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________________ मूकमाटी : योग से अयोग की ओर प्रस्थान का एक अनुपम महाकाव्य डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी जैन संस्कृति और धर्म-दर्शन की अजस्र धारा भारत में | अपनी रचना धर्मिता रूप मौलिक स्वरूप से वे निरन्तर अन्दर से आदिकाल से ही समृद्ध रुप में प्रवाहित है। कभी बाल्य, कभी | जुड़े रहते हैं। हजारों श्रावक भक्तों से घिरे रहकर भी वे निर्लप्त आर्हत तो कभी श्रमण आदि विभिन्न रूपों में इस संस्कृति ने सम्पूर्ण | भाव से अपने प्रणयन में लगे रहते हैं। मुझे स्वयं अनेक वर्षों तक जनमानस को लोकमंगल की भावना से सदैव ओत-प्रोत किया है। वर्ष में दो तीन बार उनके सान्निध्य से लाभान्वित होने का सौभाग्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन व्रतों पर आधारित | प्राप्त होता रहा है। कई रचनाओं को उनके श्री मुख से भी रचना नैतिक मूल्यों वाली प्राक् वैदिक कालीन 'व्रात्य संस्कृति' ने भारत | काल में ही सुना है। तथा काव्य रचना काल के समय के अनुभव की विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक एवं साहित्यक परम्पराओं भी सुनकर गदगद हुआ। उनसे ही सुना गया उनका यह अनुभव को मात्र गहराई से प्रभावित ही नहीं किया, अपितु सच्चे अर्थों में अब तक याद है कि नैनागिर जी में जब किसी शतक काव्य की भारतीयता का स्वरूप भी प्रदान किया है। तीर्थंकर ऋषभ देव से | रचना के समय एक स्थल पर शब्द योजना की संगति बैठ नहीं पा लेकर वर्धमान महावीर तक के चौबीस तीर्थंकरों के चिन्तन को | रही थी और रात्रि में उसी का चिन्तन करते हुए आचार्य श्री इनकी परम्परा के हजारों महान जैनाचार्यों ने भारत की प्रायः सभी । योगनिद्रा में लीन हुए, तब स्वप्न में ही जैसे किसी ने आकर उस प्राचीन भाषाओं में साहित्य की सभी विधाओं पर विशाल साहित्य | स्थान पर उपयुक्त शब्द सुझा दिया और उसकी शब्द योजना सृजन करके भारतीय बाङगमय की श्री वृद्धि की है। इसी परंपरा | सुसंगत हो गयी। प्रातः जागकर उन्होंने सबसे पहले उस शब्द द्वारा में दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा राष्ट्र भाषा | उसे पूरा किया। मूकमाटी भी लीक से हटकर आत्मोदय की हिन्दी में प्रणीत 'मूकमाटी' नामक महनीय काव्य योग से अयोग | नवीन सर्जना का एक चुनौती पूर्ण वह महाकाव्य है, जिससे काव्य की ओर प्रस्थान है कि इसे जब कभी भी जितनी बार पढ़ो प्रत्येक | सृजन के अनेक नये आयाम उद्घाटित होते हैं। कविता में ऐसी कुछ नवीनता दिखने लगती है कि पाठक सामान्यतया हिन्दी के कुछ आधुनिक काव्य पढ़कर तो आश्चर्यचकित हो इसके लेखक पूज्य आचार्य श्री की अलौकिक | लगता है कि लेखक अपनी बुद्धि को कष्ट देने में भी कंजूसी कर मेघा कवित्व शक्ति दूरदृष्टि एवं चिन्तन की गहनता पर मुग्ध हुए रहा है। क्योंकि साहित्य में बौद्धिक ऊर्जा होना आवश्यक है बिना नहीं रहता। अन्यथा ज्यों-त्यों बौद्धिक उर्जा कम होती जाती है, उसका स्तर जैन साहित्य के इतिहास में बीसवीं शती इसलिए अत्यधिक । भी गिरता जाता है। आचार्य श्री के इस काव्य में आत्मोदय की महत्वपूर्ण सिद्ध सार्थक सिद्ध हुई, क्योंकि एक ओर जहाँ विशाल | बौद्धिक ऊर्जा है और इसमें है एक आध्यात्मिक एवं दार्शनिक प्राचीन आगम तथा आगमेतर साहित्य को आधुनिक युग के अनुरूप | प्रयत्न से गम्भीर और ऊर्जित हो उठने वाली वाणी। इसलिए उनका सम्पादन, अनुवाद, विवेचन, समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन यह काव्य शिक्षा नहीं, अपितु वह आत्म दर्शन है, जो रचना के तथा अनुसंधान का महत् कार्य जितने विशाल स्तर पर हुआ, रास्तों से जाता है। आचार्य श्री ने 'मानस तरंग' शीर्षक से अपने विभिन्न भाषाओं में साहित्य का नव सृजन भी कम मात्रा में नहीं आद्य वक्तव्य में स्वयं लिखा है- 'यह वह सृजन है जिसका हुआ। इस प्रकार के साहित्य से राष्ट्रभाषा हिन्दी के विशाल भण्डार सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर श्रृंगार रस के जीवन की समृद्धि में चार चांद तो अवश्य ही लगे हैं। में भी वैराग्य का उभार आता है, जिसमें लौकिक अलंकार अलौकिक मूलत : अहिन्दी भाषी होकर भी आचार्य श्री विद्यासागर | अलंकारों से अलंकृत हुए हैं- जिसने शुद्ध सात्त्विक भावों से जी द्वारा प्रणीत 'नर्मदा का नरम कंकर, तोता क्यों रोता, डूबो मत- सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है, जिसका प्रयोजन सामाजिक, लगाओ डुबकी, चेतना के गहराव में एवं मूकमाटी जैसी श्रेष्ठ शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों काव्य कृतियाँ, अनेक संस्कृत ग्रन्थों के पद्यानुवाद एवं संस्कृत के को निर्मल करना और युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित कर अनेक मौलिक शतक काव्यों के साथ ही आपकी अनेक गद्य | भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को कृतियाँ लोकप्रिय हो चुकी हैं। इनकी रचनायें इनके श्रेष्ठ चिन्तन- | जीवित रखना है- और जिसका नामकरण हुआ है - 'मूकमाटी।' मनन-गहन तत्त्व ज्ञान एवं संयम की परिचायक हैं। इतने विशाल 'मूक-माटी' मात्र एक काव्य ही नहीं है, अपितु उस श्रमण संघ के अनुशास्ता होकर विविध उत्तर दायित्वों के बीच भी | समग्र आध्यात्मिक संस्कृति के उत्कर्ष का वह महाकाव्य है जिसने 10 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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