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का अत्यन्त महत्व है। इसे आवश्यक रुप से ध्यान में रखना । तरह की शुद्धि का ध्यान रखना चाहिये। चाहिये क्यों कि समय से किया गया कार्य सफल एवं पूर्ण फल
प्राण प्रतिष्ठाप्य धिवासना च संस्कार नेत्रोच्छृत्ति सूरिमंत्रा। देने वाला होता है।
मूलंजिनत्वाऽधिगमेक्रियाऽन्या भक्तिप्रधानासुकृतोद्भवाय।।३४९॥ गर्भ कल्याणक में तीर्थंकर की माता के गर्भ के समय का अर्थात्- प्राण प्रतिष्ठा मंत्र विधि अरु अधिवासना मंत्र विशेषध्यान रखें।
विधि अरु नेत्रोन्मील संस्कार कहिये अंक स्थापन अरु सूरिमंत्र ये इत्याधुयाक्लप्त कुमारीकाणां सार्थेन पूज्या जननी जिनेशः। विधि सर्वज्ञत्व में मुख्य हैं अन्य विधि पुण्यानुबंध देने वाली क्रिया
मासान्न वाथोपनिनाययद्यायामानदिनानि व्यातिसंक्रमेण ॥७५५॥ भक्ति विशेष निमित्त है। अर्थात् आवश्यक विधि सर्व बिम्बन में
अर्थात्- कल्पना की हुई दिक्कुमारियों करि सेवित श्री | करनी । अन्य क्रिया मूल बिम्ब में करनी अतः ज्ञानकल्याणक की जिनेश की माता उत्कृष्ट नव महीना अथवा नव दिन तथा नव प्रहर क्रियायें भी दोपहर में निराकुलता से करनी चाहिये। कल्याणकों पर्यन्त यथा योग्य गर्भवास को मंगल करो। अतः भगवान के गर्भ | को समय से करने से प्रतिमाओं में अतिशयता प्रकट होती है। में ठहरने का समय कम से कम नव प्रहर तो होना ही चाहिये । हम | समय टालकर की गई क्रिया समुचित फल नहीं देती है। समय के अभाव में क्रियाओं के समय का उल्लंघन करते हैं जो गर्भ कल्याणक की क्रिया को छोड़कर सभी क्रियायें दिन ठीक प्रतीत नहीं होता है। नवप्रहर पूर्ण करने के लिये गर्भ कल्याणक | में करना चाहिये प्रतिष्ठा ग्रन्थों में सभी क्रियायें प्रायः आदिनाथ दो दिन किया जाता है। जिसमें गर्भावतरण की क्रिया अर्धरात्रि में भगवान के कल्याणकों को मुख्य करके वर्णित की गई हैं। आदिनाथ करने का निर्देश दिया गया है। इसमें एक प्रहर शेषरात्रि का दिन | के कल्याणकों के समय अनुसार ही पाँचों कल्याणक करने का के चार प्रहर और दूसरी रात्रि के चार प्रहर इस प्रकार नव प्रहर | वर्णन किया गया है। कल्याणकों की क्रिया रात्रि में नहीं करना पूर्ण होंगे, अगले दिन प्रातः काल भगवान का जन्म किया जाना चाहिये। क्योंकि जब गृहस्थों को रात्रि में कूटना, पीसना, बुहारी श्रेष्ठ है।
लगाना आदि कार्यों का निषेध किया गया है तब हमें रात्रि में तां मूल प्रतियातनां सुरपति गंधाक्त वर्ण्यप्रभां। धार्मिक क्रिया करने की आज्ञा कहाँ मिल सकती है। श्री कार्तिकेय मंजूषा निहितां विछाय विनयान्मातुः प्रसूति स्थले। स्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा हैअनियापि निधापयेत शुचितरै वस्त्रै रहस्ये रजन्यर्ध।
रजन्यां रात्रो सरात्रि भोजन विरक्तः पुमान आरम्भं। चाल्प तनौ तु तत्र वसनाच्छनां क्रियान्मंत्र वित॥७२९॥
