौलिक स्वरूप से वे निरन्तर अन्दर से आदिकाल से ही समृद्ध रुप में प्रवाहित है। कभी बाल्य, कभी | जुड़े रहते हैं। हजारों श्रावक भक्तों से घिरे रहकर भी वे निर्लप्त आर्हत तो कभी श्रमण आदि विभिन्न रूपों में इस संस्कृति ने सम्पूर्ण | भाव से अपने प्रणयन में लगे रहते हैं। मुझे स्वयं अनेक वर्षों तक जनमानस को लोकमंगल की भावना से सदैव ओत-प्रोत किया है। वर्ष में दो तीन बार उनके सान्निध्य से लाभान्वित होने का सौभाग्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन व्रतों पर आधारित | प्राप्त होता रहा है। कई रचनाओं को उनके श्री मुख से भी रचना नैतिक मूल्यों वाली प्राक् वैदिक कालीन 'व्रात्य संस्कृति' ने भारत | काल में ही सुना है। तथा काव्य रचना काल के समय के अनुभव की विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक एवं साहित्यक परम्पराओं भी सुनकर गदगद हुआ। उनसे ही सुना गया उनका यह अनुभव को मात्र गहराई से प्रभावित ही नहीं किया, अपितु सच्चे अर्थों में अब तक याद है कि नैनागिर जी में जब किसी शतक काव्य की भारतीयता का स्वरूप भी प्रदान किया है। तीर्थंकर ऋषभ देव से | रचना के समय एक स्थल पर शब्द योजना की संगति बैठ नहीं पा लेकर वर्धमान महावीर तक के चौबीस तीर्थंकरों के चिन्तन को | रही थी और रात्रि में उसी का चिन्तन करते हुए आचार्य श्री इनकी परम्परा के हजारों महान जैनाचार्यों ने भारत की प्रायः सभी । योगनिद्रा में लीन हुए, तब स्वप्न में ही जैसे किसी ने आकर उस प्राचीन भाषाओं में साहित्य की सभी विधाओं पर विशाल साहित्य | स्थान पर उपयुक्त शब्द सुझा दिया और उसकी शब्द योजना सृजन करके भारतीय बाङगमय की श्री वृद्धि की है। इसी परंपरा | सुसंगत हो गयी। प्रातः जागकर उन्होंने सबसे पहले उस शब्द द्वारा में दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा राष्ट्र भाषा | उसे पूरा किया। मूकमाटी भी लीक से हटकर आत्मोदय की हिन्दी में प्रणीत 'मूकमाटी' नामक महनीय काव्य योग से अयोग | नवीन सर्जना का एक चुनौती पूर्ण वह महाकाव्य है, जिससे काव्य की ओर प्रस्थान है कि इसे जब कभी भी जितनी बार पढ़ो प्रत्येक | सृजन के अनेक नये आयाम उद्घाटित होते हैं। कविता में ऐसी कुछ नवीनता दिखने लगती है कि पाठक सामान्यतया हिन्दी के कुछ आधुनिक काव्य पढ़कर तो आश्चर्यचकित हो इसके लेखक पूज्य आचार्य श्री की अलौकिक | लगता है कि लेखक अपनी बुद्धि को कष्ट देने में भी कंजूसी कर मेघा कवित्व शक्ति दूरदृष्टि एवं चिन्तन की गहनता पर मुग्ध हुए रहा है। क्योंकि साहित्य में बौद्धिक ऊर्जा होना आवश्यक है बिना नहीं रहता। अन्यथा ज्यों-त्यों बौद्धिक उर्जा कम होती जाती है, उसका स्तर जैन साहित्य के इतिहास में बीसवीं शती इसलिए अत्यधिक । भी गिरता जाता है। आचार्य श्री के इस काव्य में आत्मोदय की महत्वपूर्ण सिद्ध सार्थक सिद्ध हुई, क्योंकि एक ओर जहाँ विशाल | बौद्धिक ऊर्जा है और इसमें है एक आध्यात्मिक एवं दार्शनिक प्राचीन आगम तथा आगमेतर साहित्य को आधुनिक युग के अनुरूप | प्रयत्न से गम्भीर और ऊर्जित हो उठने वाली वाणी। इसलिए उनका सम्पादन, अनुवाद, विवेचन, समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन यह काव्य शिक्षा नहीं, अपितु वह आत्म दर्शन है, जो रचना के तथा अनुसंधान का महत् कार्य जितने विशाल स्तर पर हुआ, रास्तों से जाता है। आचार्य श्री ने 'मानस तरंग' शीर्षक से अपने विभिन्न भाषाओं में साहित्य का नव सृजन भी कम मात्रा में नहीं आद्य वक्तव्य में स्वयं लिखा है- 'यह वह सृजन है जिसका हुआ। इस प्रकार के साहित्य से राष्ट्रभाषा हिन्दी के विशाल भण्डार सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर श्रृंगार रस के जीवन की समृद्धि में चार चांद तो अवश्य ही लगे हैं। में भी वैराग्य का उभार आता है, जिसमें लौकिक अलंकार अलौकिक मूलत : अहिन्दी भाषी होकर भी आचार्य श्री विद्यासागर | अलंकारों से अलंकृत हुए हैं- जिसने शुद्ध सात्त्विक भावों से जी द्वारा प्रणीत 'नर्मदा का नरम कंकर, तोता क्यों रोता, डूबो मत- सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है, जिसका प्रयोजन सामाजिक, लगाओ डुबकी, चेतना के गहराव में एवं मूकमाटी जैसी श्रेष्ठ शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों काव्य कृतियाँ, अनेक संस्कृत ग्रन्थों के पद्यानुवाद एवं संस्कृत के को निर्मल करना और युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित कर अनेक मौलिक शतक काव्यों के साथ ही आपकी अनेक गद्य | भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को कृतियाँ लोकप्रिय हो चुकी हैं। इनकी रचनायें इनके श्रेष्ठ चिन्तन- | जीवित रखना है- और जिसका नामकरण हुआ है - 'मूकमाटी।' मनन-गहन तत्त्व ज्ञान एवं संयम की परिचायक हैं। इतने विशाल 'मूक-माटी' मात्र एक काव्य ही नहीं है, अपितु उस श्रमण संघ के अनुशास्ता होकर विविध उत्तर दायित्वों के बीच भी | समग्र आध्यात्मिक संस्कृति के उत्कर्ष का वह महाकाव्य है जिसने 10 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और और इस विधा के बंधे बंधाये लक्षणों , परिभाषाओं और परम्पराओं में | रूप में परिभाषित करते हुए प्रस्तुत किया है, वहीं कवि ने अपनी पूर्णत: न बंधकर भी रचना धर्मिता के निर्वाह में पूर्ण सफलता प्राप्त | सरस्वती सम लेखनी के द्वारा शीत, वसन्तादि ऋतुओं का विवेचन की है। साथ ही अपनी आगमिक परम्पराओं के विस्मृत मूल भूत अपने विवेच्य विषय के माध्यम से बड़े ही सहज तथा मनोज्ञ भाव तत्त्वों को सहेजकर प्रतीकात्मक रूप में मूकमाटी को आधार से किया है। तीव्र शीतकाल की रात में भी एक मात्र सूत का सस्ता बनाकर समग्रता के साथ प्रस्तुत किया है। इसीलिए कवि की चादर तन-पर डालकर शिल्पी कुम्भकार कुंकुम सम मृदु माटी वाणी मुखरित हुई, कह उठती है को सानने में लगा है। तभी माटी करुणा वश शिल्पी से कह उठती माटी की शालीनता कुछ देशना देती-सी! काया तो काया है महासत्ता-माँ की गवेषणा जड की छाया-माया समीचीना एषणा लगती है जाया सी... सो.... संकीर्ण-सत्ता की विरेचना कम से कम एक कम्बल तो... अवश्य करनी है तुम्हें! काया पर ले लो ना! अर्थ यह हुआ माटी के इस कथन पर शिल्पी कुम्भकार का पुरुषार्थ पूर्ण लघुता का त्यजन ही सहज आत्म बल जाग उठता है और माटी से कहता हैगुरुता का भजन ही कम बलबाले ही शुभ का सृजन है। कम्बल वाले होते हैं खण्ड : एक 'संकर नहीं, वर्णलाभ पृष्ठ - ५१' मूकमाटी के माध्यम से कवि ने श्रम, संयम और तप : काम के दास होते हैं साधना की आध्यात्मिक त्रिवेणी के रूप में श्रमण संस्कृति हम बलवाले हैं की अमर गाथा प्रस्तुत करते हुए कहा है -- राम के दास होते हैं कंकरों की प्रार्थना सुनकर और माटी की मुस्कार मुखरित हुई राम के पास सोते हैं संयम की राह चलो कम्बल का सम्बल राह बनना ही तो आवश्यक नहीं हमें हीरा बनना है सस्ती सूती चादर का ही स्वयं राही शब्द ही आदर करते हम! विलोम रूप से कह रहा है ऋतुओं के माध्यम से प्रकृति के अंकन का भी एक हेतु रा ... ही...ही..... रा है, क्योंकि साहित्य जगत् की इतिवृत्तात्मकता से कवि किसी और विराम विश्राम स्थल की खोज किसी न किसी रूप में करता इतना कठोर बनना होगा अवश्य है। इस काव्य के योगी कवि भी एक ओर जहाँ आत्मलीनता के क्षणों में अनंत चतुष्टय रूप अपूर्व आनन्दानुभूति प्राप्त करते हैं, तन और मन को वहीं उन्हें वाहय जगत् में अनादिकाल से मानव की सहचरी तप की आग में प्रकृति के नाना दृश्य कवि के हृदय को आत्म विभोर किये बिना तपा-तपा कर कैसे रह सकते हैं? प्रकृति के इन दृश्यों की सम्पूर्ण सौम्यता, जला-जला कर विशालता, गम्भीरता, शीतलता और कोमलता आदि गुण मूक रूप राख करना होगा से निरन्तर सहृदयता और प्रेरणा प्रदान करते हैं और कवि की यतना घोर करना होगा मनोभावनायें समस्त प्रकृति को समेटकर लेखनी द्वारा प्रवाहित हो तभी कहीं चेतन-आत्मा उठती हैं। खरा उतरेगा। वस्तुतः मनुष्य की चित्तवृत्ति सदा एक सी नहीं रहती। वहीं पृष्ठ ५६ कभी तो वह सांसारिक क्षणिक सुख में अपने को इतना लीन मान इस महाकाव्य के 'शब्द सो बोध नहीं, बोध सो सोध लेता है कि कभी तो वह सर्वाधिक सुखी मनुष्यों में अपनी गणना नहीं' नामक द्वितीय खण्ड में कवि ने जहाँ काव्य रसों को सार्थक करता है, किन्तु थोडे ही समय बाद दुःख के काले बादल चारों -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 11 कि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और ओर छाये नजर आने लगते हैं। सुख और दुख संयोग वियोग ये नाम धारी सन्त की उपासना से जीवन के मुख्य दो पहलू हैं, फिर भी मोह के वशीभूत हो मानव संसार का अन्त हो नहीं सकता, जीवन की यथार्थता समझे बिना मोह के वशीभूत हो परस्पर घात सही सन्त का उपहास और होगा... प्रतिघात और न मालूम क्या-क्या करता है ? चिन्तक कवि ने कहा मूकमाटी प्रत्येक के लिए सहज काव्य नहीं अपितु अति भी है गम्भीर है। लेखक कवि ने शब्द शिल्पी बनकर अनगिनत शब्दों मोह भूत के वशी भूत हुए को इस रुप में प्रस्तुत करते हैं कि पाठक आश्चर्य में पड़ जाता है कभी किसी तरह भी कि इसी साधारण शब्द का अर्थ उलट पलटकर या सीधे ही किसी के वश में नहीं आते ये, कितने असाधारण रूप में प्रस्तुत किया गया है। 'साहित्य' शब्द दुराशयी हैं, दुष्ट रहे हैं को देखिएदुराचार से पुष्ट रहे हैं शिल्पी के शिल्पक सांचे में दूसरों को दुःख देकर साहित्य शब्द ढलता सा! तुष्ट होते है, तृप्त होते हैं हित से जो युक्त-समन्वित होता है दूसरों को देखते ही वह सहित माना है रुष्ट होते हैं, तप्त होते हैं प्रतिशोध की वृत्ति इन की सहित का भाव ही सहजा - जन्मजा है साहित्य बाना है, वैर-विरोध की ग्रन्थि इन की प्रस्तुत महाकाव्य में जैन परम्परा के उन अनेक पारिभाषिक खुलती नहीं झट से। शब्दों का भी सुसंगत प्रयोग किया है, जिनका प्रयोग आधुनिक निर्दोषों में दोष लगाते हैं काव्य में कठिन या प्रचलन के बाहर का मानकर प्रायः समाप्त सा संतोषों में रोष जगाते हैं हो रहा था। वन्द्यों की भी निन्दा करते हैं इसीलिए इस महाकाव्य की गहन गम्भीरता को समझने शुभ कर्मों को अंधे करते हैं, के लिए उन शब्दों और उनकी परिभाषाओं से भी परिचित होना खण्ड: तीन पृष्ठ २२९ । आवश्यक है। मूकमाटी में अनेक स्थलों पर गहरी व्यंग्योक्तियाँ भी पठनीय इस तरह यह आत्मोदय का अनुपम, साथ ही योग से अयोग की दिशा में प्रस्थान का उत्तम महाकाव्य है, जिसमें जितनी अरे सुनो! डुबकी लगायेंगे उतने ही तलस्पर्शी ज्ञान से आलोकित होते रहेंगे। कोष के श्रमण बहुत बार मिले हैं युगों-युगों तक चिर नवीन यह अमर महाकाव्य मनीषियों के होश के श्रमण होते विरले ही, अध्ययन, चिन्तन, मनन और गवेषणा का केन्द्र बिन्दु बनकर और, उस समता से क्या प्रयोजन साहित्य जगत् को गौरवान्वित करे- इसी मंगल कामना के साथ जिसमें इतनी भी क्षमता नहीं है मूकमाटी के यशस्वी गायक पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी जो समय पर, महाराज को हमारा कोटिशः नमोस्तु । भयभीत को अभय दे सके। जैनदर्शन विभागाध्यक्ष सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी - २२१००२ ध्यातव्य प्रसंग अंजन चोर को णमोकार मंत्र पर दृढ़ श्रद्धान से विद्या सिद्ध हो गयी थी, जबकि उसका मंत्रोच्चारण अशुद्ध था। शब्द से भावना का अधिक महत्त्व है। __पं. बनारसीदास ने अपने ही घर में घुसे चोर को माल उठवाने में सहायता की मानो कह रहे हों जिसे जाना है उसे रखू क्यों? जब चोर घर पहुँचा तो माँ को सब बातें बतायी। माँ ने कहा कि अरे, वह तो बनारसीदास होंगे। तुमने इतने धर्मात्मा के घर चोरी क्यों की? जाओ, माल वापिस कर आओ। वास्तव में ख्याति हो तो बनारसीदास जैसी। चामुण्डराय ने भगवान बाहुबली की ५७ फुट ऊँची मूर्ति बनवायी। श्रवण बेलगोला स्थित इस कलात्मक मूर्ति को देखकर किसी कवि ने कहा कि जिसकी मूरत इतनी सुन्दर, वह कितना सुन्दर होगा? एल-६५, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) 12 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक की क्रियाओं में दिशा और समय पं. सनत कुमार विनोद कुमार जैन जिन बिम्ब प्रतिष्ठा अत्यन्त महत्वपूर्ण क्रिया है। इसे जितनी । होमार्थ कुण्डानि पुरोत्तरस्याः क्रियान्नवोत्कृष्ट तया च पंच। शुद्धिपूर्वक, संयम, साधना/आराधना एवं आगमोक्त अनुशासन के मध्याद्विधेर्वात्रयमेव तत्र वृत्तं त्रिकोणं चतुरस्त्र मेव ॥३५॥ साथ किया जावेगा वह उतनी ही प्रभावक ऋद्धि सिद्धि कारक अर्थात्- वेदी की उत्तर दिशा में नव पाँच या तीन हवन एवं अतिशयता को प्रकट करने वाली होगी। पूर्वाचार्यों ने जिन | कुण्ड के निर्माण में तीन कटनी पाँच, चार और तीन अंगुल चौड़ी बिम्ब प्रतिष्ठा को सुव्यवस्थित बनाने के लिये अनेक ग्रन्थों की | होना चाहिये। और एक अरनि लम्बे, चौड़े और गहरे होना श्रेष्ठ रचना कर हमारा मार्गदर्शन किया है। पंचकल्याणक की प्रत्येक | होते हैं। पाण्डुक शिला मुख्य वेदी से उत्तर में होना चाहिये। क्रिया का सविस्तार, सूक्ष्मता पूर्वक वर्णन कर उन क्रियाओं का | पाण्डुक शिला सुमेरु पर्वत के चौथे वन में स्थित है अतः तीन काल एवं दिशा का भी उल्लेख किया है, किन्तु आधुनिकता की | कटनी युक्त बनाने का मुख्य आधार सुमेरु पर्वत के चार वन हैं। आंधी में जगह एवं समय के अभाव में मान एवं धन के लोभ में | सुमेरु पर्वत भरत क्षेत्र स्थित अयोध्या के उत्तर में स्थित है अत: हम आचार्यों के निर्देशों का उल्लंघन करके मनमानी कर रहे हैं। पाण्डुकशिला मुख्य वेदी के उत्तर में होना चाहिये। जिसके कारण प्रतिमाओं में अतिशय प्रकट नहीं हो पा रहा है। आचार्यशक्र स्थिरस्य पृष्ठे स्त्रनासना दीनि त दंतिके च। बल्कि दुर्घटनायें, अरुचि एवं कलह आदि अनेक विकृतियाँ प्रकट तथोत्तरस्यां जननोत्सवादिदीक्षा वनं ज्ञान विभूति सद्म। दिखाई देती हैं। अतः आगम के गवाक्ष से देखकर दिशा और अर्थात्- वेदी केपृष्ठ भाग में आचार्य और इन्द्र की स्थिति समय का निर्धारण करना चाहिए। करनी चाहिये। और समीप ही स्नान सामायिक आदि की सभा पंचकल्याणक की वेदी चौकोर बनाना चाहिये यदि इन्द्र और ताके उत्तर में जन्मोत्सव सूचक सुमेरु की रचना और वेदी के इन्द्राणियों की संख्या अधिक हो तो वेदी चौड़ाई से डेढ़ गुनी/दुगनी | अग्रभाग में दीक्षावन और समवशरण करना चाहिये। दीक्षा वन लम्बाई में बनाई जा सकती है। इस वेदी की पवित्रता का विशेष वेदी से पूर्व में होना चाहिये। ध्यान रखना चाहिये। इसे गोबर से लीपना नहीं चाहिये। सांस्कृतिक तत्रैव पूर्वत्र दिशासुदीक्षा वनं विशालांगण कल्प शाखं। कार्यक्रमों से वेदी की अशुद्धि संभव है अतः सांस्कृतिक कार्यक्रमों दीक्षा तरुस्तत्र शिला प्रदेश संस्कार वाटीकृत गूढ मध्या॥३६७॥ का मंच अलग होना चाहिये। वेदी, मंच पर टेन्ट हाऊस के कालीन, अर्थात् - वेदी की पूर्व दिशा में विशाल अनेक शाखा जाजम, पट्टी आदि नहीं बिछाना चाहिए। इससे अशुद्धि हो जाती | युक्त दीक्षावन स्थापन करना। वहाँ दीक्षा वृक्ष मुख्य स्थापना, है। मंडप का मुख्य द्वार पूर्व या उत्तर में होना श्रेष्ठ है। वेदी दो | तिसका अधोभाग शिला स्फटिकमयी संस्कार करने के पात्र अरु प्रकार की कही गई है। वाटिका कहिये आच्छादन की कनात करि मध्यभाग है गूढ जामे अथोत्तरस्मैकृतिकर्मणे कृतींवेदी द्वितीयां विनिवर्त्यपावनी। | ऐसी स्थापना करना। दीक्षा की क्रियायें पर्दा लगाकर करने का यागीय मंत्राणि तथोत्तरंपृथक कमीरंभता यजन क्रियोचितं॥३४२॥ | निर्देश दिया गया है। ___ अर्थात्- यागमण्डल के वास्ते मुख्य वेदी और दूजी उत्तर भगवान का समवशरण मुख्य वेदी के पूर्व में होना चाहिये। कर्म जाप, ध्यान, मंत्र, यज्ञ क्रिया के योग्य उत्तर वेदी कही गई। | ताण्डव नृत्य वादित्र आदि का स्थान बड़ा विशाल और वेदी के अत: दोनों वेदी नियमानुसार बनाना चाहिये। मुख्य वेदी के सामने सामने करना चाहिये। औषधिशाला दानशाला के पास होना श्रेष्ठ है। ध्वज स्थापन करना चाहिये। ध्वज दण्ड की ऊँचाई मण्डप की अहारग्रह मुख्य वेदी के दक्षिण में होना चाहिये। इसमें ऊँचाई से दुगनी या डेढ़ गुनी होना चाहिये। | विधि नायक के आहार की विधि कराई जावें। आहार के समय गर्भगृह मुख्य वेदी से दक्षिण दिशा में होना चाहिए। । भगवान का मुख पूर्व या उत्तर में होना चाहिये। अनुशासन और ___ दक्षिण दिशि जिन वेद्या राज गृहं प्रसृत चत्वरा कीर्णम्।। शुद्धि का पूरा ध्यान रखना चाहिये। आहार चर्या के समय मात्र दंश पंचक त्रिकधरिणा भाग मने का दवा सयुतं॥३६०॥ | आगम में वर्णित सामग्री ही रहना चाहिए। अर्थात् - राजगृह, वेदी से दक्षिण दिशा में दशखण्ड, जैसे - श्री आदिनाथ के पंचकल्याणक में इक्षुरस और पाँच खण्ड, तीन खण्ड एवं अनेक अटारी संयुक्त होना चाहिये। | शेष तीर्थंकरों की आहार चर्या में दूध ही होना चाहिए अन्य राजगृह, सुन्दर सुसज्जित संगीत वादित्र एवं मंगलगान से सहित | सामान तो अतिरेक है- जिसका आहार लिया है वही वस्तु श्रेष्ठ होना चाहिये। हवन कुण्ड मुख्य वेदी के उत्तर में होना चाहिये। । होती है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा की क्रियाओं में दिशा और समय दिसम्बर 2003 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अत्यन्त महत्व है। इसे आवश्यक रुप से ध्यान में रखना । तरह की शुद्धि का ध्यान रखना चाहिये। चाहिये क्यों कि समय से किया गया कार्य सफल एवं पूर्ण फल प्राण प्रतिष्ठाप्य धिवासना च संस्कार नेत्रोच्छृत्ति सूरिमंत्रा। देने वाला होता है। मूलंजिनत्वाऽधिगमेक्रियाऽन्या भक्तिप्रधानासुकृतोद्भवाय।।३४९॥ गर्भ कल्याणक में तीर्थंकर की माता के गर्भ के समय का अर्थात्- प्राण प्रतिष्ठा मंत्र विधि अरु अधिवासना मंत्र विशेषध्यान रखें। विधि अरु नेत्रोन्मील संस्कार कहिये अंक स्थापन अरु सूरिमंत्र ये इत्याधुयाक्लप्त कुमारीकाणां सार्थेन पूज्या जननी जिनेशः। विधि सर्वज्ञत्व में मुख्य हैं अन्य विधि पुण्यानुबंध देने वाली क्रिया मासान्न वाथोपनिनाययद्यायामानदिनानि व्यातिसंक्रमेण ॥७५५॥ भक्ति विशेष निमित्त है। अर्थात् आवश्यक विधि सर्व बिम्बन में अर्थात्- कल्पना की हुई दिक्कुमारियों करि सेवित श्री | करनी । अन्य क्रिया मूल बिम्ब में करनी अतः ज्ञानकल्याणक की जिनेश की माता उत्कृष्ट नव महीना अथवा नव दिन तथा नव प्रहर क्रियायें भी दोपहर में निराकुलता से करनी चाहिये। कल्याणकों पर्यन्त यथा योग्य गर्भवास को मंगल करो। अतः भगवान के गर्भ | को समय से करने से प्रतिमाओं में अतिशयता प्रकट होती है। में ठहरने का समय कम से कम नव प्रहर तो होना ही चाहिये । हम | समय टालकर की गई क्रिया समुचित फल नहीं देती है। समय के अभाव में क्रियाओं के समय का उल्लंघन करते हैं जो गर्भ कल्याणक की क्रिया को छोड़कर सभी क्रियायें दिन ठीक प्रतीत नहीं होता है। नवप्रहर पूर्ण करने के लिये गर्भ कल्याणक | में करना चाहिये प्रतिष्ठा ग्रन्थों में सभी क्रियायें प्रायः आदिनाथ दो दिन किया जाता है। जिसमें गर्भावतरण की क्रिया अर्धरात्रि में भगवान के कल्याणकों को मुख्य करके वर्णित की गई हैं। आदिनाथ करने का निर्देश दिया गया है। इसमें एक प्रहर शेषरात्रि का दिन | के कल्याणकों के समय अनुसार ही पाँचों कल्याणक करने का के चार प्रहर और दूसरी रात्रि के चार प्रहर इस प्रकार नव प्रहर | वर्णन किया गया है। कल्याणकों की क्रिया रात्रि में नहीं करना पूर्ण होंगे, अगले दिन प्रातः काल भगवान का जन्म किया जाना चाहिये। क्योंकि जब गृहस्थों को रात्रि में कूटना, पीसना, बुहारी श्रेष्ठ है। लगाना आदि कार्यों का निषेध किया गया है तब हमें रात्रि में तां मूल प्रतियातनां सुरपति गंधाक्त वर्ण्यप्रभां। धार्मिक क्रिया करने की आज्ञा कहाँ मिल सकती है। श्री कार्तिकेय मंजूषा निहितां विछाय विनयान्मातुः प्रसूति स्थले। स्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा हैअनियापि निधापयेत शुचितरै वस्त्रै रहस्ये रजन्यर्ध। रजन्यां रात्रो सरात्रि भोजन विरक्तः पुमान आरम्भं। चाल्प तनौ तु तत्र वसनाच्छनां क्रियान्मंत्र वित॥७२९॥ गृह व्यापार क्रय विक्रय वाणिज्या दिकं खंडनी पीसनी चुल्ली : अर्थात्- इन्द्र राजा है सो उस मूल बिम्ब को गंध युक्त देह उदकुम्भ प्रमार्जिनी पञ्च सूनादिकं त्यजति स: रात्रि भोजन लिंपन करि मंजूषा में स्थापि विनय सेती माता का प्रसूति स्थान में विरतः रात्रौ सावध पाप व्यापारादिकं त्यजति ॥३८३॥ ल्याय कर सुन्दर धौत वस्त्र करि एकान्त में अरु अर्धरात्रि में आच्छादित अर्थात- रात्रि भोजन त्याग करने वाला कूटना, पीसना करै। अतः गर्भ स्थापन मंजूषा (काँच का बक्सा) में करें । तीर्थंकर | आदि पाप कार्यों से बच जाता है, रात्रि में जीवों की अधिकता होने की माता के गर्भ शोधन को इन्द्र देवियों को भेजता है वहाँ गर्भ से सद्गृहस्थ को रात्रि में कोई कार्य नहीं करना चाहिये। विज्ञान ने स्फटिक के समान होता है ऐसा कथन किया गया है। भी स्वीकार किया है कि सूर्यास्त हो जाने पर परा बैगनी किरणों जन्म कल्याणक ब्रह्म मुहूर्त अर्थात् प्रातः काल शुभ लग्न के अभाव में अत्यन्त सूक्ष्म जीव पूरे वायुमण्डल में फैल जाते हैं एवं शुभ नवांश में करना चाहिये। हमें अपनी सुविधा की अपेक्षा न इसलिये हमारे मुनिराज भी रात्रि में मौन रहते हैं। बिहार आदि करते हुये समय का विशेष ध्यान रखना चाहिये। दीक्षा कल्याणक क्रियायें भी नहीं करते हैं। गृहस्थ श्रावक से जितना बन सकता है की क्रियाओं का समय दोपहर के बाद अपरान्ह काल कहा गया है। उतना रात्रि के कार्यों से बचना चाहिये। पहली प्रतिमा धारण करने वादित्र गंधर्व जयेति शब्दैः स्तब्धी कृताशा निचये मुहूर्ते॥ पर उसे रात्रि भोजन त्याग हो जाता है किन्तु छटवी प्रतिमा धारण शुभेदिनार्घोत्तरभाजिजिष्णौ ग्रंथ्यकालः शुभदोविधेयः॥८३३॥ करने पर उसे रात्रि भोजन त्याग करने का निर्देश दिया गया है। अर्थात्- पालकी पर आरोहण के समय अनेक वादित्रनि उसका तात्पर्य है कि नव कोटि से रात्रि भोजन त्याग करें। रत्नकरण्ड का शब्द तथा गन्धर्व आदि का जय जय शब्द करि व्याप्त भया है श्रावकाचार में कहा गया है। दिशा का समूह जामै ऐसा दिनार्ध का अपर भाग शुभमुहूर्त में श्री अन्नं पानं खाद्यं लेां नाश्नाति यो विभावर्याम्॥ जिन जयनशील का निर्ग्रन्थ काल शुभ . देने वारा करना दीक्षा सचरात्रिभुक्तिविरत: सत्वेष्वनुकम्प मान मनाः ॥१४२॥ का समय अपरान्ह काल है। राज दरवार के मनोरंजक कार्यक्रमों अर्थात्- जो जीवों पर दयालु चित्त होता हुआ रात्रि मैं । में समय का ध्यान न रखकर शेष प्रतिमाओं की क्रियाओं के समय | अन्न पेय खाद्य और लेह्य चाहने योग्य पदार्थ नहीं खाता वह रात्रि का भी ध्यान होना अनिवार्य है। ज्ञानकल्याणक की क्रियायें दोपहर | भुक्ति त्याग प्रतिमाधारी है। में करना चाहिये। ये क्रियायें पंचकल्याणक में प्रमुख हैं इसमें सब पहली प्रतिमा के समय रात्रि का पानी भी त्यागा था किन्तु 14 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब कृत, कारित और अनुमोदना एवं मन, वचन, काय नवकोटि से रात्रि भोजन त्याग होता है। जब छटवीं प्रतिमा वाला रात्रि में कृत, कारित आदि से रात्रि में गृहकार्य नहीं कर सकता तब वह धार्मिक कार्य जिनमें अनेक प्रकार से समरंभ, समारंभ आदि होते हैं, कैसे कर सकता है। 1 पंचकल्याणक के समय हम दिन में तोअनेक अन्य कार्यों में समय व्यतीत कर देते हैं और आवश्यक क्रियाओं को रात्रि में पूर्ण करते हैं जो आगमानुकूल प्रतीत नहीं होता है। प्रतिष्ठा पाठों में सभी क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है किन्तु उनका समय और दिशा का स्पष्ट उल्लेख श्री जयसेनाचार्य प्रणीत प्रतिष्ठा पाठ में किया गया है। अतः यहाँ सभी प्रमाण श्री जयसेनाचार्य परम पूज्यनीय युग के आदि तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ भगवान को सादर सविनय नमस्कार करके भरत- बाहुबली के युद्ध के विषय में कुछ नवीन चिन्तन है। विद्वत वर्ग निष्पक्ष विचार करें। अच्छी लगे तो ग्रहण करें अन्यथा छोड़ देवें। मेरा कोई दृढाग्रह नहीं है। जिनवाणी एवं आचार्यों के प्रति कोई अविनय भाव भी नहीं है। भरत जी, बाहुबली जी महान तपस्वी योगीन्द्र महाराजों के चरणों में बारम्बार नमन है। भरत बाहुबली का युद्ध भरत - बाहुबली के मध्य युद्ध परस्पर शक्ति परीक्षण के द्वारा हार-जीत का निर्णय करना स्वीकृत हुआ था। तीनों युद्धों में भरत जी हार गए • थे। जीत बाहुबली जी की हो गई थी। अब यदि बाहुबली जी दीक्षा नहीं लेते तो क्या होता ? बाहुबली जी तो चक्रवर्ती बन नहीं सकते। भरत जी को ही चक्रवर्ती बनने का नियोग था, अब क्या हो ? साठ हजार वर्षों में जीता हुआ छह खण्ड के राजा बाहुबली हो जाते । बाहुबलीजी के राज्य सिंहासन पर रहने तक भरत जी का चक्र अयोद्धा की आयुद्यशाला में प्रवेश नहीं कर पाता। भरत जी चक्रवर्ती नहीं बन पाते । द्वन्द युद्धों की संख्या तीन ही क्यों रखी गई ? इसलिए कि किसी भी प्रतियोगिता में विषम संख्या से ही हार जीत का निर्णय होता है। भरत जी तीक्ष्ण बुद्धिमान, व्यवहार कुशल, नीतिवान, पराक्रमी, सातिशय पुण्यवान राजाधिराज थे। द्वन्द युद्ध में निश्चत जीत होगी यह उन्होंने सोच लिया था। तभी तो अवधिज्ञानी होते हुए भी अवधिज्ञान लगाया ही नहीं। लगाया होता तो हार का आभाष पूर्व में ही हो जाता फिर द्वन्द युद्ध के द्वारा निर्णय की स्वीकृति ही नहीं देते। उपरोक्त समस्याओं के समाधान के लिए केवली भगवान् श्री ऋषभदेव जी से पूछ लेते । तीनों द्वन्द युद्धों में अचन्त्यिपूर्व पराजय हो जाने पर किं कर्त्तव्य विमूढ़ होकर प्रत्युत्तपन्नमति भरतजी ने बाहुबली जी पर चक्र चला ही दिया। भरत जी क्षायिक सम्यग्दृष्टि, तद्भव मोक्षगामी, ६ खण्ड के राजाओं को जीतने वाले बाहुबली जी पर चक्र मारने के लिये नहीं प्रतिष्ठा पाठ से दिये हैं । प्रतिष्ठाचार्य को समय का ध्यान कर अपने आप को अनुशासित / संयमित एवं जागरुक बनना पड़ेगा। प्रतिष्ठा कार्यक्रमों को आधुनिक एवं नयापन देने की लालसा ही क्रियाओं की निर्दोषता, समीचीनता एवं शुद्धता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। यद्वा तद्द्वा क्रिया कराने से समाज और धर्म दोनों का हित नहीं होता है। अतः प्रतिमाओं में अतिशयता के लिये पंचकल्याणक की क्रियाओं के समय, दिशा एवं विशुद्धि का विशेष ध्यान रखना होगा तभी निर्दोष प्रतिष्ठा हो सकेगी। रजवाँस (सागर) म.प्र. ब्र. शान्ति कुमार जैन चलाया अपितु वैराग्य उत्पन्न कराने के लिए चलाया था। उन्हें ज्ञात था कि सगे भाई पर चक्र मार नहीं कर सकता। परन्तु इसे कुकृत्य समझ कर, साम्राज्य प्राप्ति के लिए निर्णित तीन धर्मयुद्ध में हारकर, अधर्म रीत से अस्त्र प्रयोग, निहत्थे परन्तु जीते हुए प्रति द्वन्दी पर किये जाने पर, बाहुबली के मन में राज सम्पदा से वैराग्य आ गया। बाहुबली जी महान आत्म गौरवशाली राजा थे। जीत कर भी बड़े भाई को चक्रवर्ती बनाने के लिए राज्य उनको शायद दे भी देते परन्तु चक्र के चल जाने पर उन्हें वैराग्य आ गया। उन्होंने दीक्षा लेली। यही तो एक मात्र समाधान था उस विकट अभूतपूर्व परिस्थिति का। । चक्रवर्ती कभी किसी से हारता ही नहीं। हार हो जाने पर क्षण भर में भरत जी ने यह उपाय खोज निकाला। द्वन्द युद्धों में हारकर भी भरत जी कूटनीति के बुद्धियुद्ध में सफल हो गये। अन्य कोई भी समाधान नहीं था । इस समाधान में दोनों महापुरुषों के गौरव एवं महानता को कोई आघात नहीं लगता। चक्र के द्वारा भाई को मारने की बात पूर्णतः अस्वाभाविक है, गले नहीं उतरती। वैराग्य उपजावन हेतु चक्र का प्रयोग उस परिस्थिति में स्वाभाविक लगता है। आदि पुराण, हरिवंश पुराण, भरतेश वैभव आदि ग्रन्थों में उल्लेखित यह घटना एक सी नहीं है। तो फिर एक नया चिन्तन और आपके सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। दोनों महारथी क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही थे परन्तु कषायों के उद्रेक में कुछ भी हो जाना असम्भव नहीं है। फिर भी भरत जी ने जो भी कुछ किया सोचसमझकर ही किया। चक्र के द्वारा भाई को मारा तो जा ही नहीं सकता, यह उन्हें पहले से ही ज्ञात था । परन्तु युद्ध में हराया जा सकता है। तभी तो द्वन्द युद्ध स्वीकार किया ताकि व्यर्थ की हिंसा रूप जन संहार नहीं होवे। ऐसे अहिंसा के पुजारी भरत जी ने बाहुबली जी पर मारने के लिए चक्र नहीं चलाया था, बल्कि वैराग्य जगाने के लिए प्रेरणा के रूप में चलाया था। उन्हें यह भी ज्ञात होना स्वाभाविक था कि बाहुबली जी भगवान आदिनाथ जी से पहले मोक्ष जायेंगे। तीनों महापुरुषों को मन, वचन, काय से कोटिशः नमस्कार है। दिसम्बर 2003 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिपूर्वक सत्कर्म के प्रेरक णायकुमार अपभ्रंश कवियों में महाकवि पुष्पदन्त एक शीर्षस्थ साहित्यकार हैं। पहले शैव धर्मावलम्बी ये पुष्पदन्त अपने जीवन के अन्तिम चरण में जैनधर्म धारण कर जैन सन्यास विधि से ही मरण को प्राप्त हुए । हिन्दी साहित्य के 'सूर-सूर, तुलसी- शशी' इन दो महान् विभूतियों के समान अपभ्रंश साहित्य में भी 'सयम्भूभाणु-पुफ्फयन्त णिसिकन्त' कहकर इनका यशोगान किया जाता है । महाकवि पुष्पदन्त का समय १० वीं शताब्दी माना जाता है। इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं- 1. महापुराण सबसे प्रथम और विशाल इस रचना में जैन धार्मिक परम्परा में प्रख्यात त्रेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र वर्णित है। 2. जसहर चरिउ ( यशोधर चरित्र) 3. णायकुमार चरिउ । इन्होंने अपने काव्य सृजन में मानवीय मूल्यों की गरिमा को तो सुरक्षित रखा ही है साथ में जीवन और जगत की सम्पूर्ण समस्याओं को गहराई के साथ स्वयं देखा परखा और समाज को भी उसके वास्तविक रूप के दर्शन कराये तथा उपयोगी युक्तियाँ सुझाने के माध्यम से सही मार्ग दिखलाने के दायित्व का भी निर्वाह किया। अपभ्रंश कवियों ने परमपद प्राप्त करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों के जीवनचरित पर लेखनी चलाकर चरिउकाव्य के रूप में उनके आदर्श जीवन की प्रयोगशाला उपस्थित की है। उस प्रयोगशाला में उनके आदर्श जीवन चित्रण के साथ-साथ आदर्श जीवन को गति देने वाले महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को भी प्रायोगिक रूप देकर फलित होना सिद्ध किया है। 4 इस ही श्रृंखला में कवि पुष्पदन्त कृत यह णायकुमारचरित' भी गायकुमार के श्रेष्ठ जीवन को दर्शाने वाली एक ऐसी ही प्रयोगशाला है, जिसमें उन्होंने नागकुमार को कामचेतना के नियामक के साथ विधिपूर्वक सत्कर्म के अधिष्ठाता / प्रेरक के रूप में भी चित्रित किया है। चूंकि कामचेतना को काव्यप्रक्रिया में अनुभूति के स्तर पर सम्प्रेषणीय बनाकर उसकी व्यर्थता या नियमितता में से विकसित होती हुई वीतरागता को अनुभूति का विषय बनाना बहुत ही कठिन काम है किन्तु कवि पुष्पदन्त ने णायकुमारचरित में कामदेव नागकुमार के माध्यम से इस नियमित कामचेतना तथा वीतरागता की सार्थकता को सहज में ही सिद्ध कर दिखाया है। इस तरह इस णायकुमारचरित काव्यरूप प्रयोगशाला में कामदेव नागकुमार के पूर्वभव से लेकर वैराग्य धारण कर मोक्ष 16 दिसम्बर 2003 जिनभाषित श्रीमती स्नेहलता जैन प्राप्ति होने तक का जीवन्त चित्रण तो है ही साथ में मोक्ष प्राप्ति में सहायक मूलभूत सिद्धान्त 'पूर्वजन्म के संस्कारों की परम्परा' तथा 'सत्कर्मों के आधार से मिलनेवाले पुण्योदय' को भी इसमें बहुत ही सहज रूप में फलित होता दिखाया है जो इस प्रकार है 1. नागकुमार के पूर्वभव के सुकृत । 2. सत्कर्म से पुण्योदय की प्राप्ति । 3. नागकुमार भव के सत्कर्म । 4. सत्कर्म से पुण्योदय की प्राप्ति । 5. वैराग्य प्राप्ति एवं मोक्ष । 1. नागकुमार के पूर्वभव के सत्कर्म नागकुमार जब अपने पूर्वभव में नागदत्त थे तब उन्होंने फाल्गुन मास में शुक्ल पंचमी के उपवास का व्रत ग्रहण किया। अर्द्धरात्रि बीतने पर नागदत्त के शरीर में तीव्र दाहकारी तृष्णा उत्पन्न हुई। तब उनके पिता ने जालमय खिड़की में जहाँ से सूर्य की किरणें आया करती थीं वहाँ अपनी प्रभा से स्फुरायमान सूर्यकान्तमणि को रखकर नागदत्त से कहा- देखो, सूर्य उदित हो रहा है अब तुम शैया छोड़ स्नान पूजादि देव कार्य कर सुपेय का पान करो। इसपर नागदत्त यह जानकर कि अभी तक रात्रि के तीन ही याम व्यतीत हुए हैं निर्णय लिया कि 'जब सूर्य का प्रकाश प्रकट हो जायेगा तब ही देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति कर, मुनियों को आहार करवाकर स्वयं भोजन ग्रहण करूंगा।' 2. सत्कर्म से पुण्योदय की प्राप्ति अ तब विधिपूर्वक उपवास का व्रत ग्रहण करने से नागदत्त मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुए। वहाँ देव सुलभ भोगों को भोगकर ये ही नागदत्त भरतक्षेत्र में जयन्धर राजा के पुत्र नागकुमार हुए। जब उस बालक नागकुमार को लेकर माता-पिता जिन मंदिर में गये तो वज्रकपाट के सघन बन्द होने से जिनदर्शन नहीं होने के कारण अत्यन्त संक्लेश को प्राप्त हुए। जैसे ही नागकुमार बालक के पैर से कपाट को धक्का दिया तो वह कपाट खुल गया। ब. बावडी में गिरते हुए नागकुमार को नाग ने अपने सिर पर झेल लिया। अपने पुत्र के रूप में स्वीकार कर उन्हें आभूषण व देवांगवस्त्र के साथ अक्षर-ज्ञान, गणित, संगीतकला, व्याकरण और राजनीति की शिक्षा भी दी, जिससे वे सरस्वती में निष्णात पंडित बन गये । 3. नागकुमार भव के सुकृत 1 नवयौवन को प्राप्त नागकुमार नगर के दर्शनार्थ निकले तो समाज से उपेक्षित राजविलासिनी वैश्या देवदत्ता ने उनसे हाथ जोड़कर अपने घर के Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंगन में पदार्पण करने की प्रार्थना की। तब नागकुमार ने उसके । पश्चात् इन सभी को अपने अपने स्थानों पर छोड़कर मात्र अपनी आतिथ्य को सहर्ष स्वीकार कर उसको उसी प्रकार सम्मान का | एक पत्नी लक्ष्मीमती के साथ ही यथेष्ठ सुख का अनुभव किया। दर्जा दिया जिस प्रकार भगवान महावीर ने सतीचन्दना को उससे 4. सत्कर्म से पुण्योदय की प्राप्ति - 1. भीमासुर राक्षस् आहार ग्रहण कर तथा अपने संघ में दीक्षित कर दिया था। इस से पुलिन्द की पत्नी शबरी को लेने के लिये नागकुमार जैसे ही तरह उसी परम्परा को णायकुमार ने भी आगे बढ़ाया। पाताल में प्रविष्ठ हुए, असुर उनके दर्शनों से उत्कंठित हो उठा तथा 2. अपने पिता जयन्धर द्वारा अपनी माँ का सारा धन अर्धान्जलि कर नागकुमार को खड्ग रत्न तथा रत्नकरण्ड नामक अपहरण कर लेने पर नागकुमार ने द्यूत क्रीडा में अपने पिता को | शैया समर्पित की। हराकर वह सारा धन जीत लिया। अपनी माँ को जो भूषणविहीन | 2. विद्याधर राजा के पुत्र जितशत्रु को 'ओम्' का ध्यान तथा जीर्णवस्त्रों में थी, सारा धन व स्वर्ण पुनः प्राप्त करवाकर | करने पर जिन विद्याओं की सिद्धि हुई थी वे सभी विद्याएँ वहाँ के उनके चेहरे की कांति पुनः लौटा दी। निवासी वेताल ने नागकुमार को कालवेताल गुफा में प्रवेश करने 3. राजा विनयपाल की भोली राजकुमारी को मथुरापुरी के | पर समर्पित कर दी। राजा ने अपहरण कर बन्दीगृह में डालदिया था। नागकुमार ने 3. जिन विषैले आमों के विष से भग्न होकर कितने ही व्यालभृत्य की सहायता से उस राजकुमारी को मुक्त करवाकर मनुष्य यमपुर के मार्गपर लग गये थे किन्तु नागकुमार उन विषैले गौरव सहित अपने पिता के घर भेज दिया। भीमासुर राक्षस द्वारा आमों को चूसने से न तो मूर्च्छित हुए और ना ही मरे । इसके हरण की गयी शबरी के वियोग में रोते हुए पुलिन्द को नागकुमार प्रभाव से पाँचसौ शूरवीरों ने नागकुमार का भृत्यत्व भी स्वीकार ने शबरी प्राप्त कर प्रसन्न किया। किया। 4. विद्याधर सुकण्ठ ने सात कन्याओं का हरण कर लिया | 5. वैराग्य प्राप्ति व मोक्ष का कथन - राज्यभिषेक के था। तब नागकुमार ने यह कहते हुए 'रे पापी तुझे तेरा यह पाप खा बाद आठ सौ वर्ष पृथ्वी का उपभोग करने के बाद यह विचार कर जायेगा।' परायी धरती, परायी स्त्री और पराये धन की तृष्णा के कि धन और यौवन किसके स्थिर रहते हैं, नागकुमार ने दीक्षा ले कारण रे! दुराचारी, तू खलों और चोरों जैसा दण्ड पाकर मरेगा, | ली । पाँचों इन्द्रियों को जीतकर पाँचों आस्रवों का निरोध कर वे सुकण्ठ के गले के दो टुकड़े कर उन कन्याओं को मुक्त करवाया। अनंग (अशरीरी) हो मोक्ष गये। 5. विद्यावाद्य में प्रवीण राजपुत्री त्रिभुवनरति ने यह निश्चय । इस तरह नागकुमार चरिउ के नायक कामदेव नागकुमार किया था कि जो कोई उसको मान आलापिनी विद्या द्वारा जीत | के जीवन के माध्यम से महाकवि पुष्पदन्त ने मानव मात्र के लेगा उसी की वह प्रियतमा गृहिणी होगी। तिलकसुन्दरी ने भी | विकास के लिये आधारभूत इस सत्य को बहुत ही सहज रूप में यह प्रतिज्ञा की थी कि जो श्रेष्ठ पुरुष उसके नृत्य करते समय उद्घाटित कर दिखाया है जिस सत्य को अपनाकर कोई भी उसके चंचल पैरों के पतन की शैली को समझकर मृदंग बजा व्यक्ति अपने सुकृत का पुण्य भोग सकता है। वह सत्य है सकेगा वही उसके अभिमान को भंगकर उसका पति होगा। 'विधिपूर्वक सत्कर्म'। कवि ने स्पष्ट लिखा है किं इकु पयावंधुरु मानमर्दक इन नागकुमार ने इन दोनों के अभिमान को भंग करने के । सुकिउ भुंजइ अण्णु वि विहणा विहिउ । अर्थात् केवल प्रजाबन्धुर उद्देश्य से ही इनसे विवाह किया। नागकुमार ही अपने सुकृत का पुण्य नहीं भोगते किन्तु अन्य कोई 6. नागकुमार ने पिता के यह कहने पर कि 'तुम करुणावान भी जो विधिपूर्वक सत्कर्म करते हैं वे इसी प्रकार पुण्य का फल हो इन दो कन्याओं को मरने से बचा लो' पंचसुगन्धिनी वैश्या की | भोगते हैं। दो पुत्रियों किन्नरी व मनोहरी से विवाह करना स्वीकार किया। आज का मानव भौतिक दृष्टि से तो समृद्ध होता जा रहा है राजा प्रद्योतन ने अरिवर्म राजा के भाई की पुत्री गुणवती | किन्तु उदात्त चारित्रिक दृष्टि से उत्तरोत्तर पतनोन्मुख है। ऐसी विषम को प्राप्त करने के लिये युद्ध किया था जिससे अरिवर्म राजा बहुत | परिस्थिति में नागकुमार चरित सभी के लिये अनुकरणीय एक चिन्तित थे। अतः अरिवर्म राजा को चिन्ता से मुक्त करने के लिये | ऐसा जीवन दर्शन है जो मानव जीवन के सभी संकुचित द्वारों को ही राजा प्रद्योतन को युद्ध में पराजित कर नागकुमार ने गुणवती से | उन्मीलित करने के साथ-साथ सबको चारुचरित युक्त प्रशस्त पथ विवाह किया। की ओर भी अग्रसर करता है। वस्तुत: अपरिहार्य कारणों के उपस्थित होने पर सद् उद्देश्य सन्दर्भ: को लेकर विवाह करना दोषपूर्ण नहीं है किन्तु कामासक्त होकर पुष्पदन्त : णायकुमार चरिउ, सम्पादक- अनुवादक : डॉ. हीरालाल जैन पाप बुद्धि से विवाह करना दोषपूर्ण है। अपने उद्देश्य की पूर्ति के प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी दिसम्बर 2003 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर एवं चक्रवर्तियों की प्राचीन धरोहर-कम्पिल तीर्थ सुरेश चन्द जैन बारौलिया तीर्थ हमारी श्रद्धा एवं निष्ठा के। की। भगवान ने अपनी दिव्यध्वनि से विश्व हितार्थ प्राणियों का सर्वोपरि मापदण्ड हैं। तीर्थ ही वे माध्यम हैं जिनके द्वारा हम अतीत के अध्यात्म श्री कम्पिल जी तीर्थक्षेत्र का इतिहास एवं पुराणों के आलोक को जान सकते हैं। हर धर्म तीर्थ से | में कम्पिल एक विश्व विख्यात प्राचीन नगर रहा है। भगवान जुड़ा है तीर्थ से ही धर्म को जीवन ऋषभदेव, भगवान नेमीनाथ, भगवान पार्श्वनाथ और भगवान मिलता है। श्रमण परम्परा के प्रतीक महावीर सहित अनेकों तीर्थकरों के समवसरण श्री विहार यहाँ पर एवं ज्ञान वैराग्य के प्रेरक स्थल तीर्थक्षेत्र आ चुके हैं। इसके अलावा कम्पिल नगरी भारत का प्रमुख राजनैतिक हैं। भारतीय संस्कृति का प्राचीनता और | आर्थिक केन्द्र रही है। यहाँ दसवें चक्रवर्ती हरिषेण एवं बारहवें गरिमा की आधार जैन संस्कृति ही रही है। संस्कृति और सभ्यता | चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की राजधानी थी। अनेकों राजाओं ने यहाँ राज्य तथा साहित्य की खोज, शोध के मूल आधार हैं। जैन तीर्थ अपनी | किया है। महाभारत काल में महासती द्रोपदी के पिता राजा द्रुपद शांत, निराकुल एवं पवित्र जीवन के प्रबल प्रेरक जीवन्त स्थल हैं।। भी कम्पिल के राजा थे। द्रोपदी का स्वयंवर भी यहीं पर हुआ था इतिहास के पन्नों में अपनी धार्मिक पुरातात्विक एवं | जिसमें भगवान नेमीनाथ के पिता राजा समुद्रविजय वसुदेव श्री पर्यटनीय अस्मिता के लिए भारत में जो अनेकों तीर्थ प्रसिद्ध हैं | कृष्ण बलभद्र अर्धचक्री जरासंध भी पधारे थे। उसका साक्षी द्रोपदी उन्हीं में एक परम पवित्र आस्था है वह है उत्तर भारत के फरुख्खाबाद कुण्ड अभी कम्पिल जी में मौजूद है। उस समय अखण्ड पांचाल्य जनपद की कायमगंज तहसील से १० कि.मी. कम्पिल नगरी माँ राजधानी कम्पिल थी। इस काल में गंगा नदी तक कलापूर्ण सुरंग श्री गंगा के किनारे बसी है। तीर्थराज कम्पिल जैन धर्म के तेरहवें बनायी थी जिसमें ८० बड़े द्वार, ६४ छोटे द्वार थे। कहते हैं कि तीर्थंकर १००८ भगवान श्री विमलनाथ जी के गर्भ, जन्म, तप, उसमें एक ऐसी मशीन थी जिसमें कील ठोकते ही सभी द्वार स्वतः । ज्ञान (चार) कल्याणक स्थली है। श्री विमलनाथ भगवान श्री | बंद हो जाते थे। महान तपस्वी कपिल मुनी का आश्रम यहीं था ऋषभदेव के वंशज थे। महाराज कृतवर्मा की महारानी श्यामादेवी तथा तपस्या भी यहाँ की थी। कपिल्य नगरी को तीर्थराज कहना के गर्भ से ज्येष्ठ कृष्णा दशमी के दिन स्वर्ग से इन्द्र का जीव आयु न्याय संगत है। यहाँ की पवित्र भूमि को अनेकों सिद्ध पुरुषों को पूर्ण होने पर माता के गर्भ में आया। देवों ने गर्भ कल्याणक उत्सव जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मनाया। रत्नों की वर्षा होने लगी। युवा होने पर श्री विमलनाथ को यहाँ १४०० वर्ष से भी प्राचीन देवों द्वारा निर्मित एक वैवाहिक जीवन में दीक्षित किया गया। राज्याभिषेक कर स्वयं । वन्दनीय श्री विमलनाथ दिगम्बर जैन मंदिर जी, जिसमें गंगा नदी पिता ने मुनिदीक्षा धारण करली । राज्यकीय जीवन के ३० लाख के गर्भ से प्राप्त चतुर्थ कालीन पाषाण श्याम वर्ण चमत्कारिक वर्ष बीत जाने पर उन्होंने हिमखण्डों को सूर्य के ताप से पिघलते भगवान श्री विमलनाथ की प्रतिमा, भारतीय दिगम्बर जैन कला हुये देखा। संसार की असारता जान तत्क्षण भगवान को वैराग्य की प्राचीनता के दर्शन करा रही है। वर्तमान में सरकार ने इसे उत्पन्न हो गया। भगवान इसी कम्पिल नगरी के उद्यान में जाकर पर्यटक स्थल घोषित कर दिया है। आधुनिक सरकारी अतिथिगृह शुक्ल चतुर्थी के दिन समस्त देव, विद्याधर और मनुष्यों की उपस्थिति भी उपलब्ध हैं। यहाँ पर एक दिगम्बर जैन मंदिर व एक श्वेताम्बर में पंचमुष्टि केशलोंच कर निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर दिगम्बर वेष धारण | जैन मंदिर है। वर्तमान में यह तीर्थ क्षेत्र भगवान विमलनाथ के कर लिया। अनेकों क्षेत्रों का विहार कर 4 घातिया, कर्मों को नाश | विश्वशांति व अहिंसा के सन्देश को जन-जन में प्रसारित कर रहा कर अरिहंत पद प्राप्त किया। कम्पिल जी में एक अघनिया टीला है। वर्तमान