SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहुँच गए वह स्थिति साधुता के लिए कलंक बन गई।" 'भट्टारक पद पर आज भी अविवाहित व्यक्ति ही बैठाया जाता है वह पंच महाव्रत की दीक्षा लेता है। बाद में श्रावकों के आग्रह किए जाने पर वस्त्र ले लेता है।... सामान्यजन के संसर्ग से यह शिथिलता धीरे-धीरे बढ़ती गई और मंदिरों का सर्व परिग्रह, सब आमदनी लेन-देन, खेती बाड़ी, जमीन जायदाद उनके निज परिग्रह में शामिल हो गई। धार्मिक सम्पत्ति पर उनका पूरा अधिकार हो गया। समाज का अधिकार समाप्त हो गया। सैंकड़ों वर्षों तक सम्पत्ति की उन्मत्तता में होने वाले उनके अनाचारों को समाज सहती रही। इसकी अति होने पर उत्तर भारत में उनके विरोध में कड़ी क्रांति उठी, जिसके फलस्वरूप उत्तर भारत से उनकी गद्दियाँ समाप्त हो गईं और धार्मिक संस्थान फिर समाज के अधिकार में आ गए।' 'दक्षिण प्रांत में अभी भी गद्दियाँ हैं और उनकी मान्यता चली आ रही है। यहाँ मेरा प्रश्न न तो उन धार्मिक संस्थाओं के अधिकार से है और न भट्टारकों की सम्पत्ति संबंधी अधिकार से है प्रश्न केवल पूज्यता के पद से है।" 'वर्तमान में वे जिस अवस्था में है उन्हें जैन विद्वान श्रावक मानते हैं या साधु मानते हैं ? यह एक अत्यंत विचारणीय प्रश्न हो गया है। अनेक साधु संघों में उनका आदर होता है।' 'दिगम्बर जैन संत या साधु के नाम से अखबारों में उनका उल्लेख आया है। विदेश में धर्म प्रचार हेतु उनका गमन हुआ । विदेशियों के सामने भी प्रश्न आया कि श्वेताम्बर साधु श्वेत वस्त्रधारी होते हैं और दिगम्बर साधु क्या गेरुआ वस्त्रधारी हैं ?' 'क्या दिगम्बर जैन संतों की श्रेणी में उन्हें माना जाय ? यदि नहीं तो क्या माना जाय ? सभी दिगम्बर जैन विद्वानों तथा प्रबुद्ध वर्ग से जो आगम के ज्ञाता हैं उनसे मेरा यह प्रश्न है कि भट्टारक का जैन आगम के अनुसार कौन सा पद है ? और उसकी पूज्यता किस दृष्टि से स्वीकृत है?' जैनहितेषी अगस्त १९१७ अंक ४ में एक लेख 'भट्टारकों के साहित्य में शिथिलाचार' छपा है। उसमें लिखा है कि 'पूर्व में हमारा ऐसा सोचना था कि भट्टारकों ने जितने ग्रंथ की टीका लिखी है उसमें कोई ऐसी बात नहीं लिखी है। किंतु जैसे-जैसे भट्टारकों के ग्रंथों का अवलोकन किया तो वह धारणा गलत सिद्ध हुई। भट्टारकों ने अपने शिथिल आचरण को उचित दिखाने 22 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International का प्रयास किया है।' 'परवार जाति के इतिहास' पुस्तक की प्रस्तावना में पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री ने निम्न प्रकार लिखा है : पृष्ठ २७ द्वितीय भद्रबाहु स्वामी से मूल संघ की परंपरा चलाने के लिए आचार्य अहंबली ने मूल संघ का पट्ट स्थापित किया। इन पट्टों पर बैठने वाले गुरुजन तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करने वाले दि. जैन नग्न वीतरागी आचार्य ही होते थे । यह मूल संघी परंपरा वि सं. १३१० तक चली ' 'वि सं. १३१० में आचार्य प्रभाचन्द्र मूल संघ के पट्ट पर आसीन हुए। उन्हें वि.सं. १३७५ में चांदीशाह ने दिल्ली बुलाया। वहाँ शास्त्रार्थ में ये विजयी हुए आचार्य प्रभाचन्द्र निर्वस्त्र थे। बादशाह ने उनसे महलों में आकर दर्शन देने की प्रार्थना की। बेगमों के सामने निर्वस्त्र साधु कैसे जा सकते थे अतः उस संकट के समय उन्होंने लंगोटी धारण की किंतु लौटकर मूलसंघ में मुनि के स्वरूप में वस्त्र धारण करने की गलत परंपरा न चल पड़े इसलिए ।' पृष्ठ २८ ' अपने नाम के साथ आचार्य (मुनि) पद छोड़कर भट्टारक नाम रखा । मूलसंघ के इस पट्ट में गुरु का स्वरूप विखंडित हो गया । ' 'पट्ट पर बैठने वाले आचार्यों की श्रृंखला में सवस्त्र तो भट्टारक कहलाए किंतु पट्ट से भिन्न मूल संघ के मुनियों की निग्रंथ परम्परा भी चलती रही।' 'इस काल में सवस्त्र भट्टारकों की सेवाएं बहुत महत्वपूर्ण रही हैं। उन्होंने यंत्र मंत्र तंत्र सिद्ध करके साधारण एवं तत्कालीन शासकों को चमत्कारों द्वारा प्रभावित किया और मान्यता प्राप्त की। इसके साथ ही अपने महत्त्वपूर्ण प्रभावी मठाधीश पद पर भी अपने को आचार्य संज्ञा देकर साहित्य का भी लेखन किया, जिनमें अधिकतर शासन देवी देवताओं ( सरागी देवी देवताओं ) ' की पूजा अर्चना आदि क्रियाकांड वर्णित है। इस प्रकार वस्त्रधारी भट्टाराकों द्वारा सरागी देवी देवताओं की वंदना पूजा से भौतिक सुख सम्पत्ति साधनों का समाज में प्रचार हुआ। तंत्र मंत्रों के प्रयोग पूर्वक भट्टारकों द्वारा किए गए चमत्कारों से समाज का एक वर्ग प्रभावित हुआ। आज भी भट्टारकों द्वारा रचित साहित्य को समाज का एक समुदाय मान्यता देता है । यह मूल संघ की आम्नाय के अनुसार नहीं है और न ही दिगम्बर जैन आचार्य द्वारा रचित है। For Private & Personal Use Only क्रमशः .... www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy