SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय जैन न्याय-दर्शन ग्रन्थों के प्रकाशन की समस्या भारतीय दर्शन के न्याय ग्रन्थों में विशेषतौर से जैन न्याय-दर्शन के ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुये पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में विशेष प्रयत्न करके जैनदर्शन के ग्रन्थों का पाठ्यक्रम में समावेश कराया था। इसी क्रम में भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जैनदर्शन के ग्रन्थों को पढ़ाया जा रहा है। प्रो. डॉ. जगन्नाथ उपाध्याय के विशेष सत्प्रयत्नों से सम्पूर्णानन्द सं. वि.वि. वाराणसी में श्रमण विद्या संकाय का गठन कराया गया। उसी पाठ्यक्रम को देखकर राजस्थान सरकार ने जब संस्कृत वि.वि. की स्थापना की तो उसमें भी श्रमण विद्या संकाय का गठन हुआ जिसमें पांच विभाग सम्बद्ध किये गये। उन विभागों में प्रमुख रुप से जैनदर्शन विभाग कार्यरत है। सौभाग्य से छात्रसंख्या भी पर्याप्त है परन्तु पाठ्यक्रम में रखे गये जैन न्याय एवं दर्शन के ग्रन्थों का अभाव होने के कारण कई बार ऐसी परिस्थिति सामने आई कि पाठ्यक्रम से ग्रन्थों को हटाने की नौबत आ गई। इस समस्या को अखिल भारतीय स्तर की विभिन्न संस्थाओं के अधिवेशनों एवं मंचों की विभिन्न संस्थाओं के अधिवेशन एवं मंचों पर रखा गया परन्तु स्थायी समाधान अभी तक नहीं निकल सका। न्याय के प्रमुख ग्रन्थों में न्यायदीपिका को प्राय: कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्थान प्राप्त है परन्तु दस-बारह वर्ष से इस ग्रन्थ के प्रकाशन में किसी संस्था ने रुचि नहीं दिखाई। इसी प्रकार प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिकालंकार, प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासन परीक्षा, आप्तपरीक्षा, अष्टसहस्त्री आदि अनेक जैनन्याय दर्शन के ग्रन्थ हैं जो अनुपलब्ध हैं। फिरोजाबाद के विद्वत् परिषद अधिवेशन में स्व. साहू अशोक जी जैन का इस समस्या के प्रति ध्यान आकर्षित कराया गया था तब उन्होंने इस समस्या के तत्काल निदान के लिये भारतीय ज्ञानपीठ से कुछ ग्रन्थों की फोटोस्टेट कापी कराकर भिजवाई थी। इस समस्या का निदान स्थायी नहीं होने के कारण आज भी यह समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। ___ ज्ञातव्य है राज. सं. वि. वि. के श्रमण विद्या संकाय के जैनदर्शन विभाग में एवं माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर, सम्पूर्णानन्द सं. वि. वि. वाराणसी, केन्द्रीय सं. विद्यापीठ दिल्ली, लखनऊ, जयपुर एवं अवेधश प्रतापसिंह विश्व विद्यालय, रीवा आदि विश्वविद्यालयों में छात्रसंख्या पर्याप्त मात्रा में है। अतः प्रतिवर्ष लगभग २०० न्यायदीपिका एवं विश्वविद्यालय में अध्ययनरत शास्त्री एवं आचार्य के छात्रों को क्रमशः आप्त परीक्षा, प्रमेयरत्नमाला एवं अष्टसहस्री ग्रन्थों की लगभग १५० (एक सौ पचास) प्रतियों की अपेक्षा रहती है जिसकी पूर्ति प्रकाशन के अभाव में असंभव जैसी है। विद्वान प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन करते हैं परन्तु प्रकाशन की व्यवस्था नहीं होने के कारण वह ग्रन्थ अलमारियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इसी प्रकार लगभग दो सौ शोध ग्रन्थ विभिन्न शोधार्थियों के घरों में पड़े हैं जिनके प्रकाशन की कोई व्यवस्था नहीं है। अभी दो सप्ताह पूर्व एक विद्वान मित्र ने वेदना व्यक्त करते हुये कहा था कि मैंने दस वर्षों के अथक परिश्रम से एक ग्रन्थ तैयार किया और हजारों रु. उसकी तैयारी में खर्च किये। जब प्रकाशन की बात आई तो किसी भी संस्था ने रुचि नहीं दिखाई। येन केन प्रकारेण प्रथम भाग एक संस्था ने प्रकाशित कर दिया है परन्तु अब मैं दूसरा भाग तैयार नहीं करूंगा। तब मैंने कहा कि आप दूसरा भाग तैयार तो करें हतोत्साहित न हों, प्रथम भाग की तरह किसी प्रकार - दिसम्बर 2003 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy