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________________ बंसल जयपुर वालों ने तो अपनी विचारधारा में परिवर्तन करते हुए। जन्म हुआ है। वहाँ की जनता पुण्यशाली है, जहाँ वातावरण आज समन्वय वाणी पत्रिका का आवरण बदलते हुए मुख पृष्ठ पर | भी शुद्ध है, प्रदर्शन रहित है, सबकी भावना को पवित्र करता है। वीतरागी दिगम्बर पूज्य साधुओं के चित्र प्रकाशित किए हैं। लेखक ने सदलगा का जो पूर्णरूप से वर्णन किया है, यह पढ़कर 'जिनभाषित' के लिए कुछ सुझाव हैं सदलगा जाकर, आचार्य श्री के जन्मस्थल के दर्शन करने का तथा 1. प्रत्येक अंक में सरल भाषा में दो बोध कथाएँ जरुर | धार्मिक जनता से मिलने के भाव हो गये हैं। प्रो. रतनचन्द्र जी को प्रकाशित करें जैसा कि अक्टूबर के अंक में आपने प्रकाशित | | बहुत धन्यवाद। किया है। छोटे बच्चे उन्हें बड़े चाव से पढ़ते हैं। तनसुख लाल मदन लाल जैन, सज्जनपुर (औरंगाबाद) महाराष्ट्र 2. अक्टूबर अंक में पीछे के पृष्ठ पर प्रगति के सोपान में 'जिनभाषित' (नवम्बर २००३) अंक को पढ़ा। जिसमें आपने हमारे प्रसिद्ध पूज्य दिगम्बर संतों एवं तीर्थक्षेत्रों व अतिशय संपादकीय लेख अत्यंत प्रभावोत्पादक है। जिस तरह संपादक जी क्षेत्रों के चित्र प्रकाशित किए हैं, बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। ने प.पू. आ. विद्यासागर महाराज जी को जन्म भूमि और बचपन मेरी यह हार्दिक भावना है कि पत्रिका दिनोंदिन और भी का वर्णन किया है, उसे पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया और मन उन्नति के पथ पर अग्रसर हो। श्री बैनाड़ा जी द्वारा 'जिज्ञासा मस्तिष्क में सचित्र प्रतिबिम्ब झलक गये। 'घोषित दान की समाधान' का स्तंभ बराबर जारी रहना चाहिए। अनुपलब्धि' लेख भी समाज को सचेत करने वाला है। जिनभाषित' गुलाब चंद गंगवाल पो.- रेनवाल एक उच्चस्तरीय पत्रिका है जिसके लेख अत्यंत शोधपूर्ण एवं "जिनभाषित' में 'सदलगा सदा ही अलग' यह संपादकीय | आगमानुकूल होते हैं, अतएव हमारा साधुवाद स्वीकार करें। लेख प्रो. रतनचंद जी जैन द्वारा प्रस्तुत किया गया। पढ़कर मन आनन्द विभोर हो गया। सदलंगा यह पुण्य नगरी है, जहाँ पर आशीष जैन शास्त्री शाहगढ़ (म.प्र.) आचार्य श्री विद्यासागर जी का और अन्य वीतरागी त्यागियों का | जी जैन द्वारा प्रस्ताव अलग' यह संपादक आनन्द विभाग आओ निज मन निर्मल करलें हम कर्ता अपने कर्मों के भोक्ता भी अपने कर्मों के जैसा कर्म, मिले फल वैसा यह ध्रुव सत्य हृदय में धरकें आओ निजमन निर्मल करलें। डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल विषय वासना से छूटेंगे संयम के अंकुर फूटेंगे तप का तेज करे परिशोधन समता से डर-अंतर भरलें आओ निज मन निर्मल करलें। अब तक हम पापों में डोले निश दिन अनृत ही बोले कैसे भला उबर पायें हम छोडें सब, पहले सम्बर लें आओ निज मन निर्मल करलें। । कुटिल कषायों के बंधन से विरत होय सारे क्रन्दन से लेकर शुभ संस्कार सदय से दुखियों के सारे दुख हर लें आओ निज मन निर्मल करलें। 2 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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