में यहाँ पर चौबीसों जिनेन्द्रों की प्रतिमायें भी निर्मित है. मान्यता के अनुसार उसी स्थान पर केवलज्ञान प्राप्त किया था | करायी हैं तथा एक भव्य मानस्तम्भ का निर्माण भी हआ है। तथा देवों ने आकर ज्ञानकल्याण मनाया और समवसरण की रचना | यात्रियों की सुविधा हेतु आधुनिक धर्मशाला है। बी-677, कमला नगर, आगरा 18 दिसम्बर 2003 जिनभाषित - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनर्गल-प्रलापं वर्जयेत् मूलचन्द्र लुहाड़िया वस्तुत: वास्तविक वस्तुस्थिति श्री नीरज जी के कथन से अर्थः इस पंचम काल में जो मुनि दिगम्बर होकर भ्रमण सर्वथा विपरीत है। भट्टारक प्रथा दिगम्बर मुनियों के अपने मूल | करता है वह मूर्ख है उसे संघ से बाहर समझो। वह यति वंदना आचरण से भ्रष्ट होने से उत्पन्न हुई। इतिहास के अनुसार पूर्व में करने योग्य नहीं जो पांच प्रकार के वस्त्रों से रहित है। भट्टारक नग्न ही होते थे। मुस्लिम बादशाह के आग्रह पर बेगमों श्वेताम्बर साहित्य में भी इस काल में दिगम्बर मुद्रा वर्जित के सामने जाते समय नग्नता ढांक लेना स्वीकार कर लेने के बाद बताई है। श्वेताम्बर साधु तो श्वेत सीमित वस्त्र व अल्प पात्र रखते विहार के समय नग्नता ढांकने के लिए वस्त्र का प्रयोग करने लगे | हुए शेष परिग्रह का त्याग करते हैं। किंतु भट्टारक वाहन, भूमि, किंतु वसतिका में आने पर वे वस्त्र छोड़कर पुनः नग्न हो जाते भवन, मूल्यवान वस्त्र, स्वर्ण, रजत आदि सभी परिग्रह रखते हैं। थे। धीरे-धीरे प्रमाद और सुखियापन मुनियों पर हावी होने लगा आश्चर्यजनक बात यह है कि हम श्वेताम्बर साधुओं को कुगुरु और वे स्थायी रूप से वस्त्र का प्रयोग करने लगे। उसके बाद घोषित करते हुए उनकी मान्यता का तो निषेध करते हैं किंतु भट्टारकों ने श्रावकों को आगम ग्रंथों के स्वाध्याय से वंचित रखा आंरभ परिग्रह में डूबे भट्टारकों को मान्य करते हुए उनकी पूजा और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन से धन वसूलना भक्ति का समर्थन करते हैं। यदि यह कहा जाय कि भट्टारक प्रारंभ कर दिया। परिग्रह के साथ आने वाले सभी दोष भट्टारकों अपने आपको दिगम्बर जैन बतलाते हैं तो यह तो और अधिक में आ गए और वे मठाधीश बनकर ऐश आराम से रहने लगे। इस मायाचारी और धोखा है। अपने को दिगम्बर कहलाते हुए जो प्रकार भट्टारक आगमानुसार न मुनि हैं और न ही श्रावक हैं। दिगम्बर धर्म के सिद्धान्तों के विपरीत आचरण करते हैं वे दिगम्बर किंतु अपने आपको मुनि के समान पुजवाते हैं। दिगम्बर आगम | धर्म की जड़ें खोद रहे हैं और दिगम्बर जैन धर्म का अवर्णवाद कर में वर्णित चरणानुयोग की व्यवस्था से यह पद सर्वथा विपरीत है। | रहे हैं। विदेशों में जाने वाले भट्टारक दिगम्बर पंथ वालों के साधु किंतु आगम ज्ञान के अभाव के कारण श्रावक भट्टारकों के के रूप में ही अपने आपको प्रस्तुत करते हैं। निष्पक्ष दृष्टि से देखें आतंक से आतंकित होकर, धीरे-धीरे भट्टारकों के भक्त बनकर तो दिगम्बर जैन धर्म के लिए भट्टारक पंथ वास्तव में श्वेताम्बर रह गए। यह कहना कि दिगम्बर जैन संस्कृति का इतिहास भट्टारक पंथ से अधिक खतरनाक है। जैन धर्म परीक्षा प्रधान धर्म है। इस संस्था के द्वारा दी गई जिन शासन की सेवा और उसके संरक्षण प्रकार अज्ञान पूर्वक अंध पंरपरा को अपनाते हुए भट्टारकों के का इतिहास है सर्वथा असत्य है। भट्टारकों का जन्म ही दोषपूर्ण शिथिलाचार एवं आतंक के कारण ही उत्तर भारत में विद्वानों एवं चर्या के आधार पर हुआ है अत: उनका इतिहास आगम विरुद्ध | स्वाध्यायशील श्रावकों ने आगम ज्ञान के आधार पर भट्टारकों का सदोष आचरण का इतिहास है एवं आगे चलकर वह भट्टारकों | विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप उत्तर भारत से भट्टारक प्रथा के आंतक, अन्याय एवं राजश्री ठाठ से जीवन जीने का इतिहास लगभग समाप्त हो गई। किंतु दक्षिण भारत में श्रावकों में स्वाध्याय रहा है। जैन संसकृति की रक्षा का जो कार्य भट्टारकों ने किया की कमी के कारण अभी यह प्रथा जीवित है। तथापि इस प्रथा में वह मात्र अपनी स्वार्थ सिद्धि एवं अस्तित्व के लिए करना आवश्यक व्याप्त आगम विरुद्धता और सदोषता के कारण श्री नाथूराम जी था इसलिए किया, किसी धर्म बुद्धि से नहीं। सवस्त्र भट्टारकों प्रेमी ही नहीं उनके अतिरिक्त अनेक विद्वानों ने एवं समाज के के काल में जिनवाणी का सृजन नहीं अपितु विकृतिकरण हुआ प्रमुख लोगों ने समय-समय पर भट्टारक प्रथा के विरोध में है। असहनीय विकृति का एक उदाहरण है भद्रवाहु संहिता में | अनेक पुस्तकें, आलेख लिखे हैं। कतिपय उद्धरण नीचे दे रहे हैं:पंचम् काल में दिगम्बर मुनि होने का निषेध परक श्लोक निम्न । एक पुस्तक भट्टारक चर्चा लेखक हीराचंद नेमचंद दोशी है: शोलापुर से मराठी भाषा में सन् १९१७ में प्रकाशित हुई है। इस गरहे दोषे समये संघक्रम मेल्य रूप जो मूढो। पुस्तक में प्रारंभ में कहा है कि जो बातें समाज में, धर्म में शास्त्र परिवठ्ठति दिग्बिरओ सो समणों संघ वाहि रहो॥ । विरुद्ध और नीति विरुद्ध प्रचारित हो रही हैं उनका प्रतिकार करना -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज का कर्त्तव्य है। अभी के स्वामी (मुनि) शास्त्रानुसार मुनि | उस कार्य में भट्टारक सत्येन्द्र भूषण ने बाधा डाली। सोनागिर नहीं होते, पेट भरने के लिए स्वामी होकर लोगों को फँसाते हुए | की व्यवस्था तीर्थ क्षेत्र कमेटी करती है वहाँ लड़ाई झगड़े फौजदारी घूमते हैं। पुस्तक में एक लेख श्री अनंत तनय का भी छापा गया है | करने वाले भट्टारक नरेन्द्र भूषण। बेलगांव के जैन बोर्डिंग के जिसमें सोम देव सूरी के कथनानुसार पंचम काल के मुनि में चतुर्थ | लिए २० हजार रुपये देने से मना करने वाले लक्ष्मी सेन स्वामी, काल के मुनि की छवि देखकर उनकी पूजा करने की बात लिखी | धवल, जयधवल ग्रंथ का ज्ञान दूसरी जगह न जाय इसलिए ज्ञान है। उसका सयुक्तिक खंडन इस पुस्तक में किया है और भट्टारकों | का अंतराय करने वाले मूडबद्री के पट्टाचार्य, बन्हाड़ा के सेन द्वारा जैन साहित्य में किए गए शैथिल्य के पोषण का सार्थक गण और बलात्कार गणों के झगड़े श्रावकों में बढ़ाने वाले दोनों विरोध किया है। भट्टारक श्रुत सागर सूरि के शिथिलाचार के | भट्टारक निर्माल्य खाने का जिन्होंने त्याग किया है उनको कपट पोषक वाक्यों का भी इसमें विरोध किया है। इस पुस्तक में बताया | से निर्माल्य खिलाने वाले भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति, हर्ष और रत्न है कि मांडलगढ (मेवाड़) में श्री बसंत कीर्ति भट्टारक ने ऐसा | कीर्ति की लीला तो जग जाहिर है। नवीन विशाल कीर्ति का उपदेश दिया कि आहार के समय मुनि चटाई वगैरह से शरीर | झगड़ा शेतवाल में चालू है। फिर ऐसे लोगों की पाद पूजा करने से (नग्नता) ढांक कर जावें और बाद में चटाई छोड़ देवें। इसको | हमारा क्या कल्याण होगा? उन्होंने मुनियों के लिए अपवाद मार्ग बताया है जबकि आचार्य लेखक ने पुस्तक लिखते समय की सन् १९१७ की स्थिति पद्मनंदि महाराज ने पद्मनंदि पंच विंशतिका में चटाई रखने मात्र | लिखते हुए लिखा है 'आजकल भट्टारकों के संबंध की खूब को निग्रंथपने में दाग लाने वाला पतन का कारण और लज्जास्पद चर्चा शुरु हो गई है।' भट्टारक लेखमाला जैनहितेषी पत्रिका में कहा है। पुस्तक में भट्टारकों के लिए लिखा है कि पालकी में | निकली थी उसका मराठी अनुवाद पुस्तक के रूप में बंटने में आई बैठकर श्रावक के घर जावें और कहें कि हमारी चरण पूजा करो, | थी। भट्टारक शब्द तीर्थंकर केवली व परम निग्रंथ आचार्य परमेष्ठी पैसे दो नहीं तो तुम्हारा बहिष्कार करेंगे। पैसे इकट्ठे करने के के लिए प्रयुक्त होता था। उस भट्टारक शब्द का प्रयोग परिग्रहधारी, लिए गाँव-गाँव घर घर घूमते हैं तो वे कैसे संयमी हैं, उनसे तो मठाधिकारी, इन्द्रिय सुखों में रक्त, भ्रष्ट मुनियों के लिए होने लगा गृहस्थाश्रम में रहना ही अच्छा है। इसका खेद है । लेखक ने कामना की है कि भट्टारक यदि अपना पुस्तक में आगे लिखा है भट्टारक दीक्षा के समय प्रथमतः | वर्तमान भेष और पीछी आदि त्याग कर ग्रहस्थाचार्य के रूप में नग्न होते हैं और २८ मूल गुण धारण करते हैं। किंतु थोड़ी ही देर यथायोग्य प्रतिमाओं का पालन करते हुए धर्म शिक्षण और प्रचार बाद श्रावकों की प्रार्थना पर भगवे वस्त्र, धोती जोड़ा, शाल खड़ाऊ । कार्य करें और अपने आत्म कल्याण के साथ-साथ धर्म की पहनकर सब प्रतिज्ञा को पानी में डाल देते हैं, इसका दिगम्बर | प्रभावना भी कर सकेंगे तो वे सदोष चर्या से अपने जीवन को बचा आचार्य श्री मल्लिषेय ने कड़ा निषेध किया है। पायेंगे। 'अष्टविशंति भेदमात्मनि पुरा संरोप्य साधोवृतं ___ दूसरी एक पुस्तक 'भट्टारक चर्चा' श्री दि. जै नरसिंहपुरा साक्षी कृत्य जिनान् गुरुनपि त्वया कालं कियत्पालितं। नवयुवक मंडल, भीडर (मेवाड़) राजस्थान द्वारा सन् १९४१ में भंवतुं वांछसि : शीतबात विहतो भुंक्त्वा धुनातद्धतं। प्रकाशित की गई है। पुस्तक के लेखक को भट्टारकों के दुराचार दारिद्रोपिहतः स्ववांतमशनं भुंत्ये क्षुधार्तोपि किं॥' और आतंक की गहन पीड़ा है। यह पुस्तक मूलतः भट्टारक अर्थ : हे मुनि तूने भगवान और गुरु के सामने साधु के यशकीर्ति जी के कारनामों के विरुद्ध लिखी गई है। वे लिखते हैं अट्ठाइस मूलगुण का नियम करके कितने समय तक पालन 'प्रिय परीक्षा प्रधानी बंधुओं यह आप लोगों से अपरिचित नहीं है किया? ठंडी हवा की बाधा सहन न होने पर वह व्रत तोड़ने की कि भट्टारकों की स्थापना मुगल शासन काल में हुई जबकि इच्छा कर रहा है ? अरे! गरीबी से दुखी होकर और भूख से दुनियाँ मांत्रिक चमत्कार को ही सर्वोपरि समझती थी। उस समय व्याकुल होकर अपना वमन किया हुआ खायेगा क्या ? भट्टारकों द्वारा समाज व धर्म की अपूर्व सेवाएँ हुईं। किंतु धीरेपुस्तक लेखक ने आगे लिखा है कि भट्टारक लोग तो धीरे भट्टारकों में परिवर्तन हुआ और वह भी यहाँ तक कि वे स्वत: धर्म बुद्धि के कामों में अनेक अड़चन डालते हैं। श्री शिखर चारित्र शून्य केवल नाम मात्र ही भट्टारक रह गए। जो द्रव्य जी के भंडारे की सेठ माणकचंद जी ने व्यवस्था की थी उस समय श्रावकगण भक्तिपूर्वक समाज व धर्म की रक्षा के निमित्त देती है 20 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी अपने स्वार्थ साधन में खर्चकर उसका शतांश भी समाज हित में नहीं खर्च करते हैं। फलतः समाज के कुछ शिक्षित व्यक्तियों की दृष्टि इनकी ओर से फिरी और उन्होंने समय समय पर समाज को जाग्रत किया।' 1 'मेरी समाज के मुखियाओं से नम्र प्रार्थना है कि वे शांति से विचार करें कि वे हमारे धर्म गुरु हैं या जाति गुरु ?' 'यह निश्चत है कि इनके न तो मुनि धर्म है और न श्रावक धर्म विशेष क्या खेद है कि इनके अष्ट मूलगुण भी निर्दोष नहीं। किंतु फिर भी हमारे जाति बंधु अपने नेत्रों को बंद करके खुद भी इनको पूजते हैं और दूसरों को भी पुजवाते हैं तथा नहीं पूजने पर उनको जाति बहिष्कार का डर दिखाते हैं।' : पृष्ठ 9... इसलिए पुलाक वगैरह किन्ही मुनियों में इनका अंतर्भाव नहीं हो सकता किसी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकार से सामान्य जैनी या सहधर्मी कहना ठीक ही पड़ता है। अतः सहधर्मीयों के सदृश आदर करना चाहिए और इतना ही उन्हें करवाना चाहिए। अन्यथा उपास्य उपासक दोनों ही की आत्मा पूर्ण पतित होती है। अतः दोनों की हित की दृष्टि से शास्त्रोक्त विवेचन किया है, इसे द्वेष न समझें।' पृष्ठ 10 ' ... लोगों ने अब शास्त्र पढ़ना प्रारंभ कर दिया है। फलतः अब वे जहाँ जहाँ चातुर्मास करते हैं वहाँ-वहाँ कुछ कुछ समझदार लोग भोजन देने से इंकार करते हैं तथा पैसे का हिसाब नहीं देते इसलिए पैसा देना भी नहीं चाहते । ' पुस्तक में बहुत से लोगों ने पैर पूजना बंद किया उनके नाम दिए हैं। पृष्ठ १३ पर अपील छापी है कि भट्टारकों को रोकड़ पैसा देना बिल्कुल बंद करो। जब तक सम्पत्ति नरसिहंपुरा दिगम्बर पंचों के नाम रजिस्ट्री नहीं करें तथा हिसाब नहीं रखें तब तक कोई पैसा नहीं देवें । पुस्तक में आगे साहस करके भट्टारकों के विरुद्ध कविताएँ लिखी हैं। पृष्ठ १८ 'धर्म गुरु का भेष बनाकर परिग्रह संचय करते हैं । ' 'ऐसे संड मुसंडों को पैसे देगें नहीं' 'है धर्म रक्षक नाम पर ये धर्म भक्षक बन रहे । संसार के आडंबरों में यों अधिकतर सन रहे । ' 'अब नाम भट्टारक यहाँ सब कृत्य उनके नीच हैं। जो थे सरोवर के कमल वे हो गए अब कीच हैं।' 'हा जान कुछ पड़ता नहीं यह काल का ही दोष है । पृष्ट २० अथवा हमारे धर्म पर विधि ने किया अति रोष है।' 'मुनिधर्म का भी स्वांग धरना प्रेम से आता इन्हें । उल्लू बनाना श्रावकों को भी सदा भाता इन्हें ॥ निज मंत्र तंत्रों से डराना दूसरों को जानते । हो धर्म के ही नाम पर ये पाप कितना ठानते ॥' पुस्तक में आगे 'भट्टारक प्रथा अब अनावश्यक है' शीर्षक अध्याय में पृष्ठ २२ पर लिखा है... निर्ग्रथ वीतरागी साधुओं के मार्ग को भ्रष्ट करके सन् १४०७ में आचार्य प्रभाचन्द्र जी द्वारा वस्त्रधारी भट्टारक प्रथा की नींव पड़ी। प्रारंभ में इसका प्रभाव ग्रहस्थों पर बहुत पड़ा और अनुमानतः २५० वर्ष में वृद्धिंगत होता हुआ चरम सीमा तक पहुँच गया। उस समय गृहस्थों की अवस्था बहुत सोचनीय थी । किंतु अब इनका चमत्कार जाता रहा। भारतवर्ष में निर्ग्रथ मुनिराज दृष्टिगोचर होने लगे' 'ये मुनियों के भ्रष्ट रूप में रहते हुए अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं । जैसे दीक्षा के समय नग्न रहे, भोजन के समय अंतराय की संभावना से थाली बजती रहे एवं अष्ट द्रव्यों से पूजनादि होती है। इसी तरह भगवान की पालकी के बराबर इनकी पालकी चले । मंदिर में भगवान के बराबर गद्दी पर आप बैठें। श्रावकों से अष्टांग नमस्कार व नमोस्तु करावें इत्यादि क्रियाकांड दिखाते हुए मुनि बने रहे सो इस मार्ग को आजकल का शिक्षित समाज तो स्वीकार कर नहीं सकता।' ... 'अतः भट्टारक प्रथा को शीघ्र उठा देना चाहिए। जो भट्टारक हैं उन्हें या तो सप्तम प्रतिमा धारण करना चाहिए या स्वधर्मी भाई बनकर किसी संस्था की सेवा करनी चाहिए।' जैन मित्र अंक १७ नवम्बर १९४० से उद्धृत :नरसिंहपुरा भाइयों से निवेदन ... 1 इसमें २१ सूत्री भट्टारकों से व्यवहार के बारे में सुधार नियम बनाए गए हैं जैसे भट्टारक जी की संपति की समाज के नाम रजिस्ट्री हो । भट्टारक जी को भोजन कराने पर पतासे वगैरह नहीं बांटें। भेंट आदि नहीं देवें। नियमों के बारे में समाज से सम्मति मांगी है। जैन जगत के मनीषी प्रामाणिक विद्वान श्री पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री ने सन्मति संदेश वर्ष २२ अंक ३ में एक लेख 'वर्तमान भट्टारक पूज्य हैं क्या ?" प्रकाशित हुआ है। उसमें लिखा है : '... तथापि वे (भट्टारक) अपनी चर्या से जिस स्थिति में दिसम्बर 2003 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुँच गए वह स्थिति साधुता के लिए कलंक बन गई।" 'भट्टारक पद पर आज भी अविवाहित व्यक्ति ही बैठाया जाता है वह पंच महाव्रत की दीक्षा लेता है। बाद में श्रावकों के आग्रह किए जाने पर वस्त्र ले लेता है।... सामान्यजन के संसर्ग से यह शिथिलता धीरे-धीरे बढ़ती गई और मंदिरों का सर्व परिग्रह, सब आमदनी लेन-देन, खेती बाड़ी, जमीन जायदाद उनके निज परिग्रह में शामिल हो गई। धार्मिक सम्पत्ति पर उनका पूरा अधिकार हो गया। समाज का अधिकार समाप्त हो गया। सैंकड़ों वर्षों तक सम्पत्ति की उन्मत्तता में होने वाले उनके अनाचारों को समाज सहती रही। इसकी अति होने पर उत्तर भारत में उनके विरोध में कड़ी क्रांति उठी, जिसके फलस्वरूप उत्तर भारत से उनकी गद्दियाँ समाप्त हो गईं और धार्मिक संस्थान फिर समाज के अधिकार में आ गए।' 'दक्षिण प्रांत में अभी भी गद्दियाँ हैं और उनकी मान्यता चली आ रही है। यहाँ मेरा प्रश्न न तो उन धार्मिक संस्थाओं के अधिकार से है और न भट्टारकों की सम्पत्ति संबंधी अधिकार से है प्रश्न केवल पूज्यता के पद से है।" 'वर्तमान में वे जिस अवस्था में है उन्हें जैन विद्वान श्रावक मानते हैं या साधु मानते हैं ? यह एक अत्यंत विचारणीय प्रश्न हो गया है। अनेक साधु संघों में उनका आदर होता है।' 'दिगम्बर जैन संत या साधु के नाम से अखबारों में उनका उल्लेख आया है। विदेश में धर्म प्रचार हेतु उनका गमन हुआ । विदेशियों के सामने भी प्रश्न आया कि श्वेताम्बर साधु श्वेत वस्त्रधारी होते हैं और दिगम्बर साधु क्या गेरुआ वस्त्रधारी हैं ?' 'क्या दिगम्बर जैन संतों की श्रेणी में उन्हें माना जाय ? यदि नहीं तो क्या माना जाय ? सभी दिगम्बर जैन विद्वानों तथा प्रबुद्ध वर्ग से जो आगम के ज्ञाता हैं उनसे मेरा यह प्रश्न है कि भट्टारक का जैन आगम के अनुसार कौन सा पद है ? और उसकी पूज्यता किस दृष्टि से स्वीकृत है?' जैनहितेषी अगस्त १९१७ अंक ४ में एक लेख 'भट्टारकों के साहित्य में शिथिलाचार' छपा है। उसमें लिखा है कि 'पूर्व में हमारा ऐसा सोचना था कि भट्टारकों ने जितने ग्रंथ की टीका लिखी है उसमें कोई ऐसी बात नहीं लिखी है। किंतु जैसे-जैसे भट्टारकों के ग्रंथों का अवलोकन किया तो वह धारणा गलत सिद्ध हुई। भट्टारकों ने अपने शिथिल आचरण को उचित दिखाने 22 दिसम्बर 2003 जिनभाषित का प्रयास किया है।' 'परवार जाति के इतिहास' पुस्तक की प्रस्तावना में पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री ने निम्न प्रकार लिखा है : पृष्ठ २७ द्वितीय भद्रबाहु स्वामी से मूल संघ की परंपरा चलाने के लिए आचार्य अहंबली ने मूल संघ का पट्ट स्थापित किया। इन पट्टों पर बैठने वाले गुरुजन तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करने वाले दि. जैन नग्न वीतरागी आचार्य ही होते थे । यह मूल संघी परंपरा वि सं. १३१० तक चली ' 'वि सं. १३१० में आचार्य प्रभाचन्द्र मूल संघ के पट्ट पर आसीन हुए। उन्हें वि.सं. १३७५ में चांदीशाह ने दिल्ली बुलाया। वहाँ शास्त्रार्थ में ये विजयी हुए आचार्य प्रभाचन्द्र निर्वस्त्र थे। बादशाह ने उनसे महलों में आकर दर्शन देने की प्रार्थना की। बेगमों के सामने निर्वस्त्र साधु कैसे जा सकते थे अतः उस संकट के समय उन्होंने लंगोटी धारण की किंतु लौटकर मूलसंघ में मुनि के स्वरूप में वस्त्र धारण करने की गलत परंपरा न चल पड़े इसलिए ।' पृष्ठ २८ ' अपने नाम के साथ आचार्य (मुनि) पद छोड़कर भट्टारक नाम रखा । मूलसंघ के इस पट्ट में गुरु का स्वरूप विखंडित हो गया । ' 'पट्ट पर बैठने वाले आचार्यों की श्रृंखला में सवस्त्र तो भट्टारक कहलाए किंतु पट्ट से भिन्न मूल संघ के मुनियों की निग्रंथ परम्परा भी चलती रही।' 'इस काल में सवस्त्र भट्टारकों की सेवाएं बहुत महत्वपूर्ण रही हैं। उन्होंने यंत्र मंत्र तंत्र सिद्ध करके साधारण एवं तत्कालीन शासकों को चमत्कारों द्वारा प्रभावित किया और मान्यता प्राप्त की। इसके साथ ही अपने महत्त्वपूर्ण प्रभावी मठाधीश पद पर भी अपने को आचार्य संज्ञा देकर साहित्य का भी लेखन किया, जिनमें अधिकतर शासन देवी देवताओं ( सरागी देवी देवताओं ) ' की पूजा अर्चना आदि क्रियाकांड वर्णित है। इस प्रकार वस्त्रधारी भट्टाराकों द्वारा सरागी देवी देवताओं की वंदना पूजा से भौतिक सुख सम्पत्ति साधनों का समाज में प्रचार हुआ। तंत्र मंत्रों के प्रयोग पूर्वक भट्टारकों द्वारा किए गए चमत्कारों से समाज का एक वर्ग प्रभावित हुआ। आज भी भट्टारकों द्वारा रचित साहित्य को समाज का एक समुदाय मान्यता देता है । यह मूल संघ की आम्नाय के अनुसार नहीं है और न ही दिगम्बर जैन आचार्य द्वारा रचित है। क्रमशः .... Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ताः श्री जिनेन्द्र कुमार जैन, सागर दिखाए गए हैं और उसके ऊपर ८ योजन मोटी सिद्धशिला दिखाई जिज्ञासा : तिलोयपण्णत्ति तृतीय खण्ड पृष्ठ ६०७ (टीका- | गई है। जबकि चित्र में सिद्धशिला के नीचे बीस हजार योजन मोटी आ. विशुद्धमति जी) के अनुसार सिद्धशिला की दूरी सवार्थसिद्धि | प्रथम घनोदधिवलय दिखाकर, इसी वातवलय के अन्दर सिद्धशिला विमान से साठ हजार बारह योजन बनती है। क्या यह सही है ? से १२ योजन नीचे सर्वार्थसिद्धि विमानदिखाया जाना चाहिए था। समाधान : आपका प्रश्न बहुत उचित है। श्री तिलोयपणत्ति । वास्तविकता तो यह है कि अष्टम ईषतप्राग्भार पृथ्वी के नीचे जो भाग-१ पृष्ठ १४९ पर गाथा ६-७ में अर्थ इस प्रकार कहा है- प्रथम घनोदधिवलय है, उसके अंदर विजय, वैजयन्त, जयन्त लोय बहु मज्झ देसे तरुम्भि सारं व रज्जु पदर जुदा। अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांचों विमान अवस्थित हैं। वलय तेरस-रज्जुच्छेदा किंचूणा होदि तस-णाली ॥६॥ के अन्दर अवस्थित होने पर भी अनुत्तर विमानों के देवों को किसी ऊण पमाणं दंडा कोडि-तियं एक्कवीस-लक्खाणं। भी प्रकार की असुविधा की संभावना हमको नहीं सोचनी चाहिए। बासळिं च सहस्सा दुसया इगिदाल दुतिभाया ॥७॥ यदि उपरोक्त समाधान सही है तो तिलोयपण्णत्ति के नवीन प्रकाशन अर्थ - वृक्ष में (स्थित) सार की तरह, लोक के बहुमध्यभाग | में इस चित्र को ठीक करना उचित होगा। इस चित्र में एक गलती में एक राजू लम्बी-चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची त्रसनाली | और भी है। ईषतप्रारभार के नीचे सर्वप्रथम तनुवातवलय रखा गया है। त्रसनाली की कमी का प्रमाण तीन करोड़, इक्कीस लाख बासठ | है, जबकि घनोदधिवलय होना चाहिए। हजार, दो सौ इकतालीस धनुष एवं एक धनुष के तीन भागों में से । जिज्ञासा- जिनवाणी में जन्म का सूतक १० दिन का मरण दो २/३ भाग है। का १२ दिन का बताया गया है। इसका वर्णन कौन से शास्त्रों में विशेषार्थ- लोकनाली की ऊंचाई १४ राजू प्रमाण है। इसमें दिया गया है। आजकल प्रायः कई जगह मरण होने पर ३ दिन में सातवें नरक के नीचे एक राजू प्रमाण कलकल नामक स्थावर लोक | ही मंदिर का विनय करके उठावना कर दिया जाता है। तीसरे दिन है, यहाँ त्रस जीव नहीं रहते। अत: उसे (१४-१)-१३ राजू कहा ही मंदिर में थाली के अन्दर चावल लगाकर चढ़ाते हैं ? है। इसमें भी सप्तम नरक के मध्य भाग में ही नारकी (त्रस) हैं नीचे प्रश्नकर्ता - महेन्द्र कुमार नगेदा जैन, शास्त्री, कापरेन। के ३९९९ १/३ योजन (३१९९४६६६ २/३ धनुष) में नारकी समाधान - जैन शास्त्रों में सूतक शब्द का वर्णन सर्वप्रथम अथवा अन्य त्रस जीव नहीं हैं। नवमी शताब्दी में आ. जिनसेन ने महापुराण में किया। तदुपरान्त इसीप्रकर उर्ध्वलोक में सर्वार्थसिद्धि से ईषत्प्रागभार नामक | दसवीं शताब्दी में आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने त्रिलोकसार में आठवीं पृथ्वी के मध्य १२ योजन (९६००० धनुष) का अन्तराल | और फिर पं. आशाधर जी ने सागार एवं अनगार धर्मामृत में किया। है, आठवीं पृथ्वी की मोटाई ८ योजन (६४०००) धनुष है और | इन सभी ग्रन्थकारों ने सूतक विधि का वर्णन नहीं किया। सूतक उसके ऊपर दो कोस (४००० धनुष), एक कोस (२००० धनुष) | विधि का वर्णन सर्वप्रथम १६ वीं शताब्दी के श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार एवं १५७५ धनुष मोटाई वाले तीन वातवलय हैं। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में पं. मेधावी ने किया। वर्तमान में जो सूतक का प्रचलन है, वह में भी त्रस जीव नहीं हैं, इसलिए गाथा में १३ राजू ऊँची त्रस नाली इसी धर्मसंग्रह श्रावकाचार तथा किशनसिंह क्रियाकोष आदि के में से ३१९९४६६६ २/३ धनुष (अधोलोक में) + ९६००० धनुष आधार से प्रचलित है। + ६४००० धनुष + ४००० धनुष + २००० धनुष और + १५७५ धर्मसंग्रह श्रावकाचार में स्पष्ट कहा है कि मरण होने पर धनुष = ३२१६२२४१ २/३ धनुष कम करने को कहा गया है। | १२ दिन तक जिन भगवान् की पूजा आदि ने करें। सामग्री, दान, अर्थात् सर्वार्थसिद्धि विमान से सिद्ध शिला की दूरी, मात्र वारह चढ़ावा आदि न करें। अत: जो व्यक्ति तीसरे दिन ही मंदिर में चावल योजन है। ले जाकर चढ़ाते हैं, वह बिल्कुल आगम सम्मत नहीं है। इतना श्री स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा १२२ की टीका में | अवश्य है कि सूतक के दिन निकालते समय, कौन सी पीढ़ी हैआ. शुभचन्द्र ने भी इसी प्रकार लिखा है। इसका ध्यान अवश्य रखना चाहिए। उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि सर्वार्थसिद्धि के जिज्ञासा - कुम्हार की कन्या के साथ रहने वाले माघनंदि ध्वजदण्ड से सिद्धशिला की दूरी मात्र १२ योजन है। चित्र में यह | मुनि, चतुर्थकाल में हुये थे या पंचम काल में ? भूल प्रतीत होती है कि सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से १२ समाधान - 'षटखंडागम की शास्त्रीय भूमिका' लेखक योजन ऊपर जाकर, २०-२० हजार योजन मोटे तीनों वातवलय | डॉ. हीरालाल जैन के पृष्ठ ३०-३१ पर माघनंदि मुनि के संबंध में -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार लिखा है : माघनंदि सिद्धांतवेदी के संबंध का एक | नहीं है। कथानक इस प्रकार प्रचलित है: कहा जाता है कि माघनंदि मुनि | जिज्ञासा - धर्मात्मा जीव को या अणुव्रती को कौन-कौन एक बार चर्या के लिये नगर में गये थे। वहाँ एक कुम्हार की कन्या | से व्यापार आजीविका के साधन नहीं करने चाहिये ? ने इनसे प्रेम प्रकट किया और वे उसी के साथ रहने लगे। कालांतर | समाधान - यद्यपि श्रावक उद्यमी हिंसा का त्यागी नहीं में एक बार संघ में किसी सैद्धांतिक विषय पर मतभेद उपस्थित | होता फिर भी जिस व्यापार में जीवहिंसा की बहुलता है अर्थात् जो हुआ और जब किसी से उसका समाधान नहीं हो सका तब क्रूर कर्मवाली आजीविकायें हैं, उसे श्रावक या धर्मात्मा जीवों को संघनायक ने आज्ञा दी कि इसका समाधान माघनंदि के पास जाकर | नहीं करना चाहिए। ऐसी आजीविकायें बहुत प्रकार की हैं, सबका किया जाये। अतः साधु माघनंदि के पास पहुँचे और उनसे ज्ञान की | गिनाना संभव नहीं, फिर भी उनमें से कुछ की चर्चा यहाँ करना व्यवस्था मांगी। माघनंदि ने पूछा 'क्या संघ मुझे अब भी सत्कार उचित है। देता है ? मुनियों ने उत्तर दिया- आपके श्रुतज्ञान का सदैव आदर 1. वन जीविका-वृक्ष आदि को काटकर बेचना या गेहूँ होगा। यह सुनकर माघनंदि को पुनः वैराग्य हो गया और वे अपने | आदि धान्यों को पीस कूटकर बेचना। सुरक्षित रखे हुए पीछी कमंडलु लेकर पुन: संघ में आ मिले। | 2. अग्निजीविका - जंगल आदि जलाकर कोयला तैयार जैन सिद्धांत भास्कर सन् १९१३ अंक ४ पृष्ठ १५१ पर 'एक | करना। हार्डकोक आदि बनाना। ऐतिहासिक स्तुति' शीर्षक से इसी कथानक का एक भाग छपा है। 3. अनोजीविका - गाड़ी, घोड़ा जोतकर आजीविका करना। और उसके साथ सोलह श्लोकों की एक स्तुति छपी है। जिसे, 4. स्फोट जीविका - पटाखे, वारुद आदि को बेचना। कहा गया है कि माघनंदि ने अपने कुम्हार जीवन के समय कच्चे 5. यंत्रपीड़न - तिल आदि पेलकर तेल निकालना। फूलों घड़ों पर थाप देते समय गाते-गाते बनाया था। को पीसकर इत्र आदि बनाना। नंदि संघ की प्राकृत पट्टावली में अर्हद्वलि, माघनंदि | 6. विषवाणिज्य - जहर आदि प्राणघातक वस्तुओं को और धरसेन तथा उनके पश्चात् पुष्पदंत और भूतवलि को एक दूसरे | बेचना। के उत्तराधिकारी बतलाया है, जिससे ज्ञात होता है कि आचार्य 7. लाख वाणिज्य - लाख का व्यापार करना। धरसेन के दादागुरु और गुरु माघनंदि थे। 8. दंत वाणिज्य - हाथी के दांत, सीप, कौड़ी आदि का उपरोक्त कथानक के अनुसार माघनंदि मुनि पंचमकाल में | व्यापार करना। ही हुये थे और आचार्य धरसेन महाराज के गुरु थे। 9. केश वाणिज्य - सूकर, भेड़ आदि के बालों को तथा जिज्ञासा : क्या कोटिपूर्व वर्ष की आयु वाले विदेह क्षेत्र के | उनसे बने बुश आदि का व्यापार । निवासी मनुष्य, अपनी आयु के मध्य में दो बार उपशम सम्यक्त्व 10. रस वाणिज्य-शराब, शहद, मक्खन आदि का व्यापार। को प्राप्त कर सकते हैं या नहीं? 11. निंद्य वाणिज्य - नानवेज अंडा आदि या जिन पदार्थों समाधान - एक बार प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के | में नानबैज मिला हो, उनको बेचना। चर्बी से बने पदार्थों को बेचना। उपरांत, दुबारा उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने का जघन्य अंतर पल्योपम जूते आदि बेचना।