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________________ अंकित घुटनों तक बिखरी तीर्थकर की केश राशियाँ यह परिलक्षित ग्रहपतिवंशसरोरुहसहस्ररश्मिः सहस्रकूटैर्यः। करती हैं कि इसकी रचना तीर्थंकर के तप: कला की है। इसलिये वाणपुरे व्यधितासीत् श्रीमानि। ह देवपाल इति ॥१॥ बाँयी मूर्ति कुन्थनाथ की न होकर आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ की श्री रत्नपाल इति तत्तनयो वरेण्यः पुण्यैकमूर्तिरहोना ज्यादा पुष्ट होता है। मंदिर के पृष्ट भाग में एक पदासन अत्यंत भवद्वसुहाटिकायां । कीर्तिर्जगत्रय भव्य प्रतिमा महावीर स्वामी की शीर्ष रहित विराजमान थी। जो परिभ्रमणश्रमा यस्यस्थिराजनि जिनायतनच्छलेन॥२॥ स्थानांतरित हो चुकी है। वर्तमान में इस मंदिर का शिखर युक्त एकस्तावदनूनबुद्धिनिधिना श्री शान्तिचैत्याल। नवनिर्माण किया जा चुका है। यो दिष्टयानन्दपुरे परः परतरानन्दप्रदः श्रीमता। सहस्रकूट चैत्यालय येन श्रीमदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निर्मिमे। क्षेत्र के पूर्वी भाग में भारतीय स्थापत्य कला का अद्भुत सोऽयं श्रेष्ठिवरिष्ठगल्हण ईति श्रीरल्हणाख्याद । भूत् ॥३॥ प्रतीक सहस्रकूट चैत्यालय एक दर्शनीय सृजन है। उत्कृष्ट नागर तस्मादजायत कुलाम्बरपूर्णचन्द्रः शैली का सुगढ़ शिल्प, दसवीं सदी के इस जिनालय के प्रत्येक श्रीजाहडस्तदनुजोदयचन्द्रनामा। पाषाण में परिलक्षित होता है। २२ फुट चौड़े आसन पर ५० फुट एकः परोपकृतिहेतुकृतावतारो धर्मात्मकः पुनरमो उत्तुंग चैत्यालय के चारों ओर द्वार हैं, अन्तः भाग के बीच में तीन घसुदानसारः ॥४॥ फुट ऊँचे अधिष्ठान पर एक शिखरनुमा आठ फुट गुणा चार फुट के ताभ्यामशेषदुरितौघशमैकहेतुं निर्मापितं शिलाखण्ड में चारों ओर एक हजार आठ जिनेन्द्र भगवान की भुवनभूषणभूतमेतद् । श्रीशांतिचैत्यमतिनित्यसुखप्रदा मूर्तियाँ नगीने की तरह जड़ी हुई हैं। तृ मुक्तिश्रियो वदनवीक्षणलोलुपाभ्याम्।।5।। बाह्य भाग में दरवाजों से लगे हुये स्तम्भों पर आधारित संवत् १२३७ मार्ग सुदी ३ शुक्रे चारों ओर चार मण्डप आच्छादित हैं.। चारों दरवाजों पर द्वारपाल श्रीमत्परमर्द्धिदेव-विजयराज्ये। दिकपाल हैं । तोरणों पर नवग्रह, ऊपर-नीचे मदमस्त हाथी ओर शेर चन्द्रभास्करसमुद्रतारका यावदत्र जनचित्तहारकः। के साथ कलशवाहिनी शासन देव-देवियों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। धर्मकारिकृतशुद्धकीर्तनंतावदेव जयतात्सुकीर्त्तनम्॥६॥ यक्ष यक्षिणियाँ, नृत्यरत युगल और विभिन्न मुद्राओं में शासन वाल्हणस्य सुतः श्रीमान् रुपकारो महामतिः । देवियाँ अलंकृत हैं। शिखर, बारह पटलों के माध्यम से वर्तताकार पापटो वास्तुशास्त्रज्ञस्तेन बिम्बं सुनिर्मितम्॥७॥ उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होते हुये अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होता है। शिखर के उक्त शिलालेख के प्रथम श्लोक से ही पुष्ट हो जाता है कि अन्त में आमलक, घट पल्लव और कम्भ-कलश शोभायमान हैं। ग्रहपति वंश रुपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये सर्य के समान शिखर पर मध्य भाग से ऊपर पर्व तथा पश्चिम में दो देवियों का श्रीमान देवपाल ने बानपुर में सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण निर्माण झरोखों में शिल्प-सज्जा के साथ वातायन बनाते हुये इस कराया था। यह भी कि इसके सृजनकर्ता वास्तुशिल्पी पापट रहे हैं तरह सामंजस्य पूर्ण निर्माण किया है कि हवा और रोशनी का अन्दर देवपाल, अहार-प्रतिमा के निर्माता के तीन पीढ़ी पूर्व के थे अर्थात् प्रवेश गहराई तक संभव हो सके। आसन से शिखर तक की सम्पूर्ण दसवीं सदी का काल बानपुर के सहस्रकूट निर्माण का अनुमानित रचना का शिल्प-अलंकरण अद्वितीय है। पौराणिक गाथाओं पर है। अनेकान्त' पत्र ने १९६३ में एक लेख में इस निर्माण का उल्लेख आधारित दृष्य मकरवाहिनी गंगा, कर्मवाहिनी यमुना और दिगम्बर कर रचना काल ईस्वी सन् ९४५ माना है। मूर्ति भी तलवार एवं नरमुण्ड कर में लिये हुये जैसी मूर्तियाँ यों भी गुप्तोत्तर काल में ही मूर्ति रचना की विविधता मिलती उपलब्ध हैं। अहिंसा और हिंसा का यह समन्वय दर्शनीय है। है और सहस्रकूट की रचना इसी किस्म की है। कूट का अर्थ होता यद्यपि सहस्रकूट चैत्यालय की रचना बहुत कम क्षेत्रों पर है चोटी (जिसका प्रयोग जिनालय के रूप में कर लिया गया) और उपलब्ध है। देवगढ़, पटनागंज, कोनी आदि कुछ क्षेत्रों में अवश्य सहस्र अर्थात् एक हजार। जबकि सहस्रकूट चैत्यालय में एक निर्माण हुआ है। परन्तु बानपुर का सहस्रकूट चैत्यालय देश में अपनी | हजार मूर्तियों की स्थापना केवल श्वेताम्बर जैन समाज में होती है। तरह का सुन्दर सृजन है। दिगम्बर क्षेत्र के सहस्रकूटों में मूर्तियों की संख्या एक हजार आठ एक हजार वर्ष से अधिक प्राचीन इस कलाकृति के रचना निर्मित की गई है। आदि पुराण पर्व २५ श्लोक २२४ में प्रथम काल के बारे में प्राचीनता के सूत्र म.प्र. के टीकमगढ़ जिले में अहार तीर्थंकर आदिनाथ की स्तुति इन्द्र द्वारा एक हजार नामों से की गई जैन क्षेत्र के एक शिलालेख में मिलते हैं। थी। संभवतः इसी आधार पर सहस्रकूटों का कुछ क्षेत्रों में यथा बानपुर से लगभग ३५ किलोमीटर दूर अहार जैन क्षेत्र के सम्मेद शिखर, दिल्ली आदि में भी निर्माण हुआ था परन्तु जैन धर्म मूलनायक तीर्थंकर शान्तिनाथ की उत्तुंग मूर्ति के पादमूल में वि. | में बहुदेवतावाद की परिकल्पना मान्य नहीं हो सकी। इसलिये संवत् १२३७ का उक्त शिलालेख देवनागरी लिपि का संस्कृत में | सहस्रकूट चैत्यालय दसवीं-ग्यारहवीं सदी के बाद शायद अन्यत्र अंकित है निर्मित नहीं हुये। ७५, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल -३ -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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