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________________ उसकी अपने स्वार्थ साधन में खर्चकर उसका शतांश भी समाज हित में नहीं खर्च करते हैं। फलतः समाज के कुछ शिक्षित व्यक्तियों की दृष्टि इनकी ओर से फिरी और उन्होंने समय समय पर समाज को जाग्रत किया।' 1 'मेरी समाज के मुखियाओं से नम्र प्रार्थना है कि वे शांति से विचार करें कि वे हमारे धर्म गुरु हैं या जाति गुरु ?' 'यह निश्चत है कि इनके न तो मुनि धर्म है और न श्रावक धर्म विशेष क्या खेद है कि इनके अष्ट मूलगुण भी निर्दोष नहीं। किंतु फिर भी हमारे जाति बंधु अपने नेत्रों को बंद करके खुद भी इनको पूजते हैं और दूसरों को भी पुजवाते हैं तथा नहीं पूजने पर उनको जाति बहिष्कार का डर दिखाते हैं।' : पृष्ठ 9... इसलिए पुलाक वगैरह किन्ही मुनियों में इनका अंतर्भाव नहीं हो सकता किसी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकार से सामान्य जैनी या सहधर्मी कहना ठीक ही पड़ता है। अतः सहधर्मीयों के सदृश आदर करना चाहिए और इतना ही उन्हें करवाना चाहिए। अन्यथा उपास्य उपासक दोनों ही की आत्मा पूर्ण पतित होती है। अतः दोनों की हित की दृष्टि से शास्त्रोक्त विवेचन किया है, इसे द्वेष न समझें।' पृष्ठ 10 ' ... लोगों ने अब शास्त्र पढ़ना प्रारंभ कर दिया है। फलतः अब वे जहाँ जहाँ चातुर्मास करते हैं वहाँ-वहाँ कुछ कुछ समझदार लोग भोजन देने से इंकार करते हैं तथा पैसे का हिसाब नहीं देते इसलिए पैसा देना भी नहीं चाहते । ' पुस्तक में बहुत से लोगों ने पैर पूजना बंद किया उनके नाम दिए हैं। पृष्ठ १३ पर अपील छापी है कि भट्टारकों को रोकड़ पैसा देना बिल्कुल बंद करो। जब तक सम्पत्ति नरसिहंपुरा दिगम्बर पंचों के नाम रजिस्ट्री नहीं करें तथा हिसाब नहीं रखें तब तक कोई पैसा नहीं देवें । पुस्तक में आगे साहस करके भट्टारकों के विरुद्ध कविताएँ लिखी हैं। पृष्ठ १८ 'धर्म गुरु का भेष बनाकर परिग्रह संचय करते हैं । ' 'ऐसे संड मुसंडों को पैसे देगें नहीं' 'है धर्म रक्षक नाम पर ये धर्म भक्षक बन रहे । संसार के आडंबरों में यों अधिकतर सन रहे । ' 'अब नाम भट्टारक यहाँ सब कृत्य उनके नीच हैं। जो थे सरोवर के कमल वे हो गए अब कीच हैं।' 'हा जान कुछ पड़ता नहीं यह काल का ही दोष है । Jain Education International पृष्ट २० अथवा हमारे धर्म पर विधि ने किया अति रोष है।' 'मुनिधर्म का भी स्वांग धरना प्रेम से आता इन्हें । उल्लू बनाना श्रावकों को भी सदा भाता इन्हें ॥ निज मंत्र तंत्रों से डराना दूसरों को जानते । हो धर्म के ही नाम पर ये पाप कितना ठानते ॥' पुस्तक में आगे 'भट्टारक प्रथा अब अनावश्यक है' शीर्षक अध्याय में पृष्ठ २२ पर लिखा है... निर्ग्रथ वीतरागी साधुओं के मार्ग को भ्रष्ट करके सन् १४०७ में आचार्य प्रभाचन्द्र जी द्वारा वस्त्रधारी भट्टारक प्रथा की नींव पड़ी। प्रारंभ में इसका प्रभाव ग्रहस्थों पर बहुत पड़ा और अनुमानतः २५० वर्ष में वृद्धिंगत होता हुआ चरम सीमा तक पहुँच गया। उस समय गृहस्थों की अवस्था बहुत सोचनीय थी । किंतु अब इनका चमत्कार जाता रहा। भारतवर्ष में निर्ग्रथ मुनिराज दृष्टिगोचर होने लगे' 'ये मुनियों के भ्रष्ट रूप में रहते हुए अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं । जैसे दीक्षा के समय नग्न रहे, भोजन के समय अंतराय की संभावना से थाली बजती रहे एवं अष्ट द्रव्यों से पूजनादि होती है। इसी तरह भगवान की पालकी के बराबर इनकी पालकी चले । मंदिर में भगवान के बराबर गद्दी पर आप बैठें। श्रावकों से अष्टांग नमस्कार व नमोस्तु करावें इत्यादि क्रियाकांड दिखाते हुए मुनि बने रहे सो इस मार्ग को आजकल का शिक्षित समाज तो स्वीकार कर नहीं सकता।' ... 'अतः भट्टारक प्रथा को शीघ्र उठा देना चाहिए। जो भट्टारक हैं उन्हें या तो सप्तम प्रतिमा धारण करना चाहिए या स्वधर्मी भाई बनकर किसी संस्था की सेवा करनी चाहिए।' जैन मित्र अंक १७ नवम्बर १९४० से उद्धृत :नरसिंहपुरा भाइयों से निवेदन ... 1 इसमें २१ सूत्री भट्टारकों से व्यवहार के बारे में सुधार नियम बनाए गए हैं जैसे भट्टारक जी की संपति की समाज के नाम रजिस्ट्री हो । भट्टारक जी को भोजन कराने पर पतासे वगैरह नहीं बांटें। भेंट आदि नहीं देवें। नियमों के बारे में समाज से सम्मति मांगी है। जैन जगत के मनीषी प्रामाणिक विद्वान श्री पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री ने सन्मति संदेश वर्ष २२ अंक ३ में एक लेख 'वर्तमान भट्टारक पूज्य हैं क्या ?" प्रकाशित हुआ है। उसमें लिखा है : For Private & Personal Use Only '... तथापि वे (भट्टारक) अपनी चर्या से जिस स्थिति में दिसम्बर 2003 जिनभाषित 21 www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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