रेशमी वस्त्र व चमड़े का सामान बेचना । नानबैज का असंख्यातवां भाग काल कहा है। यहाँ पल्योपम से अद्धापल्य | होटल चलाना। कीटनाशक केमीकल बनाना या बेचना आदि। समझना चाहिये। तदनुसार पल्योपम का संख्यातवां भाग, मुहूर्त या इसके अलावा जिन कम्पनियों में शराब, जूते, चर्बी से बने अंतर्मुहूर्त से असंख्यातगुणा होता है। यह प्रमाण श्री धवला भाग- सामान साबुन, पेस्ट आदि बनते हों उन कंपनियों के शेयर खरीद ३ द्रव्यप्रमाण की प्रस्तावना पृष्ठ ३५ पर बतलाया गया है इससे कर रखना, शराब आदि निंद्य कार्य करने वालों को अपनी दुकान अधिक स्पष्ट या निश्चित रूप से उक्त प्रमाण शायद कहीं भी नहीं | मकान आदि किराये पर देना, जीव हिंसा या निंद्य पदार्थ द्वारा दवा बतलाया गया है और न छद्मस्थों द्वारा बताना संभव ही है। कैमीकल आदि बनाना बहुत पानी, हवा या अग्नि प्रयोग होने वाली गत्यागति चूलिका सूत्र ६६-७७ की टीका व विशेषार्थ पृष्ठ ४४४- फैक्ट्री चलाना आदि कार्य करने योग्य आजीविका नहीं है। धर्मात्मा ४४५ के अनुसार उपशम सम्यक्त्व से सासादन होकर पुन: उपशम | जीव अन्याय व अभक्ष का त्यागी होता है। अत: वह अन्याय पूर्वक सम्यक्त्व की प्राप्ति संख्यातवर्ष की आयु में संभव नहीं बतलाई। आजीविका द्वारा धनोपार्जन करना योग्य नहीं समझता। हम भी किन्तु असंख्यात वर्ष की आयु में संभव बतलायी गई है। इससे | यदि इनमें से कोई व्यापार करते हों तो हमें पापभीरु होकर, व्यापार इतना ही कहा जा सकता है कि पल्योपम के असंख्यात वें भाग का | बदलने का विचार बना लेना ही उचित है। प्रमाण असंख्यात वर्ष होता है। अत: विदेह क्षेत्र के मनुष्यों को भी 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा, 282002 अपने जीवन काल में, दो बार प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति संभव । 24 दिसम्बर 2003 जिनभाषित - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ- समीक्षा प. सदासुखदास के व्यक्तित्व कृत्तित्व पर प्रकाशित प्रथम शोध प्रबन्ध काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के समीप स्थित अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जैन शोध केन्द्र पार्श्वनाथ विद्यापीठ' से नव प्रकाशित एवं श्रीमती डॉ. मुन्नी जैन द्वारा लिखित शोध प्रबन्ध 'हिन्दी गद्य के विकास में जैन मनीषी पं. सदासुखदास का योगदान' का विमोचन पिछले दिनों अनेक विद्वानों एवं सन्तों के मध्य सानंद सम्पन्न हुआ। ज्ञातव्य है कि श्रीमती डॉ. मुन्नी जैन, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में जैन दर्शन विभागाध्यक्ष तथा अखिल भारतीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी' जी की धर्मपत्नी हैं। लेखिका ने अपनी इस कृति में हिन्दी गद्य के विकास में पं. सदासुखदास जी के योगदान का वर्णन करते समय उन समस्त पूर्ववर्ती एवं परवर्ती उन मनीषी जैन गद्यकारों और उनके साहित्य का परिचय अत्यन्त शोधपूर्ण शैली में दिया है, जिनके बहुमूल्य योगदान से हिन्दी भाषा और उसके गद्य साहित्य का विकास सम्भव हुआ। यह ध्यातव्य है कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार जैसे अनेक ग्रन्थों पर भाषा वचनिका लिखने के कारण लोकप्रिय उन्नीसवीं शती के सुप्रसिद्ध जैन विद्वान पं. सदासुखदास जी के गौरवशाली दुर्लभ व्यक्तित्व और कृतित्व पर यह सर्वप्रथम शोध कार्य है, जिस पर उन्हें सन् १९९६ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की शोध उपाधि प्राप्त हुई थी । वस्तुतः भाषा वचनिका साहित्य लिखकर हिन्दी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में पं. जी का योगदान बहुमूल्य रहा है, जिसका सफलता पूर्वक मूल्यांकन इस ग्रन्थ के माध्यम से पहली बार किया गया है । इस अध्ययन पूर्ण शोधकार्य के माध्यम से लगभग अस्सी जैन प्राचीन हिन्दी गद्यकार विद्वानों का एक साथ परिचय पहली बार सामने आया है। इस प्रकार पं. जी सहित हिन्दी के लुप्त प्राय जैन गद्यकारों की कीर्ति को अमर बनाने का यह सार्थक प्रयास है 1 हिन्दी के क्षेत्र में अपने आप में अनूठी व मौलिक इस कृति का अध्ययन करने के बाद हिन्दी के सुविख्यात समालोचक डॉ. नामवर सिंह ने कृति की शुभाशंसा में लिखा है कि यह शोधग्रन्थ देखने को न मिलता तो मैं पं. सदासुखदास जी जैसे जैन मनीषी और प्रारम्भिक हिन्दी गद्य निर्माता के परिचय से वंचित रह जाता हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्येताओं में ऐसे ही और लोग भी होंगे जो पं. सदासुखदास जी के कृतित्व से अपरिचित हैं। डॉ. (श्रीमती) मुन्नी जैन का शोध प्रबन्ध इसी क्षतिपूर्ति की दिशा में श्लाघ्य प्रयास है और इस नयी जानकारी के लिए और कोई हो न हो, मैं तो निश्चय ही इस विदूषी देवी के प्रति कृतज्ञ हूँ। इन्होंने दुर्लभ सामग्री के अनुसन्धान में अनुकरणीय अध्यवसाय किया है।' मौखिक परीक्षा की शोध समिति ने इस मौलिक शोध प्रबन्ध पर अपनी संस्तुति में लिखा है कि ' श्रीमति मुन्नी जैन ने वचनिका साहित्य का हिन्दी में सर्वप्रथम अनुदित करके प्रस्तुत करने का श्रेयस पूर्ण कार्य किया है तथा एक दुर्लभ विद्वान पं. सदासुखदास को प्रकाश में लाने का गौरव पाया है। इस विषय में वे पूर्णत: समर्पित हैं तथा पोथियों का गहन मंथन भी किया है। शोध प्रबन्ध के परीक्षक सुप्रसिद्ध साहित्कार प्रो. रमेश कुंतल मेघ जी, लखनऊ ने अपने मूल्यांकन में लिखा है ' 'यह प्रबन्ध लगभग अज्ञात लेखक तथा उन्नीसवीं शती के राजस्थानी भाषा तथा साहित्य को प्रकाशित करता है। राजस्थानी देश भाषा के ढूँढारी गद्य में सदासुख दास जी ने योगदान करते हुए हिन्दी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है। इस प्रबन्ध में सांगोपांग पृष्ठभूमि के बाद इस गद्य साहित्य की परम्परा तथा व्यापकता का ऐसा सर्वेक्षण किया है, जिसमें नये तथ्यों एवं व्याख्याओं का विपुल भंडार है ।' इस प्रकार सर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर (म.प्र.) के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रेमशंकर जी ने अपने मूल्यांकान में लिखा है 'भारतेन्दु के समकालीन पं. सदासुखदास जी पर शोधकार्य करके श्रीमती जैन ने हमारा ध्यान इस ओर आकृष्ट किया है कि अपेक्षाकृत अल्पख्याति लेखकों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पं. सदासुखदास से सम्बन्धित आलोचना सामग्री प्रायः उपलब्ध नहीं इसलिए मूल पाण्डुलिपियों के सहारे ही अग्रसर होना पड़ा है। लेखिका ने अनुपलब्ध सामग्री को प्राप्त करने में जो श्रम किया होगा उसका अनुमान करना कठिन है। यह प्रबन्ध हिन्दी गद्य की परम्परा के एक विस्मृत अध्याय को रेखांकित करने का प्रयत्न है।' पुस्तक का प्रकाशन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड, वाराणसी-5 तथा श्री दिगम्बर जैन सिद्धकूट चैत्यालय टेम्पल ट्रस्ट अजमेर ने संयुक्त रूप से किया है। रतनचन्द्र जैन दिसम्बर 2003 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर (म.प्र.) gradaste यह श्री वर्णी दि. जैन गुरुकुल के नाम से विख्यात है।। आवास, भोजन, औषधि व शिक्षा आदि की समुचित सुविधा गुरुकुल के उदयकाल में महान् शिक्षाविद् महासन्त प्रातः स्मरणीय प्रदान की जाती है तथा छात्र लौकिक शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी ने अपने जीवन काल में देश | शिक्षा भी ग्रहण करते हैं। छात्रावास के संयोजक ब्र. पवन में अनेक शिक्षा संस्थाओं का शुभारंभ कराया। सिद्धान्तरत्न व सुरेन्द्र जी 'सरस' दर्शनाचार्य हैं। उनका मानना था कि देश की प्रगति शिक्षा से ही संभव इसी कड़ी में जुलाई २००० से गुरुकुल परिसर में श्री वर्णी है। इसी कड़ी में महाकौशल क्षेत्र की संस्कारधानी जबलपुर में | दि. जैन उच्चतर माध्यमिक शाला व शिशुओं के लिये अंग्रेजी आध्यात्मिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु सन् १९४६ में उन्होंने माध्यम का शिशु मंदिर प्रारम्भ किया गया है। वर्तमान में यहाँ पिसनहारी मढ़िया क्षेत्र में गुरुकुल की स्थापना की। प्रारम्भ में श्री लगभग १५ ब्रह्मचारी भाई व ७० छात्र आवासित होकर शिक्षा वर्णी जी स्वयं इसके अधिष्ठाता रहे उसके पश्चात् श्री पं. देवकीनन्दन ग्रहण कर रहे हैं। जी, पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री एवं पं. मोहनलाल जी शास्त्री इन सभी के सुचारु रूप से संचालन में गुरुकुल के आवासित आदि श्रेष्ठतम विद्वान् यहाँ के अधिष्ठाता रहे। सुप्रसिद्ध साहित्य ब्रह्मचारी विद्वान् भाईयों का मार्गदर्शन व समर्पण उलेखनीय है। मनीषी डॉ. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य सन् १९८६ से फरवरी जिनमें प्रमुख हैं : श्री ब्र. राकेश जी, ब्र. प्रदीप जी 'पीयूष', त्रिलोक जी, महेश जी विधानाचार्य, कमल जी, नरेश जी, अनिल जी, राजेन्द्र जी, विनोद जी (भिण्ड), विनोद जी (सागर), रवीन्द्र जी, पुष्पेन्द्र जी, चक्रेश जी, महेन्द्र जी व ब्र. दीपक जी। जैन साहित्य के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से सन् १९९७ में यहाँ एक विशाल साहित्य केन्द्र की स्थापना की गई। जिसके द्वारा अल्प अवधि में ही लगभग ८० ग्रन्थों का प्रकाशन ब्र. प्रदीप जी 'पीयूष' के संयोजकत्व में किया जा चुका है। यहाँ प्राचीन व नवीन सभी प्रकार का श्रेष्ठतम जैन साहित्य सुगमता से उपलब्ध होता है। स्व. डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य की स्मृति में पुस्तकालय का शुभारंभ किया गया है। २००१ तक यहाँ के अधिष्ठाता रहे उनके समाधिस्थ होने के उपरान्त यह उल्लेखनीय है कि इस गुरुकुल में साधु सन्तों के इस परंपरा का निर्वहन युवा ब्र. जिनेश जी प्रतिष्ठाचार्य कर रहे हैं। आवागमन/चातुर्मास आदि समय-समय पर हुआ करते हैं। इन इस तरह देश के ख्यातिप्राप्त शिक्षकों की सेवायें इस गुरुकुल को पावन प्रसंगों पर जैन आगमवाचनायें और शिक्षण शिविर आदि मिलीं। प्रारंभ से यहाँ विद्यार्थियों को धार्मिक शिक्षा के साथ | संचालित हुआ करते हैं। संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी लौकिक शिक्षा भी दी जाती रही है। महाराज के विशाल संघ के चातुर्मास सन् १९८४ व १९८८ में सन् १९८६ में आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज | गुरुकुल परिसर में संपन्न हुए। आचार्य श्री विद्यासागर जी के के परम आशीष से गुरुकुल को नई चेतना प्राप्त हुई। अब यहाँ ससंघ सान्निध्य में ही सन् १९८१ व १९८८ में गौरवशाली विशाल ब्रह्मचारी भाइयों को आवासित कराकर धार्मिक शिक्षा प्रदान की | सिद्धान्त वाचना शिविर आयोजित हुए। आचार्य श्री के प्रभावक जाने लगी। यहाँ के विद्यार्थी ब्रह्मचारीगण विशारद्, शास्त्री, सिद्धान्तरत्न व आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण कर सारे देश में विद्वत्ता का प्रकाश विखेर रहे हैं। आत्म साधना हेतु श्री १००८ भगवान् महावीर जिनालय गुरुकुल परिसर में स्थित है। शिक्षा के विस्तार की श्रृंखला में सन् १९९९ में जबलपुर के समीपवर्ती क्षेत्रों के प्रतिभावान् छात्रों को धार्मिक संस्कारों के साथ शिक्षा की बेहतर सुविधा उपलब्ध कराने के लिये गुरुकुल भवन में ही एक वृहद् छात्रावास प्रारंभ किया। जहाँ छात्रों को 26 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य श्री १०५ क्षु. ध्यानसागर जी के सान्निध्य व गुरुकुल के अधिष्ठाता डॉ. पं. पन्नालाल जी के कुलपतित्व में सन् १९९३ से १९९७ तक लगातार पाँच वर्ष क्रमशः जबलपुर, गोलबाजार जबलपुर, कटनी, नागपुर व छिन्दवाड़ा में ग्रीष्मकालीन वाचनायें संपन्न हुई। गौरव का विषय है कि यहाँ से शिक्षा प्राप्त, कई ब्रह्मचारी भाई मुनि, ऐलक, क्षुल्लक पद को धारण कर आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हुये । यहाँ के पूर्व ब्रह्मचारी छात्र शिक्षोपरांत देश में अनेक जगहों पर धार्मिक शिक्षा संस्थाओं का संचालन भी कर रहे हैं। इसी क्रम में ब्र. विनोद जैन (भिण्ड ) द्वारा जैन विषयों पर शोध करने वाले छात्रों को मार्गदर्शन तथा ब्र. एक बूढ़े सन्त ने अपना मरण निकट जानकर अपने भक्तों और शिष्यों को पास बुलाकर कहा भाई तनिक मेरे मुंह के भीतर तो देखो, कितने दांत बचे हैं ? हरेक शिष्य ने मुंह के अंदर देखा। हरेक ने कहा-दांत तो कई वर्ष पहले टूट चुके हैं, एक भी दांत अब नहीं है। सन्त बोले - जीभ तो मौजूद है ? सबने कहा- जी हाँ । सन्त ने कहा- यह बात कैसे हुई ? जीभ तो जन्म के समय भी मौजूद थी दांत उससे बहुत पीछे आये। पीछे जाना चाहिए था ये दांत पहले कैसे चले गये ? शिष्य बोले- हमें तो इसका कारण समझ नहीं पड़ा ? डॉ. नवीन जी द्वारा योग व ध्यान का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार ब्रह्मचारी भाईयों व छात्रों की उत्तरोत्तर प्रगति के लिये हम निरन्तर संकल्पित हैं। हमारे इस कार्य में आप तनमन-धन से भरपूर सहयोग देकर देश, धर्म और समाज के हित में सहभागी बनें। ब्रह्मचारी वर्ग 1. कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ इन्दौर द्वारा संचालित विशारद, शास्त्री व सिद्धान्तरत्न परीक्षा । 2. अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा (म.प्र.) द्वारा जैन दर्शन में शास्त्री की परीक्षा जो स्नातक के समकक्ष है। 3. संपूर्णानंद विश्वविद्यालय वाराणसी द्वारा जैन दर्शनाचार्य परीक्षा । छात्र वर्ग बोध कथा माध्यमिक शिक्षा मंडल, भोपाल द्वारा संचालित ९, १० व ११ व १२ वीं परीक्षायें (हिन्दी माध्यम ) शिशु वर्ग - अंग्रेजी माध्यम नर्सरी, के.जी. कक्षा १ व २ अधिष्ठाता वर्णी दि. जैन गुरुकुल पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर म.प्र. डॉ. रमा जैन, छतरपुर सन्त ने धीमी आवाज में उत्तर दिया यही समझाने के लिए मैंने तुम्हें बुलाया है। देखो यह वाणी, जो जीभ की सहायता से बोली जाती है, अभी तक मौजूद इसलिए है कि इसमें कठोरता नहीं और ये दांत पीछे आकर पहले चले गये, क्योंकि ये बहुत कठोर थे । इन्हें अपनी कठोरता का घमण्ड था, यह कठोरता ही इनके नाश का कारण बनी। इसलिए मेरे बच्चो यदि देर तक जीना चाहते हो तो नम्र विनयी बनो। कठोर स्वभाव बाले न बनो । कौवा कासों लेत है, कोयल का को देत । मीठी वाणी बोलि के, जग अपनो कर लेत ॥ कक्षा N दिसम्बर 2003 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-समीक्षा बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थ श्री कैलाश मड़बया श्री कैलाश मड़बैया की सद्यः प्रकाशित पुस्तक 'बुन्देलखंड | महाकौशल, विन्ध्य क्षेत्र और भोपाल का अंचल सम्पूर्ण रूप से के जैन तीर्थों पर सर्वथा उपयोगी, आकर्षक और संग्रहणीय कृति | समेटा है इसलिये पाठक आज के सीमित बुन्देलखण्ड तक सीमित है। लेखक ने बुन्देलखण्ड के जिस वृहद केनवास को लिया है | किताब को नहीं मानें। कृति में पीछे प्रकाशित तीर्थों का नक्शा, वह दरअसल आज का सम्पूर्ण मध्य देश है जिसमें उत्तरप्रदेश | तीर्थ यात्री की सभी कहानी एक दृष्टि में अपनी जुबानी कह देता और मध्यप्रदेश के वह वृहद अंचल हैं जहाँ न केवल बुन्देली | है। इसलिये इस कृति में जबलपुर, ग्वालियर और भोपाल संभागों बोली जाती है वरन् जैन साधकों का उत्कृष्ट वर्ग निवास करता है। | के तीर्थों पर भरपूर सामग्री उपलब्ध कराई गई है। उत्तरप्रदेश का आज के बहुचर्चित आचार्य विद्यासागर जो स्वयं यह मानते हैं कि | झांसी अंचल अपने आप में तीर्थों के लिये महत्वपूर्ण है। सागर संपूर्ण मध्यावर्त बनाम बुन्देलखण्ड का श्रावक, जैन धर्म के विज्ञान संभाग तो शुद्ध बुन्देलखण्ड ही है। इसलिये यह कृति भारत के और दर्शन को अपने आचरण में अन्तः तक समेटे हुए है। यहाँ के सम्पूर्ण मध्यावर्त तक बिखरी हुई है। वस्तुतः यह मध्यावर्त के तीर्थ भी इसलिये निर्विवादित और मूल जैन तत्वों के प्रतीक बिम्ब तीर्थों की कृति है परन्तु लेखक का बुन्देलखण्ड के प्रति, उसकी हैं। इनमें कला की बारीकी है तो धर्माचरण का गहन भाव भी संस्कृति के प्रति जो गहन मोह है उससे शीर्षक भी अछूता नहीं परिलक्षित होता है। कृति के शीर्षक से भले एक क्षेत्र और समाज रहा। विशेष के तीर्थों मात्र के परिचय का बोध होता हो परन्तु विख्यात जैन तीर्थो में अन्य तीर्थो से हटकर एक विशेष बात यह कवि कैलाश मड़वैया की यह कृति सम्पूर्ण हिन्दी संसार में पुरातत्व | होती है कि इनमें स्वच्छता और आडम्बर हीनता होती है। की महत्वपूर्ण रचना की तरह स्वागत योग्य है। सम्पूर्ण कलेवर | किसी तरह की मांगा-चूंगी, लूट-खसोट और भिखारियोंचित्रों से जितना आकर्षक बन पड़ा है तीर्थों का परिचय भी | पण्डों की घेरावंदी नहीं होती। प्रकृति के आंगन में विशाल मंदिर पुरातात्विक दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का साहित्य सृजन है। इसलिये न | और उनमें दिगम्बर मूर्ति, पाषाण की पैनी पच्चीकारी। सीधा सादा केवल जैन धर्मावलम्बी वरन् हिन्दी का प्रत्येक पाठक इस कृति | अध्यात्म, अहिंसा, अपरिगृह और अनेकान्त की त्रिवेणी इनमें को अपने पास रखना चाहेगा। मध्य देश या मध्यान्चल का पर्यटन सतत प्रवाहित होती रहती है। प्रायः शहर से दूर होने के कारण करने के लिये यह कृति अद्भुत ज्ञान-मंजूषा है। कदाचित जैन अतिक्रमण, गहमा गहमी और धर्म का पाखण्ड नहीं दिखता। इन समाज के लोगों को भी जिन तीर्थों की जानकारी आज नहीं रही, | तीर्थों पर रहने मात्र से साधना हो जाती है। बाजारु सामग्री और तो भी उन तीर्थों पर भी लेखक ने न केवल कलम चलाई है वरन् | तड़क-भडक यहाँ रहती ही नहीं है। दर्शनार्थी भी नहाया-धोया उसकी उपादेयता और आवश्यकता को भी रेखांकित किया है। एक धोती लपेटे, भूखा-प्यासा मात्र भावना से दर्शन करता चलता बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थ पुस्तक में अनावश्यक शब्दाडम्बर और | है, चढ़ाने की दृष्टि से एकदम धवल चावल या सूखे फल मात्र बेवजह की लफ्फाजी से बचा गया है। इसमें पाठक को विषय | होते हैं। स्तुति पढ़ता तथा अन्तः उर्जा से स्फूर्त पर्यटक के परिवेश पर केन्द्रित ही सारगर्भित जानकारी इस पुस्तक से तत्काल मिल | में प्रांजल रहता है। यहाँ कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। जाती है। इस कृति की भूमिका और शुभारम्भ अपने आप में | जैन धर्म मूलतः भोग का नहीं त्याग का धर्म है, इससे कठिनतम अन्वेषणात्मक निबंध है जिसके लिये श्री कैलाश मड़वैया बधाई | मार्ग है। या तो व्यक्ति इसमें आयेगा नहीं या जायेगा नहीं। प्रचारके पात्र हैं। प्रसार से यह कोसों दूर है इसलिये इतने विशाल जैन तीर्थ अभी लेखक ने प्राचीन बुन्देलखण्ड में आज का मध्यभारत, | तक बहुसंख्यकों से ओझल हैं। वही ध्यान वह जाप व्रत, वही ज्ञान सरधान। जिन मन अपना बस किया, तिन सब कियो विधान ।। प्रथम धरम पीछे अरथ, बहुरि काम को सेय। अन्त मोक्ष साधे सुधी, सो अविचल सुख लेय।। बदले की नहिं आस रख, सन्त करें उपकार। बादल का बदला भला, क्या देता संसार ।। कथनी को मन सूरमा, करनी को लाचार । करनी कर कथनी करै, सो ही पंडित सार । 28 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार मुनिश्री प्रवचनसागर का समाधिमरण आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य परम | घटना किसी के साथ घटे तो संयम के साथ घटे । वर्तमान में जो पूज्य १०८ मुनि श्री प्रवचनसागर जी की श्रद्धांजली सभा का लोग यह कहते हैं कि आज भावलिंगी संत (साधु) नहीं होते आयोजन परम पूज्य मुनिश्री अजितसागर जी एवं ऐलक श्री परन्तु उनको ऐसी घटना एक क्षण जाकर देखना चाहिए। कुत्ते के निर्भयसागर जी के सान्निध्य में दिनांक २९.११.०३ को मोराजी काटने पर कुत्ते जैसी ही प्रक्रिया होने लगती है। परन्तु इस प्रकार वर्णी भवन में किया गया। की किसी भी बाह्य प्रकार की प्रक्रिया नहीं होने दी। उन्होंने कहा पूज्य १०८ मुनि श्री अजितसागर जी महाराज ने कहा कि कि हमने सुना था कि भगवान पार्श्वनाथ, मुनि सुकमाल, मुनि इस संसार में जो भी प्राणी आता है वह जानता है कि एक दिन | सुकौशल आदि पर उपसर्ग हुआ और उन्होंने उस उपसर्ग को मरण भी होगा परन्तु ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं कि जिस दिन चतुर्थकाल में सहन किया था परन्तु आज चारित्रिक दृढ़ता के धनी जन्म हो उसी दिन मरण हो जाये पर मैं जिस साधक के बारे में | एवं संयमी मुनि श्री १०८ प्रवचनसागर जी ने साक्षात् दिखा दिया। कह रहा हूँ उनका जन्म भी २९ नवम्बर सन् १९६० को हुआ था | ऐसे धन्य हैं माता-पिता, जिन्होंने ऐसे संस्कार दिये पूज्य मुनि श्री एवं सामधिमरण भी २९ नवम्बर २००३ को हुआ। गुरु के उपकार | ने ६ वर्ष तक अपनी निर्दोष मुनि चर्या का पालन किया और मुनि का बदला हम इस जन्म में क्या अनेक जन्मों में भी नहीं चुका | बनके जिनकी सल्लेखना हो जाए तो उसका जीवन इस संसार में सकते हैं। मुनि श्री प्रवचनसागर जी का जब स्वास्थ्य बिगड़ने | अधिक से अधिक ७-८ भव या कम से कम २-३ भव ही बाकी लगा तब अपने गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागर जी के पास दो शब्द | रहते हैं। मनि एक नक्षत्र के समान हआ करते हैं और आचार्य सर्य लिखकर भेजे, हे गुरुवर, एक अभागा मुनि आपके दर्शन के | के समान। आज एक नक्षत्र हमारे बीच से चला गया। मुनि अभाव में आपके चरणों में एक भावना करता है कि मेरी समाधि | प्रवचनसागर जी के रूप में उन्होंने कहा संत, सैनिक एवं शिशु असंयमी जैसी न हो मैं संयमी हूँ एवं मेरी समाधि भी संयमी जैसी। मौत से नहीं डरते। संत यह सोचता है कि धर्मध्यान पूर्वक मौत हो हो। तब गुरुवर के वहाँ से आशीर्वाद आया कि प्रवचनसागर जी तो मुझे किसी भी प्रकार की चिंता नहीं है। आज हम सब यही यह शरीर रत्नत्रय के पालन में सहायक होता है तो इसकी देखरेख | भावना करें कि हमारा मरण भी समाधि पूर्वक हो, शिव सुख की करनी चाहिए परन्तु शरीर के लिए रत्नत्रय धर्म को कभी नहीं प्राप्ति हो, उनका भी कल्याण हो। हे गुरुवर आपके चरणों में मेरी छोड़ना। यह शरीर अभी चला जाय तो कोई बात नहीं, यह शरीर | भी समाधि संयम के साथ हो यही भावना हम सबकी कल्याण की तो व्याधियों का मंदिर है। आप अपने आत्म विश्वास को बनाये रखना, साधु का सही उपचार आत्म-विश्वास हुआ करता है एवं | | ब्र. विनोद भैया ने कहा कि मुनि श्री की समाधि बहुत ही आचार्य श्री ने उनको बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया। मुनि श्री की संयम एवं साधना के साथ हुई, उन्होंने इस शारीरिक परिषह को ब्रह्मचारी अवस्था का संस्मरण सुनाते हुए कहा कि मैं एवं मुनि श्री इस तरह सहन किया जैसे कोई भावलिंगी मुनि ही करते हैं। प्रवचनसागर जी ब्रह्मचारी अवस्था में थे तब मेरा नाम ब्र. विनोद | | उन्होंने कहा कि मैं शिखर जीकी वंदना करके उनका ही आशीर्वाद एवं उनका नाम ब्र. चन्द्रशेखर था। ब्र. विनोद ने कहा कि भैया लेकर गया था और जब आया तो उनके जीवन के अंतिम क्षण हमें मक्सीजी की वंदना करने चलना है तब ब्र. चन्द्रशेखर ने कहा | चल रहे थे, शरीर निरंतर क्षीण हो रहा था, परन्तु उनकी आत्म कि मैं ६ बजे के पहले नहीं चल सकता उन्होंने कहा क्यों पूजन जागृति पूरी बनी हुई थी, मुनि श्री ने मुझसे कहा कि कितनी वंदना पाठ एवं दैनिक क्रियाएँ करके चलेंगे तो ब्र. विनोद ने कहा कि की, तब मैंने कहा कि चार वंदना की एवं मैंने आपकी ओर से भी गाड़ी में बैठकर पूजन कर लेना वे कहने लगे कि आप लोग आज | सभी टोंकों पर नमोस्तु किया तब उन्होंने पिच्छी हाथ में लेकर ३इस प्रकार पूजन का कह रहे हैं कल कहेंगे कि गाड़ी में बैठकर | ३ आवर्त करके पूरी सम्मेद शिखर जी की भाव वंदना की। भोजन भी कर लेना और इस अपने ब्रह्मचर्य व्रत को दोष ब्र. राकेश जी ने कहा परम पूज्य मुनि उत्कृष्ट आचार्य संघ लगाओगे। इस प्रकार की चर्या पू. मुनि श्री जी ने ब्रह्मचर्य अवस्था | में सभी साधुओं की अपेक्षा अपनी मुनि चर्या को उत्कृष्ट पालन से ही की थी। इस प्रकार साधु का अंतिम लक्ष्य समाधिमरण होता करने को चेष्ठा करते थे वे हमेशा एवं अंत समय तक यह अनुभव है जो उन्होंने उसको प्राप्त किया। करते रहे कि मैं मुनि हूँ एवं मुनि चर्या का पालन करना है। मैं परम पूज्य ऐलक श्री निर्भय सागर जी महाराज ने कहा भावना करता हूँ कि उनको शिव सुख की प्राप्ति हो एवं अगले कि इस ससार को यही परिणति है पता नहीं कब क्या हो जाता है। जीवन में भी हमें मार्गदर्शन देते रहें। ऐसा किसी को अहसास नहीं था कि यह भी हो जायेगा। ऐसी प्राचार्य दयाचन्द शास्त्री जी एवं नाथूराम जी पटनावालों ने - दिसम्बर 2003 जिनभाषित 29 | रहे। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोक संदेश पढ़ा। श्री बी.सी.जैन, शासकीय अधिवक्ता ने कहा । उनकी वक्तव्य शैली भी थी। पण्डित जी द्वारा सृजित ग्रन्थों से कि हमारे देश में प्रवचनसागर जी ऐसे मुनि हुए हैं जो पंचम काल | भारतीय समाज, साहित्य एवं संस्कृति उनके उपकारों से कभी भी में रहते हुए भी चतुर्थ कालीन मुनियों जैसी चर्या का पालन किया उऋण नहीं हो सकता है। आप अनेक संस्थाओं के संस्थापक तो एवं इतना भीषण परिषह सहन किया यह उनकी अध्यात्म चेतना थे ही साथ ही आपने भदैनी स्थित स्याद्वाद महाविद्यालय में की ही शक्ति थी। यह आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का ही लगभग ३० वर्ष तक प्राचार्य के पद पर रहकर शताधिक विद्वान आशीर्वाद था कि उन्होंने अंत समय तक संयम के साथ शांत भाव तैयार किये। प्रेमी जी ने पूज्य पण्डित जी का जन्म शताब्दी समारोह से अपने प्रभु एवं गुरु चरणों का स्मरण किया। पूरे देश में विभिन्न नगरों में पूरे वर्ष भर आयोजित करने हेतु समाज ब्र. सुषमा दीदी ने कहा कि पूज्य मुनि श्री प्रवचनसागर जी का आह्वान किया। उन्होंने बताया कि अखिल भारतवर्षीय दिग, ने अपने गुरु की साधना के समान ही परिषह को सहन किया एवं जैन विद्वत् परिषद् की ओर से इस अवसर पर एक व्याख्यानमाला अपने गुरु से भी एक कदम आगे बढ़कर यह दिखा दिया एवं | का आयोजन तथा एक स्मारिका प्रकाशित करने की योजना है। सल्लेखना मरण को स्वीकार किया। श्री राजेन्द्र सुमन एवं गुलाबचंद सुरेन्द्र कुमार जैन जी पटना वालों ने कहा कि परम पूज्य मुनि श्री अजितसागर जी के स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी, वाराणसी प्रवचन का ऐलान कल यहाँ किया गया था परन्तु कौन जानता था दीपावली स्नेह मिलन समारोह सम्पन्न कि यह सभा शोक सभा में परिवर्तित हो जायेगी। परमपूज्य मुनि श्री सुधासागरजी महाराज के आशीर्वाद से ब्र. अक्षय भैया ने सल्लेखना का संस्मरण सुनाया पूज्य मुनि पल्लवित ज्ञानोदयनगर में श्री समतासागर जी के आने पर वे मुनि श्री प्रवचनसागर से नीचे परमपूज्य आचार्य १०८ बैठ गये तब उन्होंने तुरन्त ऊपर बैठने का संकेत किया, डॉ. राजेश श्री विद्यासागर जी जी भोपाल वाले पहुँचे और अंत समय में ब्लड प्रेशर नापने को महाराज के ३१ वें कहा परन्तु इशारे से उन्होंने मना कर दिया, मेरे कहने का अर्थ यह आचार्य पद आरोहण एवं है कि वे अंत समय तक सजग रहे। कार्यक्रम का संचालन शिखर ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र महिला लम्बरदार ने किया। समिति के सातवें वार्षिक सकल दि. जैन समाज, सागर म.प्र. | समारोह एवं द्वितीय दीपावली स्नेह सम्मेलन के उपलक्ष में महिला सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री का | समिति ने विशाल सम्मेलन आयोजित किया। इसमें अजमेर जिले जन्म शताब्दी समारोह का शुभारम्भ की नसीराबाद, किशनगढ, ब्यावर एवं मकराना की लगभग २५० वाराणसी ५ नवम्बर को भदैनी स्थित श्री स्याद्वाद महिलाओं ने तीर्थक्षेत्र पर प्रातः ९ बजे से एक बजे तक 'चौसठ ऋद्धि मंडल विधान' पूजा की। तत्पश्चात् मध्यान्ह २ बजे से ५ बजे महाविद्यालय के प्रांगण में विद्यालय के पूर्व प्राचार्य विद्वत् शिरोमणि तक प्रतियोगिता एवं धार्मिक प्रश्न मंच का आयोजन किया। सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के जन्म शताब्दी समारोह श्रीमती निर्मला पांडया का शुभारम्भ उप-अधिष्ठाता एवं श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर महामंत्री जैन विद्वत् परिषद् के अध्यक्ष डॉ. फूलचन्द्र जी जैन प्रेमी - जैन मानस्तंभ शिलान्यास संपन्न दर्शन विभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की कटंगी (जबलपुर) चंदाप्रभु दिगम्बर जैन मंदिर के प्रांगण अध्यक्षता में आयोजित हुआ। में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से आर्यिका ___ डॉ. प्रेमी जी ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्रशांतमति माताजी की प्रेरणा से ब्र. अभय भैया, ब्र. अरुण भैया, पूज्य पण्डित जी ने अपना सारा जीवन देश, समाज एवं धर्म, ब्र. संजीव भैया, ब्र. संजय भैया के निर्देशन में संगीतमय शांति संस्कृति व साहित्य के लिए समर्पित किया। पण्डित जी का विधान एवं भक्तामर विधान के साथ मानस्तंभ शिलान्यास किया आदर्श व्यक्तित्व एवं कृतित्व हमारे लिए अनुकरणीय है। पण्डित गया। ब्राह्मी विद्या आश्रम की बहनें एवं स्थानीय ब्र. आभा दीदी, जी जैनधर्म, दर्शन एवं इतिहास के तो उत्कृष्ट विद्वान थे ही साथ प्रभा दीदी, सुनीता दीदी की गरिमामय उपस्थिति ने अपार जन ही साथ वे समस्त प्राचीन भारतीय भाषाओं के विशेषज्ञ भी थे। समुदाय को भक्ति रस में सराबोर कर दिया। अल्प समय के बाद पण्डित