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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ताः श्री जिनेन्द्र कुमार जैन, सागर दिखाए गए हैं और उसके ऊपर ८ योजन मोटी सिद्धशिला दिखाई जिज्ञासा : तिलोयपण्णत्ति तृतीय खण्ड पृष्ठ ६०७ (टीका- | गई है। जबकि चित्र में सिद्धशिला के नीचे बीस हजार योजन मोटी आ. विशुद्धमति जी) के अनुसार सिद्धशिला की दूरी सवार्थसिद्धि | प्रथम घनोदधिवलय दिखाकर, इसी वातवलय के अन्दर सिद्धशिला विमान से साठ हजार बारह योजन बनती है। क्या यह सही है ? से १२ योजन नीचे सर्वार्थसिद्धि विमानदिखाया जाना चाहिए था। समाधान : आपका प्रश्न बहुत उचित है। श्री तिलोयपणत्ति । वास्तविकता तो यह है कि अष्टम ईषतप्राग्भार पृथ्वी के नीचे जो भाग-१ पृष्ठ १४९ पर गाथा ६-७ में अर्थ इस प्रकार कहा है- प्रथम घनोदधिवलय है, उसके अंदर विजय, वैजयन्त, जयन्त लोय बहु मज्झ देसे तरुम्भि सारं व रज्जु पदर जुदा। अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांचों विमान अवस्थित हैं। वलय तेरस-रज्जुच्छेदा किंचूणा होदि तस-णाली ॥६॥ के अन्दर अवस्थित होने पर भी अनुत्तर विमानों के देवों को किसी ऊण पमाणं दंडा कोडि-तियं एक्कवीस-लक्खाणं। भी प्रकार की असुविधा की संभावना हमको नहीं सोचनी चाहिए। बासळिं च सहस्सा दुसया इगिदाल दुतिभाया ॥७॥ यदि उपरोक्त समाधान सही है तो तिलोयपण्णत्ति के नवीन प्रकाशन अर्थ - वृक्ष में (स्थित) सार की तरह, लोक के बहुमध्यभाग | में इस चित्र को ठीक करना उचित होगा। इस चित्र में एक गलती में एक राजू लम्बी-चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची त्रसनाली | और भी है। ईषतप्रारभार के नीचे सर्वप्रथम तनुवातवलय रखा गया है। त्रसनाली की कमी का प्रमाण तीन करोड़, इक्कीस लाख बासठ | है, जबकि घनोदधिवलय होना चाहिए। हजार, दो सौ इकतालीस धनुष एवं एक धनुष के तीन भागों में से । जिज्ञासा- जिनवाणी में जन्म का सूतक १० दिन का मरण दो २/३ भाग है। का १२ दिन का बताया गया है। इसका वर्णन कौन से शास्त्रों में विशेषार्थ- लोकनाली की ऊंचाई १४ राजू प्रमाण है। इसमें दिया गया है। आजकल प्रायः कई जगह मरण होने पर ३ दिन में सातवें नरक के नीचे एक राजू प्रमाण कलकल नामक स्थावर लोक | ही मंदिर का विनय करके उठावना कर दिया जाता है। तीसरे दिन है, यहाँ त्रस जीव नहीं रहते। अत: उसे (१४-१)-१३ राजू कहा ही मंदिर में थाली के अन्दर चावल लगाकर चढ़ाते हैं ? है। इसमें भी सप्तम नरक के मध्य भाग में ही नारकी (त्रस) हैं नीचे प्रश्नकर्ता - महेन्द्र कुमार नगेदा जैन, शास्त्री, कापरेन। के ३९९९ १/३ योजन (३१९९४६६६ २/३ धनुष) में नारकी समाधान - जैन शास्त्रों में सूतक शब्द का वर्णन सर्वप्रथम अथवा अन्य त्रस जीव नहीं हैं। नवमी शताब्दी में आ. जिनसेन ने महापुराण में किया। तदुपरान्त इसीप्रकर उर्ध्वलोक में सर्वार्थसिद्धि से ईषत्प्रागभार नामक | दसवीं शताब्दी में आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने त्रिलोकसार में आठवीं पृथ्वी के मध्य १२ योजन (९६००० धनुष) का अन्तराल | और फिर पं. आशाधर जी ने सागार एवं अनगार धर्मामृत में किया। है, आठवीं पृथ्वी की मोटाई ८ योजन (६४०००) धनुष है और | इन सभी ग्रन्थकारों ने सूतक विधि का वर्णन नहीं किया। सूतक उसके ऊपर दो कोस (४००० धनुष), एक कोस (२००० धनुष) | विधि का वर्णन सर्वप्रथम १६ वीं शताब्दी के श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार एवं १५७५ धनुष मोटाई वाले तीन वातवलय हैं। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में पं. मेधावी ने किया। वर्तमान में जो सूतक का प्रचलन है, वह में भी त्रस जीव नहीं हैं, इसलिए गाथा में १३ राजू ऊँची त्रस नाली इसी धर्मसंग्रह श्रावकाचार तथा किशनसिंह क्रियाकोष आदि के में से ३१९९४६६६ २/३ धनुष (अधोलोक में) + ९६००० धनुष आधार से प्रचलित है। + ६४००० धनुष + ४००० धनुष + २००० धनुष और + १५७५ धर्मसंग्रह श्रावकाचार में स्पष्ट कहा है कि मरण होने पर धनुष = ३२१६२२४१ २/३ धनुष कम करने को कहा गया है। | १२ दिन तक जिन भगवान् की पूजा आदि ने करें। सामग्री, दान, अर्थात् सर्वार्थसिद्धि विमान से सिद्ध शिला की दूरी, मात्र वारह चढ़ावा आदि न करें। अत: जो व्यक्ति तीसरे दिन ही मंदिर में चावल योजन है। ले जाकर चढ़ाते हैं, वह बिल्कुल आगम सम्मत नहीं है। इतना श्री स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा १२२ की टीका में | अवश्य है कि सूतक के दिन निकालते समय, कौन सी पीढ़ी हैआ. शुभचन्द्र ने भी इसी प्रकार लिखा है। इसका ध्यान अवश्य रखना चाहिए। उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि सर्वार्थसिद्धि के जिज्ञासा - कुम्हार की कन्या के साथ रहने वाले माघनंदि ध्वजदण्ड से सिद्धशिला की दूरी मात्र १२ योजन है। चित्र में यह | मुनि, चतुर्थकाल में हुये थे या पंचम काल में ? भूल प्रतीत होती है कि सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से १२ समाधान - 'षटखंडागम की शास्त्रीय भूमिका' लेखक योजन ऊपर जाकर, २०-२० हजार योजन मोटे तीनों वातवलय | डॉ. हीरालाल जैन के पृष्ठ ३०-३१ पर माघनंदि मुनि के संबंध में -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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