गृह व्यापार क्रय विक्रय वाणिज्या दिकं खंडनी पीसनी चुल्ली : अर्थात्- इन्द्र राजा है सो उस मूल बिम्ब को गंध युक्त देह
उदकुम्भ प्रमार्जिनी पञ्च सूनादिकं त्यजति स: रात्रि भोजन लिंपन करि मंजूषा में स्थापि विनय सेती माता का प्रसूति स्थान में
विरतः रात्रौ सावध पाप व्यापारादिकं त्यजति ॥३८३॥ ल्याय कर सुन्दर धौत वस्त्र करि एकान्त में अरु अर्धरात्रि में आच्छादित अर्थात- रात्रि भोजन त्याग करने वाला कूटना, पीसना करै। अतः गर्भ स्थापन मंजूषा (काँच का बक्सा) में करें । तीर्थंकर
| आदि पाप कार्यों से बच जाता है, रात्रि में जीवों की अधिकता होने की माता के गर्भ शोधन को इन्द्र देवियों को भेजता है वहाँ गर्भ से सद्गृहस्थ को रात्रि में कोई कार्य नहीं करना चाहिये। विज्ञान ने स्फटिक के समान होता है ऐसा कथन किया गया है।
भी स्वीकार किया है कि सूर्यास्त हो जाने पर परा बैगनी किरणों जन्म कल्याणक ब्रह्म मुहूर्त अर्थात् प्रातः काल शुभ लग्न
के अभाव में अत्यन्त सूक्ष्म जीव पूरे वायुमण्डल में फैल जाते हैं एवं शुभ नवांश में करना चाहिये। हमें अपनी सुविधा की अपेक्षा न इसलिये हमारे मुनिराज भी रात्रि में मौन रहते हैं। बिहार आदि करते हुये समय का विशेष ध्यान रखना चाहिये। दीक्षा कल्याणक क्रियायें भी नहीं करते हैं। गृहस्थ श्रावक से जितना बन सकता है की क्रियाओं का समय दोपहर के बाद अपरान्ह काल कहा गया है।
उतना रात्रि के कार्यों से बचना चाहिये। पहली प्रतिमा धारण करने वादित्र गंधर्व जयेति शब्दैः स्तब्धी कृताशा निचये मुहूर्ते॥
पर उसे रात्रि भोजन त्याग हो जाता है किन्तु छटवी प्रतिमा धारण शुभेदिनार्घोत्तरभाजिजिष्णौ ग्रंथ्यकालः शुभदोविधेयः॥८३३॥
करने पर उसे रात्रि भोजन त्याग करने का निर्देश दिया गया है। अर्थात्- पालकी पर आरोहण के समय अनेक वादित्रनि उसका तात्पर्य है कि नव कोटि से रात्रि भोजन त्याग करें। रत्नकरण्ड का शब्द तथा गन्धर्व आदि का जय जय शब्द करि व्याप्त भया है श्रावकाचार में कहा गया है। दिशा का समूह जामै ऐसा दिनार्ध का अपर भाग शुभमुहूर्त में श्री
अन्नं पानं खाद्यं लेां नाश्नाति यो विभावर्याम्॥ जिन जयनशील का निर्ग्रन्थ काल शुभ . देने वारा करना दीक्षा
सचरात्रिभुक्तिविरत: सत्वेष्वनुकम्प मान मनाः ॥१४२॥ का समय अपरान्ह काल है। राज दरवार के मनोरंजक कार्यक्रमों अर्थात्- जो जीवों पर दयालु चित्त होता हुआ रात्रि मैं । में समय का ध्यान न रखकर शेष प्रतिमाओं की क्रियाओं के समय
| अन्न पेय खाद्य और लेह्य चाहने योग्य पदार्थ नहीं खाता वह रात्रि का भी ध्यान होना अनिवार्य है। ज्ञानकल्याणक की क्रियायें दोपहर
| भुक्ति त्याग प्रतिमाधारी है। में करना चाहिये। ये क्रियायें पंचकल्याणक में प्रमुख हैं इसमें सब
पहली प्रतिमा के समय रात्रि का पानी भी त्यागा था किन्तु
14 दिसम्बर 2003 जिनभाषित
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