जी ने उत्कृष्ठ तीस ग्रन्थों का सम्पादन, अनुवाद एवं मौलिक पंचकल्याणक महोत्सव के आयोजन की घोषणा की गई। सृजन कर भारतीय वाड्मय की उत्कृष्ठ सेवा की है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में भारतीय इतिहास को एक नई दृष्टि दी है । जितनी सरल रिषभ सिंघई और सहज उनकी उत्कृष्ट लेखन शैली थी, उतनी ही प्रभावक 30 दिसम्बर 2003 जिनभाषित - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कुन्दकुन्द का कुन्दन' कृति अवश्य मंगवायें अध्यात्म जगत में बहुचर्चित आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का नाम प्रत्येक अध्यात्म प्रेमी के हृदय में विद्यमान है। उन्हीं प्रखर तेजपुंज के साहित्य के सार संदेश को समझने समझाने के लिये सारगर्भित १३४ गाथाओं का संकलन है। जिसमें रत्नत्रय, उपयोग, ज्ञान - ज्ञेय एवं श्रामण्य, चार अधिकार हैं। कृति को सरल, सहज बनाने के लिये अब इस पुनर्प्रकाशन में अन्वयार्थ, अर्थ, भावार्थ और आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का पद्यानुवाद जोड़कर इसे अत्यन्त उपयोगी बना दिया गया है। यह कृति त्यागी व्रत्ती, विद्वान, प्रवचनकारों एवं शिविर के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिये अत्यन्त उपयोगी है। जिसकी लागत २० रुपये है। जिसे श्री विद्याविनोद काला मेमोरियल ट्रस्ट, जयपुर अर्थ सहयोग द्वारा ५० प्रतिशत डिसकाउन्ट करके विक्रय मूल्य १० रुपये में उपलब्ध करा दिया गया है । प्राप्ति स्थान 1. श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर, जयपुर (राज.) ३०३९०२ फोन : ०१४१ २७३०५५२, ५१७७३०० 2. भगवान ऋषभदेव ग्रन्थमाला, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मंदिर संधी जी सांगानेर, जयपुर ३०३९०२ (राज.) फोन : ०१४१ कर्मठ एवं समाज सेवी श्री कैलाशचन्द्र जी चौधरी (इंदौर) का अमृत महोत्सव २७३०३९० ब्र. भरत जैन, व्यवस्थापक दिगम्बर जैन समाज इंदौर एवं महावीर ट्रस्ट के संयुक्त तत्वावधान में देश के प्रसिद्ध समाज सेवी समाजभूषण श्री कैलाशचन्द्र चौधरी ७५ वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं इस उपलक्ष्य में उनके अमृत महोत्सव का आयोजन विशाल स्तर पर आयोजित किया जा रहा है। समारोह आयोजित करने हेतु एक समिति का गठन किया गया है। तदनुसार संरक्षकगण श्री वीरेन्द्रजी हेगड़े, (धर्मस्थल) श्री देव कुमार सिंह कासलीवाल, पद्मश्री बाबूलाल पाटोदी व पं. श्री नाथूलाल शास्त्री सहित अन्य वरिष्ठजनों को सम्मिलित किया गया है। समन्वयक होंगे श्री माणकचंद पाटनी व श्री निर्मल कासलीवाल तथा महामंत्री जयसेन जैन डॉ. अनुपम जैन, रमेश कासलीवाल व कीर्ति पाण्ड्या आदि को मंत्री मनोनीत किया गया है। स्मारिका प्रकाशन समिति में डॉ. प्रकाशचन्द्र जैन, हंसमुख गांधी व डॉ. जैनेन्द्र जैन आदि को सम्मिलित किया गया है। I समारोह दिसम्बर २००३ के अंतिम सप्ताह में आयोजित होगा। जयसेन जैन, महामंत्री १०८ मुनि श्री प्रवचन सागर जी को वर्णी गुरुकुल में विनम्र श्रद्धांजलि जिनके चेहरे पर सादगी का नूर था, जिनकी मुस्कराहट में आनन्द का पूर था, चरित्र की सुगंधी और त्याग तपोमय आभा मण्डल, मुनिश्री प्रवचनसागर जी से प्रमाद तो कोसों दूर था। ब्र. त्रिलोक जी द्वारा प्रस्तुत उक्त भाव भूमि पर १०५ आर्यिका रत्न धारणामति माताजी ने कहा- जन्म के बाद मृत्यु प्रकृति का अटल नियम है, बड़े से बड़े साधक जो कार्य सैकड़ों वर्षों में नहीं कर पाते उस समाधि साधना के महान कार्य को प्रवचनसागर जी ने छोटी सी उम्र में कर दिखाया। ब्र. जिनेश जी ने मुनि श्री के ब्रह्मचर्य साधना काल में वर्णी गुरुकुल में ७ वर्ष के प्रवास काल को याद करते हुये कहा ब्र. चन्द्रशेखर जी का चरित्र पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह उज्जवल था, श्रावकाचार मय उनका जीवन था, उनके वचन हित मित प्रिय होते थे। उनकी साधना से अन्य साधकों को प्रेरणा मिलती थी। प्रवचनसागर जी के सहपाठी साधक ब्र. त्रिलोक ने कहा मुनि श्री का जीवन सादगी के सौन्दर्य एवं चरित्र की सुगंधि से भरपूर था । सरलता आपकी सहचरी तो संयम, तप, त्याग आपके मित्र थे, विनम्र इतने कि अहंकार खोजे न मिले। अपने से लघु साधकों के प्रति भी वह आदर भाव रखते थे । बालसुलभ मुस्कान ऐसी की जो देखे उसी का हृदय कमल खिले । जीवन चर्या इतनी निर्मल थी कि उनका आचरण ही साधकों के लिए उपदेश होता था। इसीलिये गुरुवर १०८ विद्या सागर जी ने आपका नाम प्रवचन सागर रखा। यह आपकी सम्पूर्ण जीवन की साधना का ही परिणाम था कि आपने मृत्यु को भी महोत्सव बना दिया। कुल मिलाकर साधना, सरलता, समता, सद्भावना के अनुपम सङ्गम थे, प्रवचन सागर जी । ब्रम्ही जयंती दीदी ने कहाजिसने जन्म लिया है उसकी बारात या डोली निकले न निकले पर अर्थी जरुर निकलती है। अतः हम सब को मुनि श्री प्रवचनसागर जी की तरह समाधि साधना करके जीवन को अर्थवान बनाना चाहिये। ब्र. नरेश जी ने कहा समाधि उन्हीं की होती है जो शत्रु मित्र काँच और कंचन में समता रखते हैं। वर्णी गुरुकुल के अधीक्षक राजेश सर ने कहा- आदर्श साधकों की साधना से गुरुकुल की शोभा बढ़ती है। इस अवसर पर वर्णी गुरुकुल के महामंत्री कमल कुमार जी दानी, जे. के. ऊनवाला, ज्ञानचंद जी लारेक्स, डॉ. नीलम जैन, रत्ना मौसी, कमल लम्हेटा आदि महानुभावों ने अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। सभा का संचालन कर रहे ब्र. त्रिलोक जी ने इन पंक्तियों के साथ श्रद्धांजलि सभा को विराम दिया झड़ते पत्ते कह रहे हैं, एक दिन झड़ जाओगे । आज जो इठला रहे हो, पत्तों से उड़जाओगे ॥ कारवाँ रुक जायेगा, मित्र होंगे दूर सब जल जायेगा तेरा प्रिय तन, सुन ले मेरे आत्मन ॥ दिसम्बर 2003 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभा के अन्त में ब्र. जिनेश जी ने कायोत्सर्ग ध्यान पूर्वक मुनि श्री को सारी धर्म सभा से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करवाई। राजेश जैन अधीक्षक, वर्णी दि. जैन गुरुकुल, पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर रक्तदान शिविर जयपुर २३ नवम्बर २००३, जी- २२ ग्रुप (रजि.) श्री दिगम्बर जैन समाज, शास्त्री नगर, जयपुर की चतुर्थ वर्षगांठ पर विशाल रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया। इसमें कुल १३५ युनिट रक्तदान का कार्य किया गया। यह कार्यक्रम प्रतिवर्ष मानव सेवार्थ के क्षेत्र में संस्था अपनी वर्षगांठ पर आयोजित करती है। कार्यक्रम संयोजक सुनील जैन ने जानकारी दी कि संस्था ने पिछले चार वर्षों में समाज सेवा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। गुजरात भूकम्प का मामला, उड़ीसा तूफान, राजस्थान अकाल या समाज के कमजोर, आर्थिक स्थिति के लोगों को शैक्षणिक, वैवाहिक कार्यक्रमों में अग्रणी रहकर संस्था निरन्तर कार्यरत है। संस्था का नामकरण बाइसवें तीर्थंकर नेमीनाथ भगवान जो कि गिरनार से मोक्ष गये। जी से तात्पर्य गिरनार तथा बाइसवें तीर्थंकर नेमीनाथ भगवान के नाम पर २२ रखा गया। इस संस्था को अनेक साधु-सन्तों की प्रेरणा तथा आशीर्वाद प्राप्त है। आचार्य श्री ज्ञानसागर पर डाक टिकिट जारी करने की माँग श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् ने भारत सरकार के मंत्री श्री अरुण शौरी से माँग की है कि सूचनाप्रसारण वह बीसवीं सदी में शुष्क होती संस्कृत लेखन परंपरा को पुनरुज्जीवित करने वाले महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की पुण्य स्मृति में एक डाक टिकिट जारी करें। उल्लेखनीय है कि महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने जयोदय महाकाव्य जैसे विशाल महाकाव्यों के साथ ही बीस अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। आज उनके शताधिक शिष्य श्रमण परम्परा को वृद्धिंगत करते हुए अहिंसा, विश्व शांति एवं राष्ट्रभक्ति के प्रचार प्रसार में संलग्न हैं, जिनमें आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज प्रमुख हैं। ऐसे महापुरुष की स्मृति में डाक टिकिट प्रकाशित कर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का डाक तार विभाग अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करे। उक्त माँग का समर्थन दिनांक ७ से ९ अक्टूबर तक केकड़ी (राज.) में आयोजित पद्मपुराण परिशीलन एकादश राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी में उपस्थित संस्कृत साहित्य के प्रखर मनीषियों ने किया । इस संबन्ध में एक प्रस्ताव परम पूज्य मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज, पूज्य क्षुल्लक श्री गंभीरसागर जी महाराज एवं पूज्य क्षुल्लक श्री धैर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य एवं सैकड़ों नर नारियों की दिसम्बर 2003 जिनभाषित 32 उपस्थिति में पास किया गया। ब्र. संजय भैया इस विषय में लगातार प्रयास कर रहे हैं। समस्त जैन समाज एवं सामाजिक संगठनों के पदाधिकारियों, विद्वानों से निवेदन है कि वह उक्त माँग के समर्थन में अपने प्रस्ताव निम्नलिखित महानुभावों को भिजवायें तथा एक प्रति विद्वत्परिषद् के मंत्री कार्यालय को भेजें 1. श्री अरूण शौरी ( सूचना एवं प्रसारण मंत्री, भारत सरकार, साऊथ ब्लॉक, संसद भवन मार्ग, नई दिल्ली ) । 2. श्री रविशंकर प्रसाद, सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री, भारत सरकार नई दिल्ली। 3. श्रीमती पद्मा बाला सुब्रमण्यम्, सचिव एवं महानिदेशक डाक विभाग, डाक भवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली। 4. श्रीमती मीरा हाण्डा, महानिदेशक (Philately) डाक विभाग, डाकभवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली। 5. श्रीमती अमरप्रीत दुग्गई, सहायक महानिदेशक (Phil) डाक विभाग, डाक भवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली। 6. श्रीमती देविका कुमार, डी. डी. जी. (Philately) डाक विभाग, डाक भवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली। विद्वद् विमर्श के तृतीयाङ्क हेतु शोधालेख आमंत्रित श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् द्वारा डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन के संपादकत्व में प्रकाशित मुख पत्र 'विद्वद विमर्श' के तृतीयाङ्क का प्रकाशन दिसम्बर २००३ में किया जायेगा । विद्वान लेखकों से शोध परक एवं प्रासंगिक आलेख सादर आमंत्रित हैं। समीक्षा प्रकाशन हेतु कृतियाँ १५ नवम्बर तक प्राप्त हो जाना चाहिए। कर्तत्ववाद में नहीं कर्मवाद में विश्वास रखता है जैन धर्म विचारगोष्ठी में वक्ताओं के विचार जैनधर्म कर्तत्ववाद में विश्वास नहीं रखता है वरन कर्मवाद में विश्वास रखता है। जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। शुभ भावों के फल स्वरूप जीव सच्चे सुख को प्राप्त करता हुआ अमरत्व (मोक्ष) प्राप्त करता है । ये उद्गार जैन दर्शन के प्रमुख विद्वान् पं. बिहारी लाल मोदी शास्त्री ने डॉ. रमेश चन्द जैन (बिजनौर) की नव प्रकाशित कृति 'जैन धर्म की मौलिक विशेषतायें' नामक कृति पर पार्श्व ज्योति मंच द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी में व्यक्त किये। अंत में सभी सदस्यों ने पूज्य आर्यिका वर्धितमती माताजी के समाधिमरण पर दिवंगत आत्मा की सद्गति की कामना करते हुए दो मिनट का मौन रखकर भावभीनी श्रद्धांजली दी । डॉ. नरेन्द्र भारती, पार्श्व ज्योति मंच, सनावद (म.प्र.) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संस्कार कवच आवश्यक है' माटी खाती है पद प्रहार, वन पंक कहीं पर सड़ती है, पा कुम्भकार से संस्कार, मंगल घट हो सिर चढती है। नर जीव रतन चिन्तामणि है, इसे संस्कार की आभा दो, वृष बीज को बो सींचो प्रतिफल, वट वृक्ष वरद शुचि शोभा दो । वैसे ही मानव दीन दलित, मूरख पड जीव कहाता है, पशुवत भय क्षुधा कष्ट सहकर, निद्रा मैथुन को करता है । शिक्षा संस्कार के बीज बपो, नर सन्त, भक्त या शूर बने, वह राष्ट्र भक्त या धर्म सन्त, अथवा बलिदानी वीर बने । यदि बीज पड़ा हो डिब्बी में क्या कभी वृक्ष बन पायेगा, मानव जीवन संस्कार बिना, वंजर सा रह मर जायेगा ॥ महा पुरुष जन्म से कहाँ महा, संस्कार से सदा बड़े होते, अर्जुन न द्रोण सा गुरु पाते, क्या वीर धनुर्धर बन जाते । हीरा की कनी छिपी माटी, उसे ढूढ जौहरी लेता है, सत संस्कार की चोटों से, आभामण्डित कर देता है। मानव भी बिना संघर्ष किये, क्या कभी महान बना करते, यदि राम न जंगल को जाते, पुरुषोत्तम राम न बन सकते । डॉ. विमला जैन 'विमल' सरिता में कंकर बहुत वहे, वे संघर्षों में पलते हैं, एक दिन ऐसा भी आता है, वे महादेव बन पुजते हैं। पर संघर्षों से लड़ने को संस्कार कवच आवश्यक है, नैतिक शिक्षा आध्यामिक बल, विकसित होना आवश्यक है। सीता अग्नि से डर जाती, क्या पावक नीर बना होता, जिसने संघर्ष किये हंसकर, वह नर नारायण भी होता । बचपन की कच्ची माटी पर गुरु कुम्भकार कर पड़ते हों, त्रुटि पाप के कंकर बीन बीन, मृदु माटी कलश सुगढते हों । " नारी तैयार स्व रक्षा को संस्कार प्रबल पाने होंगे, निर्बल तन भावुक मन बच के संस्कार सुदृढ करने होंगे। नर मंगल जीवन मंगल घट, यदि मंगल दायक करना हो, तो संस्कार शुचि शिक्षा दो, वृष वतन 'विमल' यदि करना हो । 1 / 344, सुहाग नगर फिरोजाबाद Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/5 प्रगति के सोपान जिनभाषित जिनभाषित जिनभाषित भगवान् महावीर की निर्वाणभूमि पावापुर, श्री दिगम्बर जैन रेवानद मिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर (म.प्र.) में निर्माणाधीन पंच बालयति एवं त्रिकाल चौबीसी हिना का प्रति सीर सरकार संरक्षण में पूर्व प्रधान अनदेवा राव जिनभाषित जितभाषित जिनभाषित भगवान आदिनाय चॉदवाडी उड़ीसा की उदयगिरि गुफाओं का दृश्य सीकर बी पाश्र्वनाथ भगवान भारणादि पहाइ-अंदिर एलोरा (महाराष्ट्र) जिनभाषित जिनभाषित जिनभाषित, श्री अतिशय क्षेत्र दिगम्बर जैन तीर्थ सोनागिरि श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर सदलगा स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-I, महाराणा प्रताप नगर, Jain Educatiorभोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ/4/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित Ainelibrary.org