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________________ अनर्गल-प्रलापं वर्जयेत् मूलचन्द्र लुहाड़िया वस्तुत: वास्तविक वस्तुस्थिति श्री नीरज जी के कथन से अर्थः इस पंचम काल में जो मुनि दिगम्बर होकर भ्रमण सर्वथा विपरीत है। भट्टारक प्रथा दिगम्बर मुनियों के अपने मूल | करता है वह मूर्ख है उसे संघ से बाहर समझो। वह यति वंदना आचरण से भ्रष्ट होने से उत्पन्न हुई। इतिहास के अनुसार पूर्व में करने योग्य नहीं जो पांच प्रकार के वस्त्रों से रहित है। भट्टारक नग्न ही होते थे। मुस्लिम बादशाह के आग्रह पर बेगमों श्वेताम्बर साहित्य में भी इस काल में दिगम्बर मुद्रा वर्जित के सामने जाते समय नग्नता ढांक लेना स्वीकार कर लेने के बाद बताई है। श्वेताम्बर साधु तो श्वेत सीमित वस्त्र व अल्प पात्र रखते विहार के समय नग्नता ढांकने के लिए वस्त्र का प्रयोग करने लगे | हुए शेष परिग्रह का त्याग करते हैं। किंतु भट्टारक वाहन, भूमि, किंतु वसतिका में आने पर वे वस्त्र छोड़कर पुनः नग्न हो जाते भवन, मूल्यवान वस्त्र, स्वर्ण, रजत आदि सभी परिग्रह रखते हैं। थे। धीरे-धीरे प्रमाद और सुखियापन मुनियों पर हावी होने लगा आश्चर्यजनक बात यह है कि हम श्वेताम्बर साधुओं को कुगुरु और वे स्थायी रूप से वस्त्र का प्रयोग करने लगे। उसके बाद घोषित करते हुए उनकी मान्यता का तो निषेध करते हैं किंतु भट्टारकों ने श्रावकों को आगम ग्रंथों के स्वाध्याय से वंचित रखा आंरभ परिग्रह में डूबे भट्टारकों को मान्य करते हुए उनकी पूजा और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन से धन वसूलना भक्ति का समर्थन करते हैं। यदि यह कहा जाय कि भट्टारक प्रारंभ कर दिया। परिग्रह के साथ आने वाले सभी दोष भट्टारकों अपने आपको दिगम्बर जैन बतलाते हैं तो यह तो और अधिक में आ गए और वे मठाधीश बनकर ऐश आराम से रहने लगे। इस मायाचारी और धोखा है। अपने को दिगम्बर कहलाते हुए जो प्रकार भट्टारक आगमानुसार न मुनि हैं और न ही श्रावक हैं। दिगम्बर धर्म के सिद्धान्तों के विपरीत आचरण करते हैं वे दिगम्बर किंतु अपने आपको मुनि के समान पुजवाते हैं। दिगम्बर आगम | धर्म की जड़ें खोद रहे हैं और दिगम्बर जैन धर्म का अवर्णवाद कर में वर्णित चरणानुयोग की व्यवस्था से यह पद सर्वथा विपरीत है। | रहे हैं। विदेशों में जाने वाले भट्टारक दिगम्बर पंथ वालों के साधु किंतु आगम ज्ञान के अभाव के कारण श्रावक भट्टारकों के के रूप में ही अपने आपको प्रस्तुत करते हैं। निष्पक्ष दृष्टि से देखें आतंक से आतंकित होकर, धीरे-धीरे भट्टारकों के भक्त बनकर तो दिगम्बर जैन धर्म के लिए भट्टारक पंथ वास्तव में श्वेताम्बर रह गए। यह कहना कि दिगम्बर जैन संस्कृति का इतिहास भट्टारक पंथ से अधिक खतरनाक है। जैन धर्म परीक्षा प्रधान धर्म है। इस संस्था के द्वारा दी गई जिन शासन की सेवा और उसके संरक्षण प्रकार अज्ञान पूर्वक अंध पंरपरा को अपनाते हुए भट्टारकों के का इतिहास है सर्वथा असत्य है। भट्टारकों का जन्म ही दोषपूर्ण शिथिलाचार एवं आतंक के कारण ही उत्तर भारत में विद्वानों एवं चर्या के आधार पर हुआ है अत: उनका इतिहास आगम विरुद्ध | स्वाध्यायशील श्रावकों ने आगम ज्ञान के आधार पर भट्टारकों का सदोष आचरण का इतिहास है एवं आगे चलकर वह भट्टारकों | विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप उत्तर भारत से भट्टारक प्रथा के आंतक, अन्याय एवं राजश्री ठाठ से जीवन जीने का इतिहास लगभग समाप्त हो गई। किंतु दक्षिण भारत में श्रावकों में स्वाध्याय रहा है। जैन संसकृति की रक्षा का जो कार्य भट्टारकों ने किया की कमी के कारण अभी यह प्रथा जीवित है। तथापि इस प्रथा में वह मात्र अपनी स्वार्थ सिद्धि एवं अस्तित्व के लिए करना आवश्यक व्याप्त आगम विरुद्धता और सदोषता के कारण श्री नाथूराम जी था इसलिए किया, किसी धर्म बुद्धि से नहीं। सवस्त्र भट्टारकों प्रेमी ही नहीं उनके अतिरिक्त अनेक विद्वानों ने एवं समाज के के काल में जिनवाणी का सृजन नहीं अपितु विकृतिकरण हुआ प्रमुख लोगों ने समय-समय पर भट्टारक प्रथा के विरोध में है। असहनीय विकृति का एक उदाहरण है भद्रवाहु संहिता में | अनेक पुस्तकें, आलेख लिखे हैं। कतिपय उद्धरण नीचे दे रहे हैं:पंचम् काल में दिगम्बर मुनि होने का निषेध परक श्लोक निम्न । एक पुस्तक भट्टारक चर्चा लेखक हीराचंद नेमचंद दोशी है: शोलापुर से मराठी भाषा में सन् १९१७ में प्रकाशित हुई है। इस गरहे दोषे समये संघक्रम मेल्य रूप जो मूढो। पुस्तक में प्रारंभ में कहा है कि जो बातें समाज में, धर्म में शास्त्र परिवठ्ठति दिग्बिरओ सो समणों संघ वाहि रहो॥ । विरुद्ध और नीति विरुद्ध प्रचारित हो रही हैं उनका प्रतिकार करना -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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