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________________ समाज का कर्त्तव्य है। अभी के स्वामी (मुनि) शास्त्रानुसार मुनि | उस कार्य में भट्टारक सत्येन्द्र भूषण ने बाधा डाली। सोनागिर नहीं होते, पेट भरने के लिए स्वामी होकर लोगों को फँसाते हुए | की व्यवस्था तीर्थ क्षेत्र कमेटी करती है वहाँ लड़ाई झगड़े फौजदारी घूमते हैं। पुस्तक में एक लेख श्री अनंत तनय का भी छापा गया है | करने वाले भट्टारक नरेन्द्र भूषण। बेलगांव के जैन बोर्डिंग के जिसमें सोम देव सूरी के कथनानुसार पंचम काल के मुनि में चतुर्थ | लिए २० हजार रुपये देने से मना करने वाले लक्ष्मी सेन स्वामी, काल के मुनि की छवि देखकर उनकी पूजा करने की बात लिखी | धवल, जयधवल ग्रंथ का ज्ञान दूसरी जगह न जाय इसलिए ज्ञान है। उसका सयुक्तिक खंडन इस पुस्तक में किया है और भट्टारकों | का अंतराय करने वाले मूडबद्री के पट्टाचार्य, बन्हाड़ा के सेन द्वारा जैन साहित्य में किए गए शैथिल्य के पोषण का सार्थक गण और बलात्कार गणों के झगड़े श्रावकों में बढ़ाने वाले दोनों विरोध किया है। भट्टारक श्रुत सागर सूरि के शिथिलाचार के | भट्टारक निर्माल्य खाने का जिन्होंने त्याग किया है उनको कपट पोषक वाक्यों का भी इसमें विरोध किया है। इस पुस्तक में बताया | से निर्माल्य खिलाने वाले भट्टारक सुरेन्द्र कीर्ति, हर्ष और रत्न है कि मांडलगढ (मेवाड़) में श्री बसंत कीर्ति भट्टारक ने ऐसा | कीर्ति की लीला तो जग जाहिर है। नवीन विशाल कीर्ति का उपदेश दिया कि आहार के समय मुनि चटाई वगैरह से शरीर | झगड़ा शेतवाल में चालू है। फिर ऐसे लोगों की पाद पूजा करने से (नग्नता) ढांक कर जावें और बाद में चटाई छोड़ देवें। इसको | हमारा क्या कल्याण होगा? उन्होंने मुनियों के लिए अपवाद मार्ग बताया है जबकि आचार्य लेखक ने पुस्तक लिखते समय की सन् १९१७ की स्थिति पद्मनंदि महाराज ने पद्मनंदि पंच विंशतिका में चटाई रखने मात्र | लिखते हुए लिखा है 'आजकल भट्टारकों के संबंध की खूब को निग्रंथपने में दाग लाने वाला पतन का कारण और लज्जास्पद चर्चा शुरु हो गई है।' भट्टारक लेखमाला जैनहितेषी पत्रिका में कहा है। पुस्तक में भट्टारकों के लिए लिखा है कि पालकी में | निकली थी उसका मराठी अनुवाद पुस्तक के रूप में बंटने में आई बैठकर श्रावक के घर जावें और कहें कि हमारी चरण पूजा करो, | थी। भट्टारक शब्द तीर्थंकर केवली व परम निग्रंथ आचार्य परमेष्ठी पैसे दो नहीं तो तुम्हारा बहिष्कार करेंगे। पैसे इकट्ठे करने के के लिए प्रयुक्त होता था। उस भट्टारक शब्द का प्रयोग परिग्रहधारी, लिए गाँव-गाँव घर घर घूमते हैं तो वे कैसे संयमी हैं, उनसे तो मठाधिकारी, इन्द्रिय सुखों में रक्त, भ्रष्ट मुनियों के लिए होने लगा गृहस्थाश्रम में रहना ही अच्छा है। इसका खेद है । लेखक ने कामना की है कि भट्टारक यदि अपना पुस्तक में आगे लिखा है भट्टारक दीक्षा के समय प्रथमतः | वर्तमान भेष और पीछी आदि त्याग कर ग्रहस्थाचार्य के रूप में नग्न होते हैं और २८ मूल गुण धारण करते हैं। किंतु थोड़ी ही देर यथायोग्य प्रतिमाओं का पालन करते हुए धर्म शिक्षण और प्रचार बाद श्रावकों की प्रार्थना पर भगवे वस्त्र, धोती जोड़ा, शाल खड़ाऊ । कार्य करें और अपने आत्म कल्याण के साथ-साथ धर्म की पहनकर सब प्रतिज्ञा को पानी में डाल देते हैं, इसका दिगम्बर | प्रभावना भी कर सकेंगे तो वे सदोष चर्या से अपने जीवन को बचा आचार्य श्री मल्लिषेय ने कड़ा निषेध किया है। पायेंगे। 'अष्टविशंति भेदमात्मनि पुरा संरोप्य साधोवृतं ___ दूसरी एक पुस्तक 'भट्टारक चर्चा' श्री दि. जै नरसिंहपुरा साक्षी कृत्य जिनान् गुरुनपि त्वया कालं कियत्पालितं। नवयुवक मंडल, भीडर (मेवाड़) राजस्थान द्वारा सन् १९४१ में भंवतुं वांछसि : शीतबात विहतो भुंक्त्वा धुनातद्धतं। प्रकाशित की गई है। पुस्तक के लेखक को भट्टारकों के दुराचार दारिद्रोपिहतः स्ववांतमशनं भुंत्ये क्षुधार्तोपि किं॥' और आतंक की गहन पीड़ा है। यह पुस्तक मूलतः भट्टारक अर्थ : हे मुनि तूने भगवान और गुरु के सामने साधु के यशकीर्ति जी के कारनामों के विरुद्ध लिखी गई है। वे लिखते हैं अट्ठाइस मूलगुण का नियम करके कितने समय तक पालन 'प्रिय परीक्षा प्रधानी बंधुओं यह आप लोगों से अपरिचित नहीं है किया? ठंडी हवा की बाधा सहन न होने पर वह व्रत तोड़ने की कि भट्टारकों की स्थापना मुगल शासन काल में हुई जबकि इच्छा कर रहा है ? अरे! गरीबी से दुखी होकर और भूख से दुनियाँ मांत्रिक चमत्कार को ही सर्वोपरि समझती थी। उस समय व्याकुल होकर अपना वमन किया हुआ खायेगा क्या ? भट्टारकों द्वारा समाज व धर्म की अपूर्व सेवाएँ हुईं। किंतु धीरेपुस्तक लेखक ने आगे लिखा है कि भट्टारक लोग तो धीरे भट्टारकों में परिवर्तन हुआ और वह भी यहाँ तक कि वे स्वत: धर्म बुद्धि के कामों में अनेक अड़चन डालते हैं। श्री शिखर चारित्र शून्य केवल नाम मात्र ही भट्टारक रह गए। जो द्रव्य जी के भंडारे की सेठ माणकचंद जी ने व्यवस्था की थी उस समय श्रावकगण भक्तिपूर्वक समाज व धर्म की रक्षा के निमित्त देती है 20 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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