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________________ आंगन में पदार्पण करने की प्रार्थना की। तब नागकुमार ने उसके । पश्चात् इन सभी को अपने अपने स्थानों पर छोड़कर मात्र अपनी आतिथ्य को सहर्ष स्वीकार कर उसको उसी प्रकार सम्मान का | एक पत्नी लक्ष्मीमती के साथ ही यथेष्ठ सुख का अनुभव किया। दर्जा दिया जिस प्रकार भगवान महावीर ने सतीचन्दना को उससे 4. सत्कर्म से पुण्योदय की प्राप्ति - 1. भीमासुर राक्षस् आहार ग्रहण कर तथा अपने संघ में दीक्षित कर दिया था। इस से पुलिन्द की पत्नी शबरी को लेने के लिये नागकुमार जैसे ही तरह उसी परम्परा को णायकुमार ने भी आगे बढ़ाया। पाताल में प्रविष्ठ हुए, असुर उनके दर्शनों से उत्कंठित हो उठा तथा 2. अपने पिता जयन्धर द्वारा अपनी माँ का सारा धन अर्धान्जलि कर नागकुमार को खड्ग रत्न तथा रत्नकरण्ड नामक अपहरण कर लेने पर नागकुमार ने द्यूत क्रीडा में अपने पिता को | शैया समर्पित की। हराकर वह सारा धन जीत लिया। अपनी माँ को जो भूषणविहीन | 2. विद्याधर राजा के पुत्र जितशत्रु को 'ओम्' का ध्यान तथा जीर्णवस्त्रों में थी, सारा धन व स्वर्ण पुनः प्राप्त करवाकर | करने पर जिन विद्याओं की सिद्धि हुई थी वे सभी विद्याएँ वहाँ के उनके चेहरे की कांति पुनः लौटा दी। निवासी वेताल ने नागकुमार को कालवेताल गुफा में प्रवेश करने 3. राजा विनयपाल की भोली राजकुमारी को मथुरापुरी के | पर समर्पित कर दी। राजा ने अपहरण कर बन्दीगृह में डालदिया था। नागकुमार ने 3. जिन विषैले आमों के विष से भग्न होकर कितने ही व्यालभृत्य की सहायता से उस राजकुमारी को मुक्त करवाकर मनुष्य यमपुर के मार्गपर लग गये थे किन्तु नागकुमार उन विषैले गौरव सहित अपने पिता के घर भेज दिया। भीमासुर राक्षस द्वारा आमों को चूसने से न तो मूर्च्छित हुए और ना ही मरे । इसके हरण की गयी शबरी के वियोग में रोते हुए पुलिन्द को नागकुमार प्रभाव से पाँचसौ शूरवीरों ने नागकुमार का भृत्यत्व भी स्वीकार ने शबरी प्राप्त कर प्रसन्न किया। किया। 4. विद्याधर सुकण्ठ ने सात कन्याओं का हरण कर लिया | 5. वैराग्य प्राप्ति व मोक्ष का कथन - राज्यभिषेक के था। तब नागकुमार ने यह कहते हुए 'रे पापी तुझे तेरा यह पाप खा बाद आठ सौ वर्ष पृथ्वी का उपभोग करने के बाद यह विचार कर जायेगा।' परायी धरती, परायी स्त्री और पराये धन की तृष्णा के कि धन और यौवन किसके स्थिर रहते हैं, नागकुमार ने दीक्षा ले कारण रे! दुराचारी, तू खलों और चोरों जैसा दण्ड पाकर मरेगा, | ली । पाँचों इन्द्रियों को जीतकर पाँचों आस्रवों का निरोध कर वे सुकण्ठ के गले के दो टुकड़े कर उन कन्याओं को मुक्त करवाया। अनंग (अशरीरी) हो मोक्ष गये। 5. विद्यावाद्य में प्रवीण राजपुत्री त्रिभुवनरति ने यह निश्चय । इस तरह नागकुमार चरिउ के नायक कामदेव नागकुमार किया था कि जो कोई उसको मान आलापिनी विद्या द्वारा जीत | के जीवन के माध्यम से महाकवि पुष्पदन्त ने मानव मात्र के लेगा उसी की वह प्रियतमा गृहिणी होगी। तिलकसुन्दरी ने भी | विकास के लिये आधारभूत इस सत्य को बहुत ही सहज रूप में यह प्रतिज्ञा की थी कि जो श्रेष्ठ पुरुष उसके नृत्य करते समय उद्घाटित कर दिखाया है जिस सत्य को अपनाकर कोई भी उसके चंचल पैरों के पतन की शैली को समझकर मृदंग बजा व्यक्ति अपने सुकृत का पुण्य भोग सकता है। वह सत्य है सकेगा वही उसके अभिमान को भंगकर उसका पति होगा। 'विधिपूर्वक सत्कर्म'। कवि ने स्पष्ट लिखा है किं इकु पयावंधुरु मानमर्दक इन नागकुमार ने इन दोनों के अभिमान को भंग करने के । सुकिउ भुंजइ अण्णु वि विहणा विहिउ । अर्थात् केवल प्रजाबन्धुर उद्देश्य से ही इनसे विवाह किया। नागकुमार ही अपने सुकृत का पुण्य नहीं भोगते किन्तु अन्य कोई 6. नागकुमार ने पिता के यह कहने पर कि 'तुम करुणावान भी जो विधिपूर्वक सत्कर्म करते हैं वे इसी प्रकार पुण्य का फल हो इन दो कन्याओं को मरने से बचा लो' पंचसुगन्धिनी वैश्या की | भोगते हैं। दो पुत्रियों किन्नरी व मनोहरी से विवाह करना स्वीकार किया। आज का मानव भौतिक दृष्टि से तो समृद्ध होता जा रहा है राजा प्रद्योतन ने अरिवर्म राजा के भाई की पुत्री गुणवती | किन्तु उदात्त चारित्रिक दृष्टि से उत्तरोत्तर पतनोन्मुख है। ऐसी विषम को प्राप्त करने के लिये युद्ध किया था जिससे अरिवर्म राजा बहुत | परिस्थिति में नागकुमार चरित सभी के लिये अनुकरणीय एक चिन्तित थे। अतः अरिवर्म राजा को चिन्ता से मुक्त करने के लिये | ऐसा जीवन दर्शन है जो मानव जीवन के सभी संकुचित द्वारों को ही राजा प्रद्योतन को युद्ध में पराजित कर नागकुमार ने गुणवती से | उन्मीलित करने के साथ-साथ सबको चारुचरित युक्त प्रशस्त पथ विवाह किया। की ओर भी अग्रसर करता है। वस्तुत: अपरिहार्य कारणों के उपस्थित होने पर सद् उद्देश्य सन्दर्भ: को लेकर विवाह करना दोषपूर्ण नहीं है किन्तु कामासक्त होकर पुष्पदन्त : णायकुमार चरिउ, सम्पादक- अनुवादक : डॉ. हीरालाल जैन पाप बुद्धि से विवाह करना दोषपूर्ण है। अपने उद्देश्य की पूर्ति के प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी दिसम्बर 2003 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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