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ग्रन्थ- समीक्षा
प. सदासुखदास के व्यक्तित्व कृत्तित्व पर प्रकाशित
प्रथम शोध प्रबन्ध
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के समीप स्थित अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जैन शोध केन्द्र पार्श्वनाथ विद्यापीठ' से नव प्रकाशित एवं श्रीमती डॉ. मुन्नी जैन द्वारा लिखित शोध प्रबन्ध 'हिन्दी गद्य के विकास में जैन मनीषी पं. सदासुखदास का योगदान' का विमोचन पिछले दिनों अनेक विद्वानों एवं सन्तों के मध्य सानंद सम्पन्न हुआ। ज्ञातव्य है कि श्रीमती डॉ. मुन्नी जैन, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में जैन दर्शन विभागाध्यक्ष तथा अखिल भारतीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी' जी की धर्मपत्नी हैं। लेखिका ने अपनी इस कृति में हिन्दी गद्य के विकास में पं. सदासुखदास जी के योगदान का वर्णन करते समय उन समस्त पूर्ववर्ती एवं परवर्ती उन मनीषी जैन गद्यकारों और उनके साहित्य का परिचय अत्यन्त शोधपूर्ण शैली में दिया है, जिनके बहुमूल्य योगदान से हिन्दी भाषा और उसके गद्य साहित्य का विकास सम्भव हुआ।
यह ध्यातव्य है कि रत्नकरण्ड श्रावकाचार जैसे अनेक ग्रन्थों पर भाषा वचनिका लिखने के कारण लोकप्रिय उन्नीसवीं शती के सुप्रसिद्ध जैन विद्वान पं. सदासुखदास जी के गौरवशाली दुर्लभ व्यक्तित्व और कृतित्व पर यह सर्वप्रथम शोध कार्य है, जिस पर उन्हें सन् १९९६ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की शोध उपाधि प्राप्त हुई थी । वस्तुतः भाषा वचनिका साहित्य लिखकर हिन्दी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में पं. जी का योगदान बहुमूल्य रहा है, जिसका सफलता पूर्वक मूल्यांकन इस ग्रन्थ के माध्यम से पहली बार किया गया है । इस अध्ययन पूर्ण शोधकार्य के माध्यम से लगभग अस्सी जैन प्राचीन हिन्दी गद्यकार विद्वानों का एक साथ परिचय पहली बार सामने आया है। इस प्रकार पं. जी सहित हिन्दी के लुप्त प्राय जैन गद्यकारों की कीर्ति को अमर बनाने का यह सार्थक प्रयास है 1
हिन्दी के क्षेत्र में अपने आप में अनूठी व मौलिक इस कृति का अध्ययन करने के बाद हिन्दी के सुविख्यात समालोचक डॉ. नामवर सिंह ने कृति की शुभाशंसा में लिखा है कि यह शोधग्रन्थ देखने को न मिलता तो मैं पं. सदासुखदास जी जैसे जैन मनीषी और प्रारम्भिक हिन्दी गद्य निर्माता के परिचय से वंचित रह जाता हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्येताओं में ऐसे ही और लोग भी होंगे जो पं. सदासुखदास जी के कृतित्व से अपरिचित हैं।
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डॉ. (श्रीमती) मुन्नी जैन का शोध प्रबन्ध इसी क्षतिपूर्ति की दिशा में श्लाघ्य प्रयास है और इस नयी जानकारी के लिए और कोई हो न हो, मैं तो निश्चय ही इस विदूषी देवी के प्रति कृतज्ञ हूँ। इन्होंने दुर्लभ सामग्री के अनुसन्धान में अनुकरणीय अध्यवसाय किया है।'
मौखिक परीक्षा की शोध समिति ने इस मौलिक शोध प्रबन्ध पर अपनी संस्तुति में लिखा है कि ' श्रीमति मुन्नी जैन ने वचनिका साहित्य का हिन्दी में सर्वप्रथम अनुदित करके प्रस्तुत करने का श्रेयस पूर्ण कार्य किया है तथा एक दुर्लभ विद्वान पं. सदासुखदास को प्रकाश में लाने का गौरव पाया है। इस विषय में वे पूर्णत: समर्पित हैं तथा पोथियों का गहन मंथन भी किया है।
शोध प्रबन्ध के परीक्षक सुप्रसिद्ध साहित्कार प्रो. रमेश कुंतल मेघ जी, लखनऊ ने अपने मूल्यांकन में लिखा है '
'यह प्रबन्ध लगभग अज्ञात लेखक तथा उन्नीसवीं शती के राजस्थानी भाषा तथा साहित्य को प्रकाशित करता है। राजस्थानी देश भाषा के ढूँढारी गद्य में सदासुख दास जी ने योगदान करते हुए हिन्दी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है। इस प्रबन्ध में सांगोपांग पृष्ठभूमि के बाद इस गद्य साहित्य की परम्परा तथा व्यापकता का ऐसा सर्वेक्षण किया है, जिसमें नये तथ्यों एवं व्याख्याओं का विपुल भंडार है ।'
इस प्रकार सर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर (म.प्र.) के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. प्रेमशंकर जी ने अपने मूल्यांकान में लिखा है 'भारतेन्दु के समकालीन पं. सदासुखदास जी पर शोधकार्य करके श्रीमती जैन ने हमारा ध्यान इस ओर आकृष्ट किया है कि अपेक्षाकृत अल्पख्याति लेखकों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पं. सदासुखदास से सम्बन्धित आलोचना सामग्री प्रायः उपलब्ध नहीं इसलिए मूल पाण्डुलिपियों के सहारे ही अग्रसर होना पड़ा है। लेखिका ने अनुपलब्ध सामग्री को प्राप्त करने में जो श्रम किया होगा उसका अनुमान करना कठिन है। यह प्रबन्ध हिन्दी गद्य की परम्परा के एक विस्मृत अध्याय को रेखांकित करने का प्रयत्न है।'
पुस्तक का प्रकाशन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड, वाराणसी-5 तथा श्री दिगम्बर जैन सिद्धकूट चैत्यालय टेम्पल ट्रस्ट अजमेर ने संयुक्त रूप से किया है।
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रतनचन्द्र जैन
दिसम्बर 2003 जिनभाषित